खुशियों का इंतज़ार -- कविता
सुबह-सुबह चिड़िया ने
चहक कर उठाया हमें,
रोज की तरह
आकर खिड़की पर
मधुर गीत सुनाया हमें।
सूरज में भी कुछ
नई सी रोशनी दिखी,
हवाओं में भी
एक अजब सी
सोंधी खुशबू मिली।
फूलों ने झूम-झूम कर
एकदूजे को गले लगाया,
गुनगुनाते हुए
पंक्षियों ने नया राग सुनाया।
हर कोना लगा
नया-नया सा,
हर मंजर दिखा
कुछ सजा-सजा सा।
इसके बाद भी
एक वीरानी सी दिखी,
अपने आपमें कुछ
तन्हाई सी लगी।
अचानक
चौंक कर उठा तो
सपने में
खुद को खड़ा पाया,
खुशनुमा हर मंजर को
अपने से जुदा पाया।
आंख मल कर
दोबारा कोशिश
उसी मंजर को पाने की,
ख्वाब में ही सही
फिर वही खुशियां
देख पाने की।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
गुरुवार, 30 सितंबर 2010
मंगलवार, 28 सितंबर 2010
ग़ज़ल -- फितरत -- कुमारेन्द्र
ग़ज़ल -- फितरत
अपने शीशमहल से औरों पर पत्थर फेंकते हैं।
छिपा कालिख अपनी औरों पर कीचड़ फेंकते हैं।।
हाथ हैं सने उनके किसी गरीब के खून से।
भलाई की आड़ में लहू वो ही चूसते हैं।।
दूसरों को जिन्दा देखें उनसे होता यह नहीं।
मुँह से लोगों के वो अकसर निवाले छीनते हैं।।
दरिया का पानी उनके लिए सामान है पूजा का।
खेत वो अपने सारे मगर खून से ही सींचते हैं।।
है भरी उनके दिल में बुराई लोगों के लिए।
हरेक शख्स को शक की निगाह से देखते हैं।।
महफिलों में आयें-जायें उनकी फितरत ही नहीं।
खुशनुमा हर शाम को गमगीन बनाना सोचते हैं।।
सह रहे हैं खामोश रहकर उनके सारे सितम।
खामोशी के बाद के तूफान की राह देखते हैं।।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
अपने शीशमहल से औरों पर पत्थर फेंकते हैं।
छिपा कालिख अपनी औरों पर कीचड़ फेंकते हैं।।
हाथ हैं सने उनके किसी गरीब के खून से।
भलाई की आड़ में लहू वो ही चूसते हैं।।
दूसरों को जिन्दा देखें उनसे होता यह नहीं।
मुँह से लोगों के वो अकसर निवाले छीनते हैं।।
दरिया का पानी उनके लिए सामान है पूजा का।
खेत वो अपने सारे मगर खून से ही सींचते हैं।।
है भरी उनके दिल में बुराई लोगों के लिए।
हरेक शख्स को शक की निगाह से देखते हैं।।
महफिलों में आयें-जायें उनकी फितरत ही नहीं।
खुशनुमा हर शाम को गमगीन बनाना सोचते हैं।।
सह रहे हैं खामोश रहकर उनके सारे सितम।
खामोशी के बाद के तूफान की राह देखते हैं।।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
सोमवार, 27 सितंबर 2010
ग़ज़ल -- धूप-छाँव -- कुमारेन्द्र
ग़ज़ल -- धूप-छाँव
चारों ओर इंसान के जिन्दगी का अजब घेरा है।
चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है।।
लगा था जो कोशिश में जिन्दगी आसान बनाने में।
अब उसी को पल-पल मौत माँगते देखा है।।
जिन्दगी उसको आज करीब से छूकर निकली।
मौत के साथ खेलना तो उसका पेशा है।।
क्या पता था राहे-मंजिल इतनी कठिन होगी।
है घना अँधियारा और दूर बहुत सबेरा है।।
शाम घिरते ही भय के भूत उड़ते हैं छतों पर।
घोंसले में माँ ने बच्चों को अपने में समेटा है।।
किसी आवाज किसी दस्तक पर नहीं कोई हलचल।
लगता है सभी को किसी अनहोनी का अंदेशा है।।
मुस्कराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आँखें।
सूनी सी आँखों में एक दरिया छिपा रखा है।।
सुबह की रोशनी, रात की चाँदनी का पता नहीं।
जर्रे-जर्रे पर एक खौफनाक मुलम्मा चढ़ा है।।
अमन, चैन, प्रेम, स्नेह बातें हैं अब बीते कल की।
दहशतजदा माहौल से आज काल भी घबराया है।।
रिसते जख्म, सिसकते अश्क शोले बनेंगे एक दिन।
हर घूँट के साथ लोगों ने एक अंगारा पिया है।।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
चारों ओर इंसान के जिन्दगी का अजब घेरा है।
चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है।।
लगा था जो कोशिश में जिन्दगी आसान बनाने में।
अब उसी को पल-पल मौत माँगते देखा है।।
जिन्दगी उसको आज करीब से छूकर निकली।
मौत के साथ खेलना तो उसका पेशा है।।
क्या पता था राहे-मंजिल इतनी कठिन होगी।
है घना अँधियारा और दूर बहुत सबेरा है।।
शाम घिरते ही भय के भूत उड़ते हैं छतों पर।
घोंसले में माँ ने बच्चों को अपने में समेटा है।।
किसी आवाज किसी दस्तक पर नहीं कोई हलचल।
लगता है सभी को किसी अनहोनी का अंदेशा है।।
मुस्कराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आँखें।
सूनी सी आँखों में एक दरिया छिपा रखा है।।
सुबह की रोशनी, रात की चाँदनी का पता नहीं।
जर्रे-जर्रे पर एक खौफनाक मुलम्मा चढ़ा है।।
अमन, चैन, प्रेम, स्नेह बातें हैं अब बीते कल की।
दहशतजदा माहौल से आज काल भी घबराया है।।
रिसते जख्म, सिसकते अश्क शोले बनेंगे एक दिन।
हर घूँट के साथ लोगों ने एक अंगारा पिया है।।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
रविवार, 26 सितंबर 2010
कविता --- भावबोध --- कुमारेन्द्र
कविता == भावबोध
============
मैं
भाव-बोध में
यूं अकेला चलता गया,
एक दरिया
साथ मेरे
आत्म-बोध का बहता गया।
रास्तों के मोड़ पर
चाहा नहीं रुकना कभी,
वो सामने आकर
मेरे सफर को
यूं ही बाधित करता गया।
सोचता हूं
कौन...कब...कैसे....
ये शब्द नहीं
अपने अस्तित्व की
प्रतिच्छाया दिखी,
जिसकी अंधियारी पकड़ से
मैं किस कदर बचता गया।
भागता मैं,
दौड़ता मैं,
बस यूं ही कुछ
सोचता मैं,
छोड़कर पीछे समय को
फिर समय का इंतजार,
बचने की कोशिश में सदा
फिर-फिर यूं ही घिरता गया।
भाव-बोध गहरा गया,
चीखते सन्नाटे मिले,
आत्म-बोध की संगीति का
दामन पकड़ चलते रहे,
छोड़कर पीछे कहीं
अपने को,
अपने आपसे,
खुद को पाने के लिए
मैं
कदम-कदम बढ़ता गया।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
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मैं
भाव-बोध में
यूं अकेला चलता गया,
एक दरिया
साथ मेरे
आत्म-बोध का बहता गया।
रास्तों के मोड़ पर
चाहा नहीं रुकना कभी,
वो सामने आकर
मेरे सफर को
यूं ही बाधित करता गया।
सोचता हूं
कौन...कब...कैसे....
ये शब्द नहीं
अपने अस्तित्व की
प्रतिच्छाया दिखी,
जिसकी अंधियारी पकड़ से
मैं किस कदर बचता गया।
भागता मैं,
दौड़ता मैं,
बस यूं ही कुछ
सोचता मैं,
छोड़कर पीछे समय को
फिर समय का इंतजार,
बचने की कोशिश में सदा
फिर-फिर यूं ही घिरता गया।
भाव-बोध गहरा गया,
चीखते सन्नाटे मिले,
आत्म-बोध की संगीति का
दामन पकड़ चलते रहे,
छोड़कर पीछे कहीं
अपने को,
अपने आपसे,
खुद को पाने के लिए
मैं
कदम-कदम बढ़ता गया।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
शनिवार, 25 सितंबर 2010
ग़ज़ल -- अभिलाषा -- कुमारेन्द्र
ग़ज़ल --- अभिलाषा
=============
दूर अँधियारे में दीपक जलाना चाहता हूँ।
पास से अपने अँधेरे मिटाना चाहता हूँ।।
जिन्दगी की राह में आती हैं मुश्किलें।
हर एक मुश्किल आसान बनाना चाहता हूँ।।
खाकर ठोकर राह में गिरते बहुत हैं।
गिरने वालों को उठाना चाहता हूँ।।
दोस्तों ने दोस्ती के मायने हैं बदले।
रूठे हर दिल में दोस्ती जगाना चाहता हूँ।।
हैं दिलों के बीच जो नफरत की दीवारें।
उन सभी दीवारों को गिराना चाहता हूँ।।
खाक हो जायेगा जिसमें कल जमाना।
आज मैं वह आग बुझाना चाहता हूँ।।
हिंसा, अत्याचार से उजड़ा है ये चमन।
उजड़े गुलशन को फिर बसाना चाहता हूँ।।
अमन, चैन और प्यार का हो मौसम सुहाना।
सूनी आँखों में सपना सजाना चाहता हूँ।।
सारी बुराई ले जाये जो खुद में समेटे।
ऐसा एक तूफान चलाना चाहता हूँ।।
=============
दूर अँधियारे में दीपक जलाना चाहता हूँ।
पास से अपने अँधेरे मिटाना चाहता हूँ।।
जिन्दगी की राह में आती हैं मुश्किलें।
हर एक मुश्किल आसान बनाना चाहता हूँ।।
खाकर ठोकर राह में गिरते बहुत हैं।
गिरने वालों को उठाना चाहता हूँ।।
दोस्तों ने दोस्ती के मायने हैं बदले।
रूठे हर दिल में दोस्ती जगाना चाहता हूँ।।
हैं दिलों के बीच जो नफरत की दीवारें।
उन सभी दीवारों को गिराना चाहता हूँ।।
खाक हो जायेगा जिसमें कल जमाना।
आज मैं वह आग बुझाना चाहता हूँ।।
हिंसा, अत्याचार से उजड़ा है ये चमन।
उजड़े गुलशन को फिर बसाना चाहता हूँ।।
अमन, चैन और प्यार का हो मौसम सुहाना।
सूनी आँखों में सपना सजाना चाहता हूँ।।
सारी बुराई ले जाये जो खुद में समेटे।
ऐसा एक तूफान चलाना चाहता हूँ।।
बुधवार, 22 सितंबर 2010
एक ग़ज़ल -- हो सकता है तुकबंदी सी लगे किन्तु कुछ शब्दों का खेल है ये ... कुमारेन्द्र
ग़ज़ल --- कुमारेन्द्र
===================
बुझती डूबती जीवन ज्योति अपनी जलाओ तुम।
जीवन ज्योति से दूर अंधकार भगाओ तुम।।
अंधकार में क्यों जीना है सीख लिया।
जीना है तो नया चिराग जलाओ तुम।।
चिराग में जलने परवानों को आना ही है।
परवानों को एक नई राह दिखाओ तुम।।
नई राह पर आने वाली मुश्किलों से न डरना।
मुश्किलों से लड़ खुद को फौलाद बनाओ तुम।।
फौलाद सी ताकत रगों में अपनी भर लो।
रगों में संग लहू के नया जोश बहाओ तुम।।
जोश के दम पर इस जहाँ को बदल दोगे।
इस जहाँ को अपने पीछे चलाओ तुम।।
==========================
चित्र गूगल छवियों से साभार
===================
बुझती डूबती जीवन ज्योति अपनी जलाओ तुम।
जीवन ज्योति से दूर अंधकार भगाओ तुम।।
अंधकार में क्यों जीना है सीख लिया।
जीना है तो नया चिराग जलाओ तुम।।
चिराग में जलने परवानों को आना ही है।
परवानों को एक नई राह दिखाओ तुम।।
नई राह पर आने वाली मुश्किलों से न डरना।
मुश्किलों से लड़ खुद को फौलाद बनाओ तुम।।
फौलाद सी ताकत रगों में अपनी भर लो।
रगों में संग लहू के नया जोश बहाओ तुम।।
जोश के दम पर इस जहाँ को बदल दोगे।
इस जहाँ को अपने पीछे चलाओ तुम।।
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ग़ज़ल के पैमाने के बारे में बहुत ज्ञान नहीं है, हो सकता है कि ये तुकबंदी सी लगे पर बोल्ड किये गए शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए पढियेगा तो इस रचना के बारे में कुछ अंदाज़ लग सके।
गलतियों पर विशेष निगाह चाहते हैं।
गलतियों पर विशेष निगाह चाहते हैं।
चित्र गूगल छवियों से साभार
मंगलवार, 21 सितंबर 2010
ज़िन्दगी --- ग़ज़ल ---- कुमारेन्द्र
ग़ज़ल ---- ज़िन्दगी
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==============
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी के करीब लाती है ज़िन्दगी।
कभी हँसाती, कभी जार-जार रुलाती है ज़िन्दगी।।
रेत की दीवार से ढह जाते हैं सुनहरे सपने।
एक पल में हजारों रंग दिखाती है ज़िन्दगी।।
कोई नहीं जानता अंजाम अपने सफर का।
सभी को अपनी मंजिल तक पहुँचाती है ज़िन्दगी।।
नहीं कोई भरोसा है गुजरते हुए वक्त का।
सभी को कटी पतंग सा डोलाती है ज़िन्दगी।।
सहर होने से पहले काली रात के साये हैं।
मिटाने को फासला चाँदनी बन आती है ज़िन्दगी।।
लड़ते हुए अपने आपसे जीना भुला बैठे।
जीने के नये अंदाज सिखाती है ज़िन्दगी।।
बिछुड़ गये थे जो बीच राह में हमकदम।
अनजाने किसी मोड़ पर फिर मिलाती है ज़िन्दगी।।
दूर होकर भी कोई दिल के करीब है हमारे।
तन्हाई में मीठा सा एहसास कराती है ज़िन्दगी।।
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