गुरुवार, 26 नवंबर 2015

प्रकृति के नियम में भी असहिष्णुता

जो ऊपर जायेगा वो नीचे भी आएगा, जो कहीं चढ़ा है वो वहाँ से उतरेगा, ये प्रकृति का नियम है. इधर देखने में आ रहा है कि प्रकृति के इस नियम ने अपने आपको माहौल के अनुसार ढाल लिया है. अब देखिये न, कई-कई वस्तुओं के दाम एक-एक करके लगातार अपने आपको ऊपर ले जा रहे हैं किन्तु नीचे आने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. दाल ने अपने रूप को विकराल करना शुरू किया तो फिर थामा ही नहीं. देखादेखी अब टमाटर गुस्से के मारे लाल होकर लगातार दाल के समकक्ष खड़ा होने का मन बनाने लगा है. हालाँकि बीच-बीच में प्याज ने उठने की कोशिश की किन्तु उसने प्रकृति के नियम का पालन करते हुए वापस आने में ही भलाई समझी. दाल, टमाटर की बढ़ती कीमतों के न घटने वाले स्वरूप से जैसे-तैसे समझौता करके मान लिया गया कि ये वापस अपने रूप में लौटने वाले नहीं हैं. मन को संतोषम परम सुखम की घुट्टी पिलाकर इनको इसी वर्तमान स्वरूप में ग्रहण करना शुरू कर लिया गया.

अभी देह को मंहगाई के झटकों से कुछ राहत मिलने का एहसास होने ही वाला था कि कुछ और जगह से रूप विस्तार की खबरें आनी शुरू हो गईं. देश को स्वच्छ करने के नाम पर रेलवे ने नागरिकों की जेबें साफ़ करने का मंतव्य स्पष्ट किया. देश को स्वच्छ रखने की जिम्मेवारी रेलवे ने अपने यात्रियों के सिर मढ़ दी. अब यात्रा किराये के बढ़ते स्वरूप को तो वापसी करनी ही नहीं है भले ही प्रकृति का नियम चाहे जो कुछ बना रहे. प्रकृति से लगातार इस तरह की छेड़छाड़ करने वाले किसी भी रूप में समाज का भला नहीं कर सकते.


इस बात की भी सम्भावना है कि या तो प्राकृतिक नियम को खरीद लिया गया है या फिर वो भी जन-विरोधी हो गई है. देखा जाये तो ये भी एक तरह की भक्ति है और शायद इसी भक्ति में प्रकृति का ये नियम अपनी सहिष्णुता खो बैठा है. वैसे इस असहिष्णुता के माहौल में, जबकि सब कुछ जन-विरोधी होता दिख रहा है, एकमात्र शराब ही ऐसी सहायक सामग्री है जो प्रकृति के नियम का अक्षरशः पालन कर रही है. पूरे सुरूर में चढ़ती है तो उसी सुरूर में उतर भी जाती है. 

बुधवार, 4 नवंबर 2015

स्वागत हो आने वाले का

एक उम्र के बाद हर व्यक्ति की इच्छा होती है कि बढ़ती आयु में उसके घर-परिवार वाले उसका ख्याल रखें. इस अभिलाषा के मोहपाश में सभी घिरे होते हैं, वो चाहे अमीर हो अथवा गरीब, राजा हो अथवा फ़कीर, दयालु हो या क्रूर, निरपराध हो या फिर अपराधी. यदि इसी अभिलाषा के चलते छोटा सा राजन वापस घर आने की तत्परता दिखा रहा है तो इसमें बुरा क्या है? एक तो उसकी उम्र बढ़ती जा रही है, जिसके लिए उसे सहारे की आवश्यकता है. दूसरे उसके काम भी इतने महान रहे हैं कि सहारा देने वाले उसको टपकाने में कुछ कमी नहीं रखेंगे. इसके अलावा वो एक बात विशेष रूप से जानता है कि सम्पूर्ण विश्व में हमारे देश में चिकित्सा सेवा भले ही वैश्विक स्तर पर किसी भी श्रेणी की हो पर चिकित्सकीय खर्चों में हम सबसे कम खर्चीले देश में शुमार किये जाते हैं. चिकित्सा सेवा के साथ-साथ अतिथि देवो भव, सर्वे भवन्तु सुखना, वसुधैव कुटुम्बकम जैसे अमर वाक्यांशों के चलते हमारे देश की मेहमाननवाजी की अपनी ही विशिष्टता है. उस पर भी यदि ये सारी सुविधाएँ सरकारी खर्चों पर उपलब्ध हो जाएँ तो फिर सोने पर सुहागा हो जाता है. अब ऐसे में उस बेचारे मासूम से छोटे ने घर वापसी का मन बना लिया है तो हम सभी को उसका स्वागत करना चाहिए. 

स्वागत इस कारण से भी किया जाना चाहिए कि कल को पता नहीं कि किस काले कोट वाले की बुद्धि की कृपा पाकर वो देश की सडकों पर स्वतंत्र, निरपराधी बना टहलता मिले; क्या पता किस राजनैतिक दल की नज़रें इनायत हों और वह सांसद, विधायक, मंत्री बना हम पर शासन करता दिखे; क्या पता किस विमर्शवादी की चपेट में आकर शांति के नोबल पुरस्कार हेतु नामित दिखे. वैसे भी मृत्यु तो सबको ही आनी है, उसे भी आएगी, उससे पहले वो जिस प्रशासन से तमाम उम्र भागता रहा, कुछ वर्ष उसी प्रशासन की सुख-सुविधाओं में, छत्र-छाया में गुजार कर मौज मना ले तो क्या बुराई है? मरने के बाद अपने घर की मिट्टी में मिल जाना भी उसके लिए कम सुखद नहीं रहता जो ताउम्र घर से बाहर ही कामधाम करता रहा हो. 

आइये हम सब उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए उसके आतिथ्य के लिए अपने को सहज भाव से तत्पर करें, क्या पता कल को उसकी मृत्यु के बाद उसकी समाधि तीर्थस्थल ही बन जाये?