गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

पहचान के साथ ही... [कविता--कुमारेन्द्र]

कविता --- पहचान के साथ ही...


अपराध करने के बाद भी
अपराध-बोध का
तनिक भी भान नहीं,
नहीं एहसास कि
वह अपने हाथों से
मिटा चुका है एक सृष्टि को,
वो हाथ जो
झुला सकते थे झूला,
दे सकते थे थपकी,
सिखा सकते थे चलना,
जमाने के साथ बढ़ना,
उन्हीं हाथों ने
सुला दिया मौत की नींद,
मिटा दिये सपने,
अवरुद्ध कर दिया विकास,
बिना उसकी आंखें खुले,
बिना उसके संसार देखे,
बिना अपना परिवार जाने,
समाप्त हो गया उसका अस्तित्व,
समाप्त हो गया एक जीवन,
मिट गई एक मुस्कान
क्योंकि
समाज में आने के पूर्व ही
समाज के कथित ठेकेदार
कर चुके थे उसकी पहचान।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

कहाँ से चले थे, कहाँ आ गए हैं --- [कविता -- कुमारेन्द्र]

पड़े थे खण्डहर में
पत्थर की मानिन्द
उठाकर हमने सजाया है,
हाथ छलनी किये अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत
हम को ही आँखें दिखा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

बदन पर लिपटी है कालिख
सफेदी तो बस दिखावा है,
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना ये
मुँह से रोटी छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

सियासत का बाजार
रहे गर्म
कोशिश में लगे रहते हैं,
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर गुजर कर
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।




चित्र गूगल छवियों से साभार

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

जीत के रहेंगे -- कविता -- कुमारेन्द्र


इन आंखों ने सीखा है सपने सजाना,
सपने हकीकत में बदल कर रहेंगे।
हो दूर कितना भी आसमान हमसे,
सितारों को जमीं पर सजाकर रहेंगे।

राही सफर में तो मिलते बहुत हैं,
कोई साथ देगा कब तक हमारा।
अलग अपनी मंजिल जुदा अपनी राहें,
हमें खुद बनना है अपना सहारा।
हमीं से है रोशन ये गुलशन सारा,
नहीं खुद को तन्हा हम समझा करेंगे।

नहीं हैं बुजदिल कि डर करके बैठें,
तूफान से लड़ने की ठान के निकले।
लेकर उमंग और चाहत इस दिल में,
झुकाने हम सिर पर्वत का निकले।
कितना भी हो जाये वक्त दुश्मन हमारा,
नहीं हम हालात से डर कर रहेंगे।

नहीं तुम हमारे कदमों को रोको,
अभी हमको है बहुत दूर जाना।
कदम डगमगाये तो होगी मुश्किल,
अभी है बहुत दूर हमसे ठिकाना।
बदल जाये मौसम बदल जायें राहें,
ये कदम फिर भी मंजिल को छूकर रहेंगे।


चित्र गूगल छवियों से साभार



सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

सन्देश का प्रभाव -- व्यंग्य कविता -- कुमारेन्द्र

व्यंग्य कविता --- सन्देश का प्रभाव
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सड़क पर पड़े

घायल को देख कर
कतरा कर, आँखें बचाकर
निकलते लोग।
याद आता है
मानवता का संदेश
पर....
सहायता के लिए
बढ़े कदमों को,
विचारों को
रोक देते हैं
नगर के किसी
‘विशेष इमारत’ के सामने लगे
‘बोर्ड़ों’ के ‘संदेश’
‘पुलिस आपकी मित्र है’
सदैव
‘आपकी सेवा’
को तत्पर।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

जमाने का चलन -- ग़ज़ल -- कुमारेन्द्र

जमाने का चलन -- ग़ज़ल



अपने दर्द को हँस कर छिपा रहे हैं।

आँखों से फिर भी आँसू आ रहे हैं।।

जिनसे निभाया न गया दोस्ती को।
वही अब हमसे दुश्मनी निभा रहे हैं।।

हाथ छलनी किये तराशने में जिन्हें।
वो पत्थर के खुदा आँखें दिखा रहे हैं।।

जोश दिल में है जमाना बदलने का।
तभी आँधियों में चिराग जला रहे हैं।।

मिला नहीं सकते जो नजरें हकीकत में।
अपने ख्वाबों में वो हमें मिटा रहे हैं।।

नहीं सुकून उन्हें हमारी खुशियों से।
प्यार के नाम पर जहर पिला रहे हैं।।

आए जो भी दिल के करीब हमारे।
जख्म पर जख्म ही दिये जा रहे हैं।।

छोड़ कर मुश्किलों में चले गये मगर।
अपने को हमारा हमसफर बता रहे हैं।।

क्या कहें जमाने के इस चलन को।
मौत से डरने वाले जीना सिखा रहे हैं।।


चित्र गूगल छवियों से साभार

ग़ज़ल -- दुनिया तो सजाओ यारो -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल -- दुनिया तो सजाओ यारो




ऊपर वाले की दुनिया को यूं न मिटाओ यारो।
रिश्ता इससे है कुछ तुम्हारा भी वो निभाओ यारो।।

हम न होंगे कल को मगर ये दुनिया तो होगी।
आने वालों के लिए ही ये दुनिया तो सजाओ यारो।।

कोई मन्दिर है बनाता, मस्जिद बना रहा है कोई।
पर दिलों के बीच तुम दीवार तो न बनाओ यारो।।

नफरत बढ़ा रहे हैं सभी स्वार्थ में अंधे होकर।
तुम तो इस धरती से मुहब्बत न मिटाओ यारो।।

अपने लिए तो इस जहां में सभी जी लेते हैं।
कभी औरों के लिए भी मर के दिखाओ यारो।।

दोस्ती करना आसान है पर है निभाना मुश्किल।
छोड़ कर यार को मझधार में तो न जाओ यारो।।

जिन्दगी का साथ सदा के लिए मुमकिन ही नहीं।
काम कुछ ऐसे करो कि कल को याद तो आओ यारो।।

क्या पता एक तुम ही जमाने को बदल डालो।
अपने को भलाई की राह में आगे तो लाओ यारो।।

करने को रोशन ये जहां एक चिराग ही काफी है।
उसी की खातिर तुम तूफान से तो टकराओ यारो।।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

खुशियों का इंतज़ार -- (कविता) -- कुमारेन्द्र

खुशियों का इंतज़ार -- कविता




सुबह-सुबह चिड़िया ने
चहक कर उठाया हमें,
रोज की तरह
आकर खिड़की पर
मधुर गीत सुनाया हमें।
सूरज में भी कुछ
नई सी रोशनी दिखी,
हवाओं में भी
एक अजब सी
सोंधी खुशबू मिली।
फूलों ने झूम-झूम कर
एकदूजे को गले लगाया,
गुनगुनाते हुए
पंक्षियों ने नया राग सुनाया।
हर कोना लगा
नया-नया सा,
हर मंजर दिखा
कुछ सजा-सजा सा।
इसके बाद भी
एक वीरानी सी दिखी,
अपने आपमें कुछ
तन्हाई सी लगी।
अचानक
चौंक कर उठा तो
सपने में
खुद को खड़ा पाया,
खुशनुमा हर मंजर को
अपने से जुदा पाया।
आंख मल कर
दोबारा कोशिश
उसी मंजर को पाने की,
ख्वाब में ही सही
फिर वही खुशियां
देख पाने की।


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चित्र गूगल छवियों से साभार

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

ग़ज़ल -- फितरत -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल -- फितरत




अपने शीशमहल से औरों पर पत्थर फेंकते हैं।
छिपा कालिख अपनी औरों पर कीचड़ फेंकते हैं।।

हाथ हैं सने उनके किसी गरीब के खून से।
भलाई की आड़ में लहू वो ही चूसते हैं।।

दूसरों को जिन्दा देखें उनसे होता यह नहीं।
मुँह से लोगों के वो अकसर निवाले छीनते हैं।।

दरिया का पानी उनके लिए सामान है पूजा का।
खेत वो अपने सारे मगर खून से ही सींचते हैं।।

है भरी उनके दिल में बुराई लोगों के लिए।
हरेक शख्स को शक की निगाह से देखते हैं।।

महफिलों में आयें-जायें उनकी फितरत ही नहीं।
खुशनुमा हर शाम को गमगीन बनाना सोचते हैं।।

सह रहे हैं खामोश रहकर उनके सारे सितम।
खामोशी के बाद के तूफान की राह देखते हैं।।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

सोमवार, 27 सितंबर 2010

ग़ज़ल -- धूप-छाँव -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल -- धूप-छाँव



चारों ओर इंसान के जिन्दगी का अजब घेरा है।
चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है।।

लगा था जो कोशिश में जिन्दगी आसान बनाने में।
अब उसी को पल-पल मौत माँगते देखा है।।

जिन्दगी उसको आज करीब से छूकर निकली।
मौत के साथ खेलना तो उसका पेशा है।।

क्या पता था राहे-मंजिल इतनी कठिन होगी।
है घना अँधियारा और दूर बहुत सबेरा है।।

शाम घिरते ही भय के भूत उड़ते हैं छतों पर।
घोंसले में माँ ने बच्चों को अपने में समेटा है।।

किसी आवाज किसी दस्तक पर नहीं कोई हलचल।
लगता है सभी को किसी अनहोनी का अंदेशा है।।

मुस्कराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आँखें।
सूनी सी आँखों में एक दरिया छिपा रखा है।।

सुबह की रोशनी, रात की चाँदनी का पता नहीं।
जर्रे-जर्रे पर एक खौफनाक मुलम्मा चढ़ा है।।

अमन, चैन, प्रेम, स्नेह बातें हैं अब बीते कल की।
दहशतजदा माहौल से आज काल भी घबराया है।।

रिसते जख्म, सिसकते अश्क शोले बनेंगे एक दिन।
हर घूँट के साथ लोगों ने एक अंगारा पिया है।।


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चित्र गूगल छवियों से साभार

रविवार, 26 सितंबर 2010

कविता --- भावबोध --- कुमारेन्द्र

कविता == भावबोध
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मैं
भाव-बोध में
यूं अकेला चलता गया,
एक दरिया
साथ मेरे
आत्म-बोध का बहता गया।
रास्तों के मोड़ पर
चाहा नहीं रुकना कभी,
वो सामने आकर
मेरे सफर को
यूं ही बाधित करता गया।
सोचता हूं
कौन...कब...कैसे....
ये शब्द नहीं
अपने अस्तित्व की
प्रतिच्छाया दिखी,
जिसकी अंधियारी पकड़ से
मैं किस कदर बचता गया।
भागता मैं,
दौड़ता मैं,
बस यूं ही कुछ
सोचता मैं,
छोड़कर पीछे समय को
फिर समय का इंतजार,
बचने की कोशिश में सदा
फिर-फिर यूं ही घिरता गया।
भाव-बोध गहरा गया,
चीखते सन्नाटे मिले,
आत्म-बोध की संगीति का
दामन पकड़ चलते रहे,
छोड़कर पीछे कहीं
अपने को,
अपने आपसे,
खुद को पाने के लिए
मैं
कदम-कदम बढ़ता गया।


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चित्र गूगल छवियों से साभार

शनिवार, 25 सितंबर 2010

ग़ज़ल -- अभिलाषा -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल --- अभिलाषा
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दूर अँधियारे में दीपक जलाना चाहता हूँ।
पास से अपने अँधेरे मिटाना चाहता हूँ।।

जिन्दगी की राह में आती हैं मुश्किलें।
हर एक मुश्किल आसान बनाना चाहता हूँ।।

खाकर ठोकर राह में गिरते बहुत हैं।
गिरने वालों को उठाना चाहता हूँ।।

दोस्तों ने दोस्ती के मायने हैं बदले।
रूठे हर दिल में दोस्ती जगाना चाहता हूँ।।

हैं दिलों के बीच जो नफरत की दीवारें।
उन सभी दीवारों को गिराना चाहता हूँ।।

खाक हो जायेगा जिसमें कल जमाना।
आज मैं वह आग बुझाना चाहता हूँ।।

हिंसा, अत्याचार से उजड़ा है ये चमन।
उजड़े गुलशन को फिर बसाना चाहता हूँ।।

अमन, चैन और प्यार का हो मौसम सुहाना।
सूनी आँखों में सपना सजाना चाहता हूँ।।

सारी बुराई ले जाये जो खुद में समेटे।
ऐसा एक तूफान चलाना चाहता हूँ।।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

एक ग़ज़ल -- हो सकता है तुकबंदी सी लगे किन्तु कुछ शब्दों का खेल है ये ... कुमारेन्द्र

ग़ज़ल --- कुमारेन्द्र
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बुझती डूबती जीवन ज्योति अपनी जलाओ तुम।
जीवन ज्योति से दूर अंधकार भगाओ तुम।।

अंधकार में क्यों जीना है सीख लिया।
जीना है तो नया चिराग जलाओ तुम।।

चिराग में जलने परवानों को आना ही है।
परवानों को एक नई राह दिखाओ तुम।।

नई राह पर आने वाली मुश्किलों से न डरना।
मुश्किलों से लड़ खुद को फौलाद बनाओ तुम।।

फौलाद सी ताकत रगों में अपनी भर लो।
रगों में संग लहू के नया जोश बहाओ तुम।।

जोश के दम पर इस जहाँ को बदल दोगे।
इस जहाँ को अपने पीछे चलाओ तुम।।

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ग़ज़ल के पैमाने के बारे में बहुत ज्ञान नहीं है, हो सकता है कि ये तुकबंदी सी लगे पर बोल्ड किये गए शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए पढियेगा तो इस रचना के बारे में कुछ अंदाज़ लग सके

गलतियों पर विशेष निगाह चाहते हैं


चित्र गूगल छवियों से साभार

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

ज़िन्दगी --- ग़ज़ल ---- कुमारेन्द्र



ग़ज़ल ---- ज़िन्दगी
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ज़िन्दगी को ज़िन्दगी के करीब लाती है ज़िन्दगी।
कभी हँसाती, कभी जार-जार रुलाती है ज़िन्दगी।।

रेत की दीवार से ढह जाते हैं सुनहरे सपने।
एक पल में हजारों रंग दिखाती है ज़िन्दगी।।

कोई नहीं जानता अंजाम अपने सफर का।
सभी को अपनी मंजिल तक पहुँचाती है ज़िन्दगी।।

नहीं कोई भरोसा है गुजरते हुए वक्त का।
सभी को कटी पतंग सा डोलाती है ज़िन्दगी।।

सहर होने से पहले काली रात के साये हैं।
मिटाने को फासला चाँदनी बन आती है ज़िन्दगी।।

लड़ते हुए अपने आपसे जीना भुला बैठे।
जीने के नये अंदाज सिखाती है ज़िन्दगी।।

बिछुड़ गये थे जो बीच राह में हमकदम।
अनजाने किसी मोड़ पर फिर मिलाती है ज़िन्दगी।।

दूर होकर भी कोई दिल के करीब है हमारे।
तन्हाई में मीठा सा एहसास कराती है ज़िन्दगी।।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

शाश्वत मौन -- कविता -- कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

एक मौन,
शाश्वत मौन,

तोड़ने की कोशिश में
और बिखर-बिखर जाता मौन।
कितना आसान लगता है
कभी-कभी
एक कदम उठाना
और फिर उसे बापस रखना,
और कभी-कभी
कितना ही मुश्किल सा लगता है
एक कदम उठाना भी।
डरना आपने आपसे और
चल देना डर को मिटाने,
कहीं हो न जाये कुछ अलग,
कहीं हो जाये न कुछ विलग।
अपने को अपने में समेटना,
अपने को अपने में सहेजना,
भागना अपने से दूर,
देखना अपने को मजबूर,
क्यों....क्यों....क्यों???
कौन देगा
इन प्रश्नों के जवाब?
फिर पसर सा जाता है
वही मौन... वही मौन...
जैसे कुछ हुआ ही न हो,
जैसे कुछ घटा ही न हो।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

रविवार, 25 जुलाई 2010

जीवन जीने को आया हूँ --- कविता -- कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

कविता - जीवन जीने को आया हूँ
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(ये हैं हमारे स्टायलिश भांजे)
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फिर जिन्दा होकर लौटा हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
अपनों को जाते देखा है,
गैरों को आते देखा है,
दुःख की तपती धूप है देखी,
सुख का सावन देखा है,
सतरंगी मौसम लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
जीवन से जो जीत गया,
मौत को उसने जीता है,
कर्म हो जिसका मूल-मंत्र,
वह जीवन-पथ पर जीता है,
जीवन-विजय सिखाने आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।
जीते कभी समुन्दर से,
कभी एक बूँद से हार गये,
उड़े आसमां छूने को,
पहुँच आसमां पार गये,
चाँद-सितारे लाया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।
जीवन जीने को आया हूँ, मैं आज तुम्हारी नगरी में।।


(इनकी तो अपनी ही स्टायल है)


मंगलवार, 20 जुलाई 2010

कहानी --- कतरा-कतरा ज़िन्दगी --- समापन किश्त

आज अंतिम भाग -- समापन किश्त
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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‘‘नईंऽ....ऽ....ऽ।’’ एक चीख के साथ हरिया उठ बैठा।

‘‘का भओ.....काये चिल्ला बैठे?’’ रामदेई ने एकदम उठकर पूछा।

हरिया ने अपने आसपास देखा, वह तो अभी भी अपने घर पर ही है। मृत गाय, भीड़, चम्पा, पानी की बाल्टी, लाठी कुछ भी तो नहीं उसके पास। उफ्! सपना था.....कितना भयानक सपना।

‘‘लेओ पानी पी लेओ.......लगत कोनऊ सपनो देख लओ तुमने।’’ रामदेई तब तक लोटे में पानी भर लायी। हरिया लोटा लेकर चुपचाप उसे देखता रहा। ‘जो कौन सो सपना भओ, गऊ हत्या...का होन वालो है अब?’

‘‘अब कछु न सोचो, चुप्पे से पानी पी लेओ। चित्त शांत करो सबई ठीक हो जैहे।’’ उसे पानी न पीता और एकदम खामोश देखकर रामदेई ने उसे समझाने की कोशिश की।

हरिया ने पानी पीकर लोटा रामदेई को थमा दिया और सूर्योदय की आशा में पूरब की तरफ देखने लगा। सप्तऋषि मण्डल और अन्य तारों की स्थिति जल्दी ही सूर्योदय का संकेत दे रहे थे। गहरी सांस के साथ हरिया लेट गया। रामदेई भी अपनी जगह पर आकर लेट गई। हरिया अपने सपने और परेशानी बताने लगा। दोनों बतियाते हुए एक दूसरे को दिलासा देते रहे।

दो-तीन दिनों की भागदौड़ के बाद, गाँव के चार-छह प्रतिष्ठित लोगों और रिश्ते नातेदारों के प्रयासों के बाद अवध ने हरिया के खेत से मिट्टी खोदना बन्द कर दिया। खेत के एक बहुत बड़े भाग का नुकसान हो चुका था। हरिया जानता था कि खेत में बन चुके गड्ढे को भरने का काम आसान नहीं होगा पर उसे संतोष था कि बिना किसी परेशानी के यह मामला निपट गया। पुलिस, प्रशासन, इन सबसे गुहार लगाने की स्थिति में वह था भी नहीं और वह ऐसा करना भी नहीं चाहता था। एक तो वह मुखिया की राजनैतिक ताकत को समझता था साथ ही वह यह भी जानता था कि वर्दी का रोब गरीबों पर ही चलता है।

खेत की समस्या से छुटकारा पाते ही पेट की समस्या ने फिर जोर पकड़ा। खाना-पानी की समस्या को सुलझाने की ओर उसका ध्यान गया। रात के खाने में सूखी रोटी, साग और चटनी देख उसे फिर शहर याद आया। इधर तीन-चार दिनों में तो वह भूल ही गया था कि उसे रोटी का जुगाड़ करने के लिए शहर भी जाना होता है। पेट की आग को शांत करने के लिए खुद को जलाना पड़ता है। पानी पीकर ही तो पेट नहीं भरा जा सकता है और वह भी तब जबकि एक-एक बूँद पैसे से मिलती हो।

खाते-खाते हरिया ने एक निगाह रामदेई, राघव और चम्पा पर डाली। सबके चेहरों पर एक प्रकार का भय था पर उसके पीछे संतोष की किरन फूट रही थी कि चलो एक संकट निपटा कल से भूख का संकट भी निपट जायेगा। आँखों ही आँखों में एक पल में हजारों बातें कर वे एक दूसरे को हिम्मत बँधाने लगे। यही पारिवारिक हिम्मत हरिया को भी हिम्मत देती और कभी उसे अपने आपमें निराश भी करती कि इतनी हिम्मत देने वाले परिवार को वह दो पल का सुख भी नहीं दे पाता। आँखों में उतर आये आँसुओं को सभी से छिपाते हुए वह खाना खाने लगा।

शाम के धुँधलके में धूल उड़ाती बस ने बम्बा के किनारे अपनी गति को थामा। हरिया, राघव और कुछ दूसरी सवारियाँ उतर कर अपने-अपने रास्तों पर स्वचालित मशीन सी चल पड़ीं। हरिया और राघव नियमबद्ध रूप से खेतो की तरफ चल दिये। दोनों के हाथों में खाने-पीने का सामान और चेहरे की संतुष्टि बता रही थी कि आज उनको शहर से खाली हाथ नहीं लौटना पड़ा है।

खेत का एक चक्कर लगाकर दोनों घर की ओर लौट पड़े। रामदेई को सामान से भरा झोला देकर हरिया चबूतरे पर बैठ बीड़ी सुलगाने के बाद तम्बाकू मलने लगा। सिर पर बँधा अंगोछा उतार अपने कंधे पर डाला और शरीर को इत्मीनान से फैला दिया। चेहरे पर आज संतुष्टि के भाव दिख रहे थे। रामदेई सामान को निकाल यथावत जमाने लगी और राघव बैटरी के तारों में इंजीनियरिंग करता हुआ टी0वी0 चलाने की जुगाड़ करने लगा।

‘‘चम्पा, एक लोटा पानी दै जइयो।’’ आवाज लगाते हुए हरिया ने बीड़ी के ठूँठ को जमीन में मसल कर फेंक दिया।

‘‘है नईंयां.......पानी लेन मुखिया के बगैचा तक गई है।’’ रामदेई ने अंदर से ही जवाब दिया।

‘‘जा बिरिया?....सबेरे काये नईं भरवा लओ?’’

‘‘सबेरे गई हती.....पर पानी नईं मिल पाओ हतो।’’ रामदेई के जवाब देते-देते हरिया उसके पास आकर खड़ा हो गया।

‘‘लेओ।’’ कह कर रामदेई ने पानी का लोटा हरिया की तरफ बढ़ा दिया। थोड़ा पानी पीकर बाकी से वह मुँह धोने लगा। रामदेई खाना बनाने का इंतजाम करने लगी। राघव का टी0वी0 चल गया था, वह खटिया पर लेटा हुआ चल रहे गाने को साथ में गुनगुनाने में लगा था। अंगोछे से मुँह पोंछ हरिया ने लोटा रसोई के दरवाजे पर रख दिया और वहीं दीवार से टिक कर जमीन पर बैठ गया।

‘‘थक गये का?’’ रामदेई ने उसे इस तरह बैठे देखकर पूछा।

‘‘नईं, ऐसेईं।’’

‘‘अम्मा.......अ....म्......मा....।’’ धीमी सी रोती-रोती आवाज पहचानी सी लगी तो हरिया और रामदेई के कान खड़े हो गये। भय और संशय से दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और एक पल में दरवाजे पर पहुँच गये। अँधेरे में भीड़ के बीच उन्हें चम्पा की परछाईं स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ी। शरीर पर कपड़े थे किन्तु फटे जो शरीर को ढांकने से ज्यादा शरीर को दिखा रहे थे। चेहरे, गर्दन, हाथ पर नाखूनों, दांतों के निशान अपनी कहानी कह रहे थे। कोहनी, घुटनों, एड़ी से रिसता लहू चम्पा के संघर्ष को बता रहा था। देह से जगह-जगह से रिस चुका लहू कपड़ों पर अपने दाग छोड़ चुका था जो उसके मसले जाने को चीख-चीख कर बता रहा था।

पूरे मामले को समझ हरिया दोनों हाथों से सिर को पकड़ चबूतरे पर गिर सा पड़ा। रामदेई दौड़ कर चम्पा के पास पहुँची।

‘‘अम्मा....गेंहू मिल गओ......पानी मिल गओ......और....औ..र पैसऊ मिल गये।’’ चम्पा की आवाज कहीं गहराई से आती लगी। चेहरे पर आँसुओं के निशान सूख चुके थे, आँखों में खामोशी, भय और आवाज में खालीपन सा था। सिर पर लदी गेंहू की छोटी सी पोटली, हाथ में पानी से भरी बाल्टी और मुट्ठी में बँधे चन्द रुपये हरिया, रामदेई और चम्पा को खुशी नहीं दे पा रहे थे।

रामदेई द्वारा चम्पा को संभालने की हड़बड़ाहट और चम्पा द्वारा आगे बढ़ने की कोशिश में चम्पा स्वयं को संभाल न सकी और वहीं गिर पड़ी। बाल्टी का पानी फैल कर कीचड़ में बदल गया; पोटली में बँधे गेंहू के दाने रामदेई के पैरों में बिछ गये; मुट्ठी में बँधे चन्द रुपयों में से कुछ नोट छूट कर इधर-उधर उड़ गये। रामदेई ने चम्पा को अपनी बाँहों में संभालने की असफल कोशिश की किन्तु अपने शरीर पर हुए अत्याचार से सहमी और कई दिनों की भूख-प्यास से व्याकुल चम्पा अपनी तकलीफ, अपने शोषण को भूल बिखरे गेंहू के दाने, पानी और उड़ते हुए नोटों को समेटने का उपक्रम करने लगी। वहीं हरिया अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों - कभी माँ समान खेत, कभी बीवी और अब बेटी - का कोई उपाय न कर पाने पर खुद को बेहद असहाय सा महसूस कर रहा था। कुछ न कर पाने की तड़प में वह चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। गाँव की तमाशबीन भीड़ के कुछ चेहरे वहीं खड़े रहे और कुछ नजरें बचा कर इधर-उधर हो लिये।

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समाप्त

सोमवार, 19 जुलाई 2010

कहानी --- कतरा-कतरा ज़िन्दगी --- भाग तीन

आज कहानी का तीसरा भाग
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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हरिया और राघव को चुप देखकर रामदेई ने फिर सवाल दागे-‘‘का भओ, कछु बोलत काये नईंयां? कछु हो तो नईं गओ?’’

‘‘अब घरे घुसन देहौ कि नईं, कि इतईं दरवाजई पै अदालत लगा लैहो?’’ हरिया एकदम से खीझ उठा।

रामदेई को यह बात बुरी लगी। हरिया और रामदेई में आपस में तनातनी होते देखकर राघव घर के भीतर चला गया। हरिया बड़बड़ाता हुआ वहीं चबूतरे पर बैठ तम्बाकू मलने लगा। रामदेई चुपचाप अपने में बड़बड़ाती हुई भीतर चली गयी।

खाना खाते समय सभी के बीच शांति सी बनी रही। रामदेई ने मिट्टी खुदने की, अवध की बातों की कोई चर्चा नहीं की और न ही हरिया या राघव ने कोई बात रामदेई के सामने रखी।

‘‘आटा खतम हो गओ है।’’ रामदेई ने राघव को रोटी देते हुए हरिया की तरफ देखते हुए कहा।

‘‘तो का करैं.......बेकार तो बैठे नईंयां। काम की जुगाड़ में जात तो हैं रोज शहर कों......अब काम नईं मिल रओ तो हम का डाका डालन लगें?’’ हरिया ने बिना सिर उठाये अपना गुस्सा निकाला।

राघव ने हाथ के इशारे से रामदेई को शांत रहने को कहा। रामदेई और चम्पा चुपचाप अपने-अपने काम में लगीं रहीं।

रात गहरा गई थी किन्तु न तो हरिया की आँखों में नींद थी और रामदेई भी सो नहीं पा रही थी। दोनों के मन में अपनी-अपनी तरह की समस्या बन बिगड़ रही थी। दोनों के अपने-अपने ख्याल घुमड़ रहे थे। रामदेई अपने आप से ही बतिया रही थी ‘काये के लाने आतई इनसे उलझ गये? पूरे दिन के थके लौटे हते शहर से और न पानी को पूछौ और न कोनऊ हालचाल पूछे बस शुरू कर दई हती अपनी रामायण। हमऊँ का करें, रोजईं जो कोनऊ न कोनऊ बुरई खबर सुनन को मिल जात है। जिया में एक धड़का सो लगो रहत है.....जब मन परेशान होत है तो अच्छो-अच्छो किते से सोच पाउत हैं......बुरई-बुरई बातईं दिमाक में आउत हैं।’

‘हे राम! किरपा निधान’ कह रामदेई ने जम्हाई लेकर बगल में लेटे हरिया की तरफ देखा। हरिया उसे गहरी नींद में सोता दिखायी दिया। रामदेई उसको सोता जानकर दूसरी तरफ करवट लेकर सोने का प्रयास करने लगी।

नींद तो हरिया को भी नहीं आ रही थी। वह आँखें बन्द किये अपनी स्थिति को टटोल रहा था। शहर जाकर मजदूरों के साथ खड़ा होना, काम की तलाश में भटकना, आने वाले ग्राहकों से रुपये-पैसे का मोल-तोल करना। कभी काम मिलता, कभी नहीं मिलता। कभी जरा सी भी गलती हो जाने पर मालिक का चिल्ला पड़ना, तय मजदूरी को काट लेना आम बात बन गयी थी। सूखे की स्थिति ने उसे पग-पग पर जलालत का सामना करवाया है। खेतों में कुछ भी न हो पाने के कारण आर्थिक स्थिति भी जर्जर हो चुकी है। मुखिया का और दूसरे अन्य लोगों का कर्जा भी सिर पर लदा है। इसी का परिणाम है कि आज उसे अवध के सामने हाथ जोड़ने पड़े।

लेटे-लेटे हरिया को अपनी युवावस्था के दिन याद आने लगे जब आज का मुखिया ‘बिरजुन’ के नाम से जाना जाता था। बिरजुन के पिता का सक्रिय रूप से राजनीति में भाग लेना, ग्राम प्रधान बनना, सम्पत्ति, जमीन के मामले में हरिया के पिता से सक्षम होना उसकी आँखों के सामने घूम गया। जातिगत समानता होने के कारण बिरजुन या उसका पिता हरिया के परिवार को कभी झुका नहीं सकं किन्तु आर्थिक स्थिति से समृद्ध होने के कारण उन पर रोब हमेशा गाँठते रहे। हरिया के पिता की मृत्यु के बाद उन लोगों द्वारा हरिया को परेशान करना, बिरजुन द्वारा रामदेई को छेड़ने की घटना, उसके ग्राम प्रधान पिता और अन्य बाहुबलियों द्वारा दवाब बनाकर रामदेई पर चारित्रिक लांछन लगाना आदि उसे आज भी भीतर तक परेशान कर देता है।

हरिया ने हड़बड़ा कर आँखें खोलीं। खुले में लेटे होने के बाद भी उसका चेहरा, हाथ, पैर पसीने से भीगे थे। रामदेई की ओर देखा, वो शांत निर्विकार भाव से अपनी नींद ले रही थी। हरिया ने हाथ बढ़ा का लोटा उठाया और एक सांस में खाली कर गया। बैठे-बैठे उसने आसमान की ओर ताका। सुबह होने में अभी काफी समय लग रहा था। पसीना पोंछ वह बापस चारपाई पर लेट कर सोने का प्रयास करने लगा। दो-चार मिनट की असफल कोशिश के बाद अपनी परेशानी मिटाने को बीड़ी जला कर कश लगाने लगा। नींद जैसे कोसों दूर थी और उसके साथ अभी तक होता आया दुर्व्यवहार जैसे उसके साथ ही चिपक गया था।

उसे महसूस हुआ कि समाज में अगड़े-पिछड़े का भेद तो अपनी जगह पर है ही किन्तु अमीरी-गरीबी का भेद तो सबसे भयावह है। सवर्ण-दलित के भेद को तो एकबारगी धन-सम्पत्ति ने छुपा सा दिया है पर अमीरी-गरीबी के भेद को नहीं मिटाया जा सका है। वह खुद ही देखता है कि हमउम्र, सजातीय, सवर्ण होने के बाद भी उसे मुखिया के बराबर बैठने को स्थान प्राप्त नहीं होता है परन्तु राजनैतिक दाँवपेंच में माहिर और नामधारी तमाम विजातीय नेता उसके साथ हमप्याला, हमनिवाला भी होते हैं। अमीरी-गरीबी के इसी विभेद के कारण तो उसकी पत्नी से शारीरिक दुर्व्यवहार तक किया गया, आज भी उसकी पत्नी और बेटी को कामुक निगाहों और शब्द-वाणों का प्रहार सहना पड़ता है। ऐसा उसके साथ ही नहीं गाँव की हर उस लड़की, महिला के साथ होता है जो या तो गरीब है या फिर पिछड़ी है। कई महिलाओं को तो अपनी इज्जत तक गँवानी पड़ी और कईयों को जान से भी हाथ धोना पड़ा पर कुकर्मी रईस आज भी जिन्दा हैं और पूरी शान से गरीबों की इज्जत तार-तार कर रहे हैं। सारा घटनाक्रम सोच-सोच कर परेशानी में हरिया इधर-उधर करवट बदलने लगा।

‘‘दद्...ऽ...ऽ...ऽ...दा..ऽ..ऽ’’, चम्पा की चीख सुन हरिया ने पलट कर देखा। पानी से भरी बाल्टी लिए चम्पा भागने की कोशिश कर रही है और एक गाय उसके पीछे लगी है। हरिया और उसके साथ चल रहे दो-तीन लोग फुर्ती से चम्पा की ओर दौड़े। उन लोगों ने अपनी-अपनी लाठी के सहारे गाय को रोकने की कोशिश की मगर गाय पूरी ताकत से चम्पा की तरफ दौड़ी जा रही थी। कई दिनों की प्यासी गाय को चम्पा के हाथ में पानी भरी बाल्टी दिखाई दे रही थी। गाँव में सूखे ने सभी कुओं, तालाबों, हैण्डपम्पों आदि का पानी भी सुखा दिया था। समूचे गाँव में तीन लोगों के ट्यूबवैल काम कर रहे थे और लोगों को पानी इन्हीं से प्राप्त होता था। प्यासे को पानी पिला देने की भारतीय अवधारणा से बहुत दूर इस गाँव में लोगों को पानी खरीदना पड़ रहा है। चम्पा भी पानी खरीद कर ला रही थी। प्यास से बेहाल आदमी भी कई बार गलत कदम उठा जाता है, नादान और बुद्धिहीन गाय पानी की बाल्टी देख अपनी प्यास को और न रोक सकी। इससे पहले कि वे लोग चम्पा को गाय से बचा पाते गाय ने चम्पा को पटक दिया और जमीन पर फैल गये पानी में मुँह मारने लगी।

हरिया ने आव देखा न ताव, पूरी ताकत से गाय पर लाठी जमा दी। भूखी-प्यासी गाय लाठी का ताकतवर वार सहन न कर सकी और तेजी से रंभा कर भागने की कोशिश में लड़खड़ा कर वहीं फैले पानी में गिर पड़ी। हरिया ने दौड़ कर चम्पा को उठाया और कुछ लोगों ने गाय की तरफ ध्यान दिया। तीन-चार बार अपने चारों पैर झटक कर गाय शांत हो गई। आँखें बाहर निकल कर उसके निर्जीव होने का सबूत दे रहीं थीं। ‘गइया मर गई’ सुन घबरा कर हरिया झुका और गाय पर हाथ फेरा किन्तु सब बेकार। उसका एक वार गाय के प्राण ले चुका था। वह भौंचक्का सा गाय के पास ही उकड़ूँ बैठा रहा। लोगों की भीड़ मृत गाय और हरिया को घेरने लगी।

‘हरिया ने गइया मार दई.........पाप कर दओ..............गऊ हत्या लगहै..........महा पाप हो गओ.........हरिया ने पाप कर दओ............हरिया ने गइया मार दई..............’ का शोर उसके चारों ओर बढ़ता ही जा रहा था।

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आगे क्या हुआ पढियेगा कल चौथे और अंतिम भाग में शाम 07:00 बजे

रविवार, 18 जुलाई 2010

कहानी --- कतरा-कतरा ज़िन्दगी --- भाग दो

कल आपने पढ़ा पहला भाग...आज दूसरा भाग
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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‘‘का हुआ बेटा?’’ हरिया ने प्रश्न उछाला। उसके पुत्र ने बिना कुछ कहे खेत के किनारे खड़े ट्रेक्टरों और खेत में हो रही खुदाई की तरफ इशारा किया।

‘‘ऐ ऽ ऽ ऽ ऐ.... का हो रओ जे सब? का कर रऐ हो तुम लोग?’’ चिल्लाते हुए हरिया उसी दिशा में दौड़ पड़ा। उसके पीछे-पीछे राघव भी दौड़ पड़ा।

‘‘ऐ....जे का कर रऐ?......... काऐ खुदाई कर रऐ?............. किनसे पूँछ के कर रऐ? हाँफते-हाँफते हरिया ने सवाल पर सवाल दाग दिये। खेत में खुदाई करने वालों की हरकत में किसी प्रकार का बदलाव नहीं हुआ। वे निर्विकार भाव से खेत में खुदाई का काम करते रहे।

हरिया के पुत्र ने खुदाई कर रहे एक आदमी को झकझोर दिया।

‘‘ओए....जो कछु कहने है हमसे कहियो, उनै अपनो काम करन देओ....समझे कि नहीं।’’ धुंधलके में कहीं दूर से एक ऐंठ भरी आवाज उभरी। हरिया और उसके पुत्र ने गरदन झटक कर आवाज की दिशा में देखा।

ट्रैक्टर के किनारे एक मोटर-साइकिल पर दो आकृतियाँ नजर आईं। आकृतियों को पहचानने में बमुश्किलएक पल लगा होगा कि ‘‘का बात है, दिख नई रओ का? नजदीकई आने पड़है का?’’ आवाज ने और एक आकृति की हरकत ने सारा संशय दूर कर दिया। इससे पहले कि हरिया ओर उसका पुत्र कुछ भी कहता, दोनो आकृतियाँ रोबीले अंदाज में टहलते हुए उनके पास आकर खड़ी हो गईं। उन दोनों आकृतियों की आँखों और शारीरिक भाव हरिया और उसके पुत्र की तरफ प्रश्नात्मक और उपेक्षापूर्ण थे।

‘‘जे का करवा रये हो?’’ हरिया ने हाथ जोड़कर उन दो में से एक से जो गाँव के मुखिया का पुत्र अवध था पूछा।

‘‘कछु नईं, बस ईंट भट्टा के लाने मिट्टी की जरूरत है सो बई खुदवा रये......... दिखत नईंया का?’’ अवध ने बड़ी उपेक्षा से जवाब देते हुए मजदूरों को हड़काया- ‘‘तुम सब खुदाई करो रे, मुफत को पैसा नईं दओ जा रओ....... जल्दी करो।’’

हरिया और उसके पुत्र को समझ नहीं आ रहा था कि मुखिया के ईंट भट्टे के लिए उसके खेतों की मिट्टी क्यों खोदी जा रही है। एक तो पिछले सालों के सूखे ने मिट्टी को खेत को वैसे भी बर्बाद कर दिया है, उस पर यह खुदाई तो रहे-सहे खेत को भी बर्बाद कर देगी।

‘‘जे न करो मालिक, नईं तो हमाये खेत बेकार हो जैं हैं। हम सब तो पहलेई से मर रये हैं.... अब तो साँचऊ जिन्दा न बचहैं।’’ हरिया के स्वर में गिड़गिड़ाहट थी।

‘‘हमें कछु न सुनाओ.... बाबू से बात करियो जा के। समझे। हमें खुदाई करके मिट्टी चाहिये सो निकाल रये हैं। अब भागो इधर से।’’

हरिया लाचार सा इधर-उधर देखने लगा। समझ नहीं आया कि क्या करे, क्या न करे। उसने देखा उससे लगे एक और खेत के किनारे से मिट्टी खोदी जा रही थी।

हरिया के पुत्र से अपने पिता की लाचारी, बेबसी न देखी गई। उसने थोड़ा तेज स्वर में कहा ‘‘तुम कौन से अधिकार से हमाये खेत की मिट्टी खुदवाये रये हो?’’

जवाब में दूसरी आकृति का एक झन्नाटेदार झापड़ उसके मँह पर पड़ा- ‘‘चुप बे हरामखोर, साले अधिकार की बात करत हो। अपने बाप से पूछो कि मुखिया से कर्जा का अपने बाप से पूछ के लओ तो?’’

भूख की मार, झापड़ की चोट, अपमान की तिलमिलाहट को हरिया और उसके पुत्र ने एक साथ महसूस किया। मजदूर इस घटनाक्रम से अनभिज्ञता सी बनाये हुए अपने काम में लगे रहे।

अवध और उसके साथी की गुण्डागर्दी से पूरा गाँव वाकिफ था। हरिया और उसका पुत्र चुपचाप अपने खेत की मिट्टी खुदते और ट्रैक्टर ट्रॉली को भरते देखते रहे। कुछ देर में काम पूरा हो जाने के बाद दोनो ट्रैक्टर और मोटर-साइकिल धूल का गुबार उड़ाते चले गये। हरिया उसी धूल के गुबार में एकदम ढहकर खेत की मिट्टी में मिल गया। अंधेरे में भी उसका पुत्र अपने पिता के चेहरे की परेशानी, निराशा को आसानी से पढ़ रहा था। उसने आगे बढ़कर अपने पिता को संभाला और दोनों भारी कदमों से मुखिया के घर की ओर चल दिये।

रामदेई अकुलाहट से अंदर बाहर हो रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आज राघव और हरिया को देर क्यों हो गयी है? वे दोनों रह कहाँ गये हैं? उसने चम्पा से समय पूछा। ‘आठ बज चुके हैं’ सुन कर रामदेई के प्राण सांसत में आ गये। ‘अभे तक तो आ जान चहिए हतो.....रोज तो आ जात हते........आज का हो गयो?’ रामदेई सोच-सोच कर परेशान होने लगी।

दरअसल गाँव के कुछ लोगों से उसे भी खेत की मिट्टी के खुदने की सूचना मिली थी। उसने खुद खेत पर जाकर मुखिया के बेटे अवध को खुदाई करने से रोका था।

‘‘काकी, तुमाये दिना नईंयां इतै-उतै टहलवे के, तुम चुपचाप घरै बैठो और हमें अपनो काम करन देओ।’’
‘‘नईं अवध, ऐसो न कहो........हम सब जा खेत की मट्टी खुदै से मर जैहें....काए गरीबन को सताउत हो?’’ रामदेई ने अवध को समझाते हुए गुहार लगायी।

‘‘को कह रओ कि तुम गरीब हो?....तुमाये पास तो बा सम्पत्त है जासे बड़े-बड़े काम निपट जात हैं, जा खुदाई कौन बला है।’’ कह कर अवध ने कुटिल मुस्कान बिखेरी।

रामदेई भी कोई नादान नहीं थी, अवध के कहे का तुरन्त मतलब समझ सन्न रह गयी। अवध की महिलाओं को छेड़ने की घटनायें तो वह सुनती रहती थी किन्तु उसे यह आभास बिलकुल भी नहीं था कि अवध्ा उसकी उम्र का लिहाज किये बिना उससे भी यह सब कह देगा। और भी उल्टी-सीधी बातों को सुनकर रामदेई खेतों से बापस आ गयी।

इधर अवध द्वारा किये गये व्यवहार और उधर हरिया, राघव के न आने से रामदेई कुछ ज्यादा ही परेशान हो उठी। जब समय खराब चल रहा होता है तो मन में विचार भी बुरे-बुरे आते हैं। एक पल को रामदेई ने सोचा कि शायद आज शहर में कोई बड़ा काम मिल गया होगा, इस कारण से आने में देर हो रही है। पर आये दिन सुनती दिल दहलाने वाली खबरों ने उसको घेरना शुरू कर दिया। कहीं कुछ कर न लिया हो.......... कहीं कोई दुर्घटना न हो गयी हो............ ऐसा तो नहीं कि खेत पहुँचने पर अवध से लड़ाई न हो गयी हो....आदि-आदि। ऐसे विचार आते ही रामदेई सिर को झटकती और अपना मन किसी न किसी काम में लगाने का करती।

तभी दरवाजे पर आहट पाकर वह दरवाजे पर लपकी। ‘‘किते रह गये थे दोऊ जनै? इत्ती देर किते लगा दई हती?’’ घर में घुसने से पहले ही हरिया को रामदेई के सवालों का सामना करना पड़ा। परेशानी से हताश, निराश होकर आये दिन किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की खबरों ने सभी परिवारों को संशय और भयग्रस्त बना दिया। घर के किसी भी सदस्य के थोड़ा-बहुत देर से आने पर मन में बुरे ख्यालात आने लगते हैं।

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तीसरा भाग कल शाम 07:00 बजे

शनिवार, 17 जुलाई 2010

कहानी --- कतरा-कतरा ज़िन्दगी --- पहला भाग

ये कहानी हमें बड़ी समझ में आईइस कारण आप पाठकों की सुविधा से इसे चार भागों में प्रकाशित किया जाएगाकृपया अन्यथा लेकर इस कहानी का पाठन करेंगे
आज पहला भाग
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी

डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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बस से उतर कर हरिया ने एक उदास सी निगाह सूखे पड़े बम्बा पर डाली। पानी का कहीं नामोनिशान नहीं था। शाम के धुँधलके में भी मिट्टी के चटकने के निशान स्पष्ट रूप से दिख रहे थे। अब पता नहीं हरिया को वे निशान दिख रहे थे या फिर सूखे की मार के जो निशान उसके मन में छप गये थे, वही बम्बा की चटकी हुई मिट्टी के रूप में सामने आ रहे थे। पिछले तीन सालों से सूखे की मार झेल रही मिट्टी अपनी चटक को किसानों के मन में कहीं गहरे तक पैठ बना चुकी थी। हरिया की भी यही स्थिति थी। सूखे की समस्या, पानी की कमी, सिंचाई के साधनों का अभाव हरिया जैसे छोटे किसानों को गाँव से बेदखल सा कर रहा था।

गाँव के एक दो नहीं बल्कि वे सभी स्त्री-पुरुष जो किसी न किसी रूप में मेहनत-मजदूरी कर सकते हैं, गाँव से शहर की ओर पलायन कर चुके हैं। कुछ तो दूसरे राज्यों तक में कई महीनों से मजदूरी आदि कार्यों में लगे हैं तो कुछ गाँव के आसपास, नजदीक के शहरों में ही काम-रोजगार की तलाश में लगे हैं। किसी को काम मिलता है, किसी को नहीं; कोई रोज ही गाँव से शहर आता-जाता रहता है तो कोई शहर में ही रहने का ठिकाना बना लेता है।

हरिया भी ऐसे किसानों की तरह मार खाये किसानों में से एक है जो गाँव से शहर को रोजी-रोटी की तलाश में भागता है। चूँकि अभी आय का कोई ऐसा साधन उपलब्ध नहीं हो सका है कि वह शहर में ही रुक सके, इस कारण वह रोज ही गाँव से आता-जाता रहता है। किसी दिन काम मिल जाता है तो किसी-किसी दिन बस यूँ ही धूल खाते दिन निकलता है। जिस दिन काम मिल जाता है उस दिन तो दो पैसे का जुगाड़ हो जाता है, खाने-पीने को कुछ सामान खरीद लिया जाता है किन्तु जिस दिन किसी भी तरह की कोई कमाई नहीं हो पाती है उस दिन तो बस, टैम्पो आदि के किराये में गाँठ की कमाई भी निकल जाती है।

गाँव का मोह, अपने खेतों से प्यार और उससे बड़ा उसके किसान होने का मर्म ही है कि पिछले कई माह से शहर जाने के बाद भी उसका खेतों पर जाने का क्रम नहीं टूटा है। शहर जाने के पूर्व हरिया एक भरपूर निगाह अपने खेतों पर डाल आता है। सुबह-सुबह की हरियाली और फसल से विहीन खेत धूल उड़ाते ऐसे लगते हैं मानो हरिया के आने पर उमड़ पड़ते हों। हरिया वात्सल्य भाव से अपने सूखे पड़े खेतों को बस निहारता रहता है। आँखों में परेशानी के भाव आँसुओं के रूप में छलक पड़ते हैं, मानो कुछ न कर पाने के लिए पश्चाताप करना चाहते हों।

‘‘का सोचन लगे दद्दा? खेतन की तरफ नईं चलने का?’’ हरिया को जड़वत् देखकर उसके साथ बस से उतरे उसके पुत्र राघव ने पूछा।

‘‘कछु नईं......बस ऐसेईं।’’ निःश्वास छोड़ हरिया ने अपने बीस वर्षीय पुत्र को यूँ निहारा मानो वह उसका पिता और हरिया उसका बेटा हो। सैंतालीस वर्षीय हरिया को एकाएक अपने वुद्ध होने का एहसास होने लगा। उसे अपने अंदर सूखे खेतों की तरह ही बहुत कुछ सूखा-सूखा सा महसूस हुआ। बिना कुछ कहे हरिया ने अपने पुत्र का कंधा थपथपाया और खेतों की तरफ चल दिया। चलते-चलते राह में साथ-साथ जा रहे सूखे बम्बा को भी बीच-बीच में निहार लेता।

हरिया को एक किसान की जिन्दगी और उस बम्बा की स्थिति में साम्य समझ में आ रहा था। हरिया ने महसूस किया कि उसके भीतर से जैसे विचारों का बाँध सा फूट पड़ा हो। लगा कि कोई है उसके भीतर जो उसको भी उस सूखे बम्बा सा परिभाषित कर रहा है। सूखा पड़ा बम्बा किसी समय तीव्र धार से अपने दोनों किनारों के बीच पानी को बहाता रहता है ठीक उस किसान की तरह जो अपने दोनों हाथों की ताकत से हरियाली को खेतों में बहाता है। बहते बम्बा का पानी अपने आसपास के खेतों की प्यास के साथ-साथ आबादी की प्यास को बुझाता है, किसान भी तो अपनी मेहनत से पैदा की गयी फसल से देश को खाद्यान्न उपलब्ध कराता है। बम्बा में पानी की धार भी सरकारी कृपा से, प्राकृतिक अनुकम्पा से बहती है, उसी तरह किसान की खुशहाली भी दूसरे तत्वों पर आधारित होती है। इसके साथ-साथ सूख बम्बा, गरीब किसान दरकते-चटकते प्रतीत होते हैं। इस रीतेपन में कोई भी निगाह उठाकर उनकी ओर नहीं देखता है। पशु-मवेशी भी सूखे बम्बा को रौंद डालते हैं, महिलायें-पुरुष भी घर, रसोई, चूल्हा आदि के लिए उसको खोद-खोद कर उसकी मिट्टी निकाल ले जाते हैं; कुछ ऐसा ही हाल किसान का होता है। खेत सूखे रहते हैं, फसल होती नहीं है और वह भी लोगों द्वारा, समाज द्वारा रौंदा ही जाता है। कभी कर्ज के नाम पर खेतों को हड़पने का डर, कभी घर की महिलाओं को बेइज्जत किये जाने की आशंका रात-दिन उसको भीतर ही भीतर रौंदती रहती है।

राघव भी हरिया के पीछे-पीछे चुपचाप चला जा रहा था। आज वह अपने पिता को इतना खामोंश देख खुद असमंजस में था। पहले भी ऐसा कई बार हुआ है कि शहर में काम नहीं मिला पर ऐसा तो शायद ही कभी हुआ हो कि वह शहर से गाँव आने तक और गाँव में भी इस तरह खामोश चलता रहा हो। राघव भी बिना किसी प्रकार की बातचीत करे बस खेतों की ओर चला जा रहा था।

‘‘दद्दा जे का हो रओ अपएँ खेतन में?’’ राघव की विस्मयकारी आवाज सुनकर हरिया की सोच को एक झटका लगा। चौंक कर उसने अपने आसपास देखा। बस से उतर कर कब वह चलते-चलते खेतों तक आ गया, उसे पता ही नहीं चला।

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दूसरा भाग कल शाम को... 07:00 बजे

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

जोर से बोलो जिन्दाबाद

जोर-शोर से नारेबाजी हो रही थी। महाशय ‘अ’ चुनाव जीतने के बाद वह मंत्री बनने के बाद अपने शहर में पहली बार आ रहे थे। उनके परिचित तो परिचित, अपरिचित भी उनके अपने होने का एहसास दिलाने के लिए उनकी अगवानी में खड़े थे।

शहर की सीमा-रेखा को निर्धारित करती नदी के पुल पर भीड़ पूरे जोशोखरोश से अपने नवनिर्वाचित मंत्री को देखने के लिए आतुर थी। उस सम्बन्धित दल के एक प्रमुख नेता माननीय ‘ब’ भी मुँह लटकाये, मजबूरी में उस मंत्री के स्वागत हेतु खड़े दिखाई पड़ रहे थे।

मजबूरी यह कि पार्टी में प्रमुख पद पर होने के कारण पार्टी आलाकमान के आदेश का पालन करना है साथ ही ऊपर तक अपने कर्तव्यनिष्ठ होने का संदेश भी देना है। नाराज इस कारण से हैं कि नवनिर्वाचित मंत्री ने अपने धन-बल से उन महाशय का टिकट कटवा कर स्वयं हासिल कर लिया था।

सभी को उस पार्टी के बँधे-बँधाये वोट बैंक का सहारा हमेशा रहता रहा है। इसी कारण माननीय ‘ब’ को इस बार टिकट मिलने और जीतने का पूरा भरोसा था। उनके इस भरोसे को महाशय ‘अ’ ने पूरी तरह से ध्वस्त कर धन-बल की ताकत से स्वयं का टिकट और जीत पक्की कर ली।

तभी भीड़ के चिल्लाने और रेलमपेल मचाने से नवनिर्वाचित मंत्री के आने का संदेश मिला। माननीय ‘ब’ ने स्वयं को संयमित करके माला सँभाली और महाशय ‘अ’ की ओर सधे कदमों से बढ़े। भीड़ में अधिसंख्यक लोग धन-सम्पन्न महाशय के समर्थक थे, उनका पार्टी के समर्थकों, कार्यकर्ताओं, वोट बैंक से बस जीतने तक का वास्ता था। पार्टी के असल कार्यकर्ता हाशिये पर थे और बस नारे लगाने का काम कर रहे थे।

माननीय ‘ब’ हाथ में माला लेकर आगे बढ़े किन्तु हो रही धक्कामुक्की के शिकार होकर गिर पड़े। मंत्री जी की कार उनकी माला को रौंदती हुई आगे बढ़ गई। अनजाने में ही सही किन्तु एक बार फिर महाशय ‘अ’ के द्वारा पछाड़े जाने के बाद माननीय ‘ब’ खिसिया कर रह गये।

अपनी खिसियाहट, खीझ और गुस्से को काबू में करके माननीय ‘ब’ अपनी पार्टी के असली समर्थकों के साथ नारे लगाने में जुट गये। अब वे जान गये थे कि वर्ग विशेष का भला करने निकला उनका दल अब धन-कुबेरों के बनाये दलदल में फँस गया है, जहाँ बाहुबलियों और धनबलियों का ही महत्व है। उन जैसे समर्थित और संकल्पित कार्यकर्ता अब सिर्फ नारे लगाने और पोस्टर चिपकाने के लिए ही रह गये हैं।