मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

परदे में नेता जी की मृत्यु का सच


नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु पर आज तक संदेह बना हुआ है और विद्रूपता ये कि अद्यतन सरकारों द्वारा किसी तरह की ठोस सकारात्मक कार्यवाही नहीं की गई है. इसको प्रसारित करने और एक तरह की सरकारी मान्यता देने कि नेता जी की मृत्यु १८ अगस्त १९४५ को एक विमान दुर्घटना में ही हो गई थी, अधिसंख्यक लोगों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है. नेता जी की मृत्यु की खबर के सन्दर्भ में सामने आते कुछ तथ्यों ने भी समूचे घटनाक्रम को उलझाकर रख दिया है. जहाँ एक तरफ नेता जी की मृत्यु एक बमबर्षक विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने पर बताई जा रही है वहीं ताईवानी अख़बार 'सेंट्रल डेली न्यूज़' के अनुसार १८ अगस्त १९४५ को ताइवान की राजधानी ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था. इसी तथ्य पर मिशन नेताजीसे जुड़े अनुज धर के ई-मेल के जवाब में ताईवान सरकार के यातायात एवं संचार मंत्री लिन लिंग-सान तथा ताईपेह के मेयर ने जवाब दिया था कि १४ अगस्त से २५ अक्तूबर १९४५ के बीच ताईहोकू हवाई अड्डे पर किसी विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बाद में २००५ में ताईवान सरकार के विदेशी मामलों के मंत्री और ताईपेह के मेयर ने ‘मुखर्जी आयोग’ के सामने भी इन्हीं बातों को दोहराया था. 

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि नेता जी उस विमान दुर्घटना में जीवित बच गए थे तो फिर वे गए कहाँ थे? तमाम वर्ष उन्होंने कहाँ व्यतीत किये? इन सवालों के जवाब जानने के लिए ये तथ्य जानना आवश्यक है कि आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना और इटली, जापान, जर्मनी से मदद लेने के पीछे नेता जी का एकमात्र उद्देश्य भारत को स्वतंत्र करवाना था. ये गतिविधियाँ ब्रिटेन को किसी भी रूप में पसंद नहीं थी अतः उसने नेता जी को अंतर्राष्ट्रीय अपराधी घोषित कर दिया था. अंग्रेज भले ही भारत को स्वतंत्र करना चाह रहे थे किन्तु वे नेता जी को अपराधी घोषित कर मुकदमा चलाने को बेताब थे. इधर नेता जी के सहयोगी रहे स्टालिन और जापानी सम्राट तोजो किसी भी कीमत पर उनको ब्रिटेन-अमेरिका के हाथों नहीं लगने देना चाहते थे. वे इस बात को समझते थे कि मित्र राष्ट्र में शामिल हो जाने के बाद ब्रिटेन-अमेरिका उन पर नेता जी को सौंपने का दवाब बनायेंगे. ऐसे में संभव है कि तत्कालीन स्थितियों में इस दवाब को नकार पाना इनके वश में न रहा हो और इन सहयोगियों ने किसी योजना के तहत नेता जी को अभिलेखों में मृत दिखाकर उन्हें अन्यत्र शरण दिलवा दी हो.

नेता जी की मृत्यु के सच को सामने न आने देने के पीछे कई बार नेहरु जी की मंशा काम करती दिखती है. संसद में जब-जब नेता जी की दुर्घटना की जाँच करवाए जाने की माँग उठी, नेहरू जी ने उस पर ध्यान नहीं दिया. यहाँ तक कि जाँच आयोग बनाये जाने की माँग भी वे कई वर्षों तक टालते रहे. जब जनप्रतिनिधियों ने गैर-सरकारी जाँच आयोग बनाने का निर्णय ले लिया तब नेहरू जी ने सन १९५६ में पहले जाँच आयोग के गठन का निर्णय लिया. इसके साथ ही आज़ादी के बाद न तो नेता जी को और न ही आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्ज़ा दिया गया. इसके उलट स्वतंत्र भारत में आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा भी चलाया गया. इस तथ्य के अतिरिक्त स्टालिन द्वारा आज़ादी के बाद नेता जी को वापस भारत बुला लेने के सम्बन्ध में नेहरू जी को लिखा पत्र भी महत्त्वपूर्ण है. इस पत्र के जवाब में नेहरू स्टालिन को लिखते हैं, वे जहाँ हैं, उन्हें वहीं रहने दिया जाये.

नेहरू अथवा सरकार की कार्यप्रणाली ने बराबर संदेह ही पैदा किया है. सत्ता का केन्द्रीयकरण कर चुके लोग नहीं चाह रहे थे कि नेता जी का सत्य किसी भी रूप में सामने आये या फिर खुद नेता जी ही सामने आयें और सत्ता विकेन्द्रित हो जाये. इस मानसिकता के चलते गठित किये गए ‘शाहनवाज़ आयोग’ के निष्कर्षों को बहुतायत सांसदों ने, देश की जनता ने ठुकरा दिया और अंततः साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद १९७० में इंदिरा गाँधी को जस्टिस जी० डी० खोसला की अध्यक्षता में एक दूसरा आयोग गठित करना पड़ा. इस जाँच आयोग के गठन के सम्बन्ध में भी सरकार की नीयत में खोट ही दिखाई देती है क्योंकि खोसला नेहरूजी के मित्र थे और वे जाँच के दौरान ही इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख रहे थे. जाँच के लिए बना तीसरा ‘मुखर्जी आयोग’ कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के बाद बनाया गया. इसमें सरकार के हस्तक्षेप को नकारते हुए न्यायालय ने स्वयं ही मुखर्जी को आयोग का अध्यक्ष बना दिया तो सरकार ने उनकी जांच में अड़ंगे डालना शुरू कर दिए. जो दस्तावेज ‘खोसला आयोग’ को दिये गये थे, वे ‘मुखर्जी आयोग’ को देखने तक नहीं दिये गए. प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय सहित सभी जगह से नौकरशाहों का रटा-रटाया जवाब आयोग को मिलता कि भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को नहीं दिखाने का ‘प्रिविलेज’ उन्हें प्राप्त है. इन तमाम बातों, मानसिकताओं, मतभेदों के साथ-साथ भारत सरकार के रवैये पर संक्षिप्त रूप से निगाह डालें तो इस प्रकरण की जाँच पर प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाते हैं. भारत सरकार ने वर्ष १९६५ में गठित 'शाहनवाज आयोग' को ताइवान जाने की अनुमति नहीं दी थी. आयोग ने समूची की समूची जाँच देश में बैठे-बैठे ही पूरी कर ली थी. और शायद इसी का सुखद पुरस्कार उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करके दिया गया. १९७० में गठित 'खोसला आयोग' को भी रोका गया था किन्तु कुछ सांसदों और कुछ जन-संगठनों के भारी दवाब के कारण उसे ताइवान तो जाने दिया गया मगर किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था से संपर्क नहीं करने दिया गया. ‘मुखर्जी आयोग’ ने भारत सरकार से जिन दस्तावेजों की मांग की वे आयोग को नहीं दिए गए. रूस में भी जाँच आयोग को पहले तो जाने नहीं दिया गया बाद में आयोग को न तो रूस में नेताजी से जुड़े दस्तावेज देखने दिए गए और न ही कलाश्निकोव तथा कुज्नेट्स जैसे महत्वपूर्ण गवाहों के बयान लेने दिए गए.  

पारदर्शिता बरतने के लिए लागू जनसूचना अधिकार अधिनियम के इस दौर में भी नेता जी से मामले में किसी भी तरह की पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है. नेता जी दुर्घटना का शिकार हुए या अपनों की कुटिलता का; नेता जी देश लौटे या देश की सरकार ने उनको अज्ञातवास दे दिया; वे रूस में ही रहे या फिर कहीं किसी विदेशी साजिश का शिकार हो गए....ये सब अभी भी सामने आना बाकी है. ऐसे में सत्यता कुछ भी हो पर सबसे बड़ा सत्य यही है कि देश के एक वीर सपूत को आज़ादी के बाद भी आज़ादी नसीब न हो सकी. ये हम भारतवासियों का फ़र्ज़ बनता है कि कम से कम आज़ादी के एक सच्चे दीवाने को आज़ाद भारत में आज़ादी दिलवाने के लिए संघर्ष करें... जय हिन्द!!!  
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कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
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उक्त आलेख जनसंदेश टाइम्स, दिनांक-21-04-2015 के सम्पादकीय पृष्ठ पर टिप्पणी कॉलम में प्रकाशित हुआ.

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

आज बड़े कमीने लग रहे हो!!!


कमीनापंथी’.....‘कमीने’.... ये शब्द देखकर चौंक गये होंगे आप? किसी का भी चौंकना स्वाभाविक है इन शब्दों पर क्योंकि ये शब्द एक गाली के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। अभी तक ऐसी स्थिति आई नहीं थी कि इन शब्दों को भद्रजनों की भाषा-शैली में शामिल किया जाये क्योंकि माना जाता रहा है कि गाली तो गाली ही होती है। अब एक सवाल ये उठता है कि क्या समय की आधुनिक परिभाषाओं में इन शब्दों को स्वीकार कर लेना चाहिए? यह सवाल एक हमारे मन में ही नहीं घुमड़ता होगा, कभी न कभी, कहीं न कहीं यह आपको भी परेशान करता होगा। अब करता रहे परेशान तो करे जिसको ये शब्द समाज में प्रचलित करने हैं वे तो कर ही रहे हैं।
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चलिए, आपकोसेक्सीशब्द सुनकर क्या विचार आता है? फिर चौंके? कुछ सालों तक इस शब्द के मायने कुछ अलग थे। इसके उच्चारण में एक प्रकार की झिझक देखने को मिलती थी। आज ये शब्द हम बेधड़क होकर इस्तेमाल करते हैं। बड़े हों या फिर छोटे सेक्सीके प्रयोग में कोई शर्म किसी को महसूस नहीं होती है। और तो और सेक्सी शब्द के मायने अब इस रूप में बदले हैं कि हम अपने नन्हे-मुन्नों के लिए भी इस शब्द को प्रयोग करने लगे हैं। किसी को विशेष ड्रेस पहना देख कर हम अकसर कह देते हैं कि इस ड्रेस में बड़ा सेक्सी लग रहा है। अकसर हम इस शब्द को मजाक के रूप में भी इस्तेमाल कर लेते हैं और क्या हाल है, बड़े सेक्सी बने घूम रहे हो?’ यदि इस शब्द की सहज स्वीकार्यता के सापेक्ष देखा जाये तो क्याकमीनाशब्द इतना सहज स्वीकार्य हो पायेगा? छोड़िये, हो पायेगा का जवाब शायद कोई भी न दे पाये क्योंकि हमारे फिल्म संसार ने लगभग स्वीकार्यता की स्थिति में तो इस शब्द को लाकर खड़ा कर ही दिया है। याद है आपको वो गाना-मुश्किल कर दे जीना, इश्क कमीना’, यह गाना बच्चे-बच्चे की जुबान पर चढ़ा था, चढ़ा है।  कालांतर में इस गाने का विकास-क्रम बढ़ा और एक फिल्म आ गई कमीने’....। स्वीकार्यता की ओर एक सशक्त कदम क्योंकि जैसे सेक्सी शब्द की स्वीकार्यता बढ़ी थी मेरी पैंट भी सेक्सी, मेरी शर्ट भी सेक्सी........से वैसे ही ‘कमीने’ शब्द की स्वीकार्यता भी बढ़नी चाहिए, इस गीत से। आखिर मित्रों में आपस में चर्चा होगी चल ‘कमीने’ देख आते हैं। माँ के पूछने पर बेटी-बेटे कहेंगे-‘माँ दोस्तों के साथ कमीने देखने जा रहे हैं।’
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अब फ़िल्मी दुनिया से इतर नवोन्मेषी राजनैतिक लोग भी इस शब्द का प्रयोग करने लगे हैं. इससे वे लोग जो फ़िल्मी कलाकारों के बजाय राजनीतिक लोगों को अपना आदर्श मानते हैं, सहजता के साथ इन शब्दों का प्रयोग कर सकेंगे। आखिर झिझक खुलने की बात है, वैसे इससे कहीं आगे जाकर झिझक खोलने का काम ‘एआईबी’ शो ने भी किया है। समझने वाली बात है कि फ़िल्मी दुनिया में अथवा राजनीति में संलिप्त लोग क्या इन शब्दों के अर्थ नहीं समझते? क्या अब समाज में विकृत मानसिकता को ही फैलाने का चलन काम करेगा?
कुछ भी हो किन्तु अब आने वाले समय में इस तरह के वाक्यों से भी रू-ब-रू होने की सम्भावना है ‘‘देखो-देखो मेरे बेटे को, इस ड्रेस में कितना कमीना लग रहा है।’’ ‘‘आज गजब हो गया, तुम्हारे कमीनेपन ने तो मजा बाँध दिया।’’ हो सकता है कि आपके बच्चे ही आपसे कहें, “क्या कमीनापंथी लगा रखी है” या फिर “पापा! आज बड़े कमीने लग रहे हो। क्या आप इसके लिए तैयार हैं?
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डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर 
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ये व्यंग्य दिनांक - 10 अप्रैल 2015 के जनसंदेश टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.