गुरुवार, 14 सितंबर 2017

प्यार का एहसास - ग़ज़ल

तेरे खुशबू में भरे ख़त मैं जलाता कैसे,
प्यार में भीगे हुए ख़त मैं जलाता कैसे,
तेरे उन खतों को गंगा में बहा सकता नहीं,
आग बहते हुए पानी में लगा सकता नहीं,

वो ख़त आज भी मेरे दिल की दौलत हैं,
तूने जो छोड़ी है मेरे पास वो अमानत है.

जब कभी भी खुद को तन्हा पाता हूँ,
खतों के साथ तेरे पास पहुँच जाता हूँ.

नहीं होगा यकीन तुझको मगर कर ले,
दिल के कोने में ये एहसास जरा भर ले.

मेरे होने में तेरा अक्श नजर आता है,
मेरी आँखों में तेरा रूप उभर आता है.

अपनी मुहब्बत को झूठ बताएं कितना,
जो सच है वाकई में उसे छिपाएं कितना.

तेरी खातिर इक चुप सी लगा लेता हूँ,
तेरे खतों को कहीं अपने में छिपा लेता हूँ.

वो धड़कन हैं, साँसें हैं मेरी कोई क्या जाने,
तू ही न समझी तो कोई और भला क्या जाने.

++
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
12-09-2017

न सपने तू देखा कर

कितना समझाया है मन मतवाले,
न सपने तू देखा कर-
सपनों की दुनिया में महज छलावे,
न सपने तू देखा कर-
सपनों की दुनिया निर्मोही,
खो जायेगा ओ मनमौजी,
सुख है केवल दो पल का,
वह भी केवल कोरा-कोरा,
मृगतृष्णा सी एक जगाकर,
आ जाते हैं हमें डराने,
कितना समझाया है मन मतवाले,
न सपने तू देखा कर-
सपने हैं इक झील विशाल,
चमके जगमग नीला आकाश,
चांद तारों का रूप दमकता,
मोहित होता तू देख छटा,
झोंका हवा का अगले ही पल,
मचा देता है जैसे हलचल,
जगमग झील का रूप बदलता,
मंजर बस उठती गिरती लहरों का,
ढूँढें किसमें चन्दा तारे,
अब तो बस धारे ही धारे,
कितना समझाया है मन मतवाले,
न सपने तू देखा कर-
सपना एक सजाया फिर भी,
घरौंदा एक बनाया फिर भी,
जुगनू की जगमगाहट जिसमें,
चिड़ियों की चहचहाहट जिसमें,
राह-राह पर फूल खिले हैं,
नहीं कहीं भी शूल मिले हैं,
महकी जिसमें खुशियां ही खुशियां,
नहीं दिलों के बीच दूरियां,
लेकिन जीवन एक हकीकत,
न सपनों से जाये काटे,
कितना समझाया है मन मतवाले,
न सपने तू देखा कर-

तपती दुपहरी की शाम

तपती दुपहरी की शाम 
देखी है कभी?
दिल जब कभी तन्हा सा लगे
साथ होकर कोई साथ न दिखे
ऐसे में कोई लगा कर अपने गले 
रोम-रोम में अपनापन भर दे
तब दिखाई देती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम 
महसूस की है कभी?
धूप दुखों की फैली हो सिर पर
सुख की छाँव कहीं आये न नजर
ऐसे में बिन बादल कोई बरस कर
तन-मन को कर जाये तरबतर
तब महसूस होती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम 
सुनी है कभी?
खुद का सन्नाटा चीखने लगे
रोशनी दिन की डराने लगे
ऐसे में मंद पवन चल के
कानों में मंगलगान भर दे
तब सुनाई देती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम
बनकर देखा है कभी?
तन्हाई में उसको गले लगाकर
दो बोल अपनेपन के उसे सुनाकर
संवेदना की फुहार बरसा कर
आसान कर देते हो उसका सफर
तब बनते हो उसके लिए
तपती दुपहरी की शाम।

+++
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
13-09-2017

शनिवार, 2 सितंबर 2017

जिंदगी को कभी तो ज़िन्दगी बनाओ

जिंदगी को कभी तो ज़िन्दगी बनाओ,
रोना बहुत हुआ अब तो मुस्कुराओ.

चाँद को रोटी बता बहुत बहलाया,
भूखे को अब असली रोटी दिखाओ.

बेबसी से उसका जन्म से नाता है,
एक बार उसे ख़ुशी से मिलवाओ.

ज़िन्दगी लाख बेवफ़ा हो बनी रहे,
इस बेवफ़ा से परिचय तो करवाओ.

मौत के साथ जो रोज खेलता है,
उसको मौत के नाम से न डराओ.

समझना चाहते हो गर दर्द को,
खुद को खुद से ऊपर उठाओ.