गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

बेटी है अपनी, अपने गले लगा के चलो - कविता

बेटी है अपनी, अपने गले लगा के चलो।

लग रही गुमसुम सी, उसे हँसा के चलो।।


दिल है अपना अपनी ही धड़कन,

साँस अपनी और अपना तन-मन।

रूप-स्वरूप उसका जब है अपना सा,

तो फिर क्यों उसको गैर बना के चलो।।


बेटियाँ बेटों से किस तरह है कम,

धरती से आकाश तक पहुंचे हैं कदम।

जोश सागर का है जज्बा हिमालय का,

पल-पल घुमड़ता आह्लाद दिखा के चलो।।


नाम रोशन करेगी वो भी विश्वास करो,

हौसले में उसके प्यार का आधार धरो।

होगा तुमको भी गुमान अपनी बेटी पर,

सफलता उसकी दुनिया को बता के चलो।।

मंगलवार, 12 जुलाई 2011

खोखलापन

हम नित हर पल
खुले बाजार की ओर
जा रहे हैं।
तभी तो खुलेआम
अपनी सभ्यता में
खुलापन ला रहे हैं।
पहले एक चैनल से काम चलाते थे,
अब चैनलों की बाढ़ ला रहे हैं।
लगातार देखते
ढँकी-मुँदी अपनी सभ्यता को,
हम बोर हो गये थे,
इसी कारण से
पश्चिमी सभ्यता द्वारा
अपनी संस्कृति को
निर्वस्त्र किये जा रहे हैं।
देखने की लालसा
जो दबी थी सदियों से
मानव मन में,
उसी फूहड़ता को
आधुनिकता की आड़ में
घर के अंदर ला रहे हैं।
लगाकर विदेशी वैशाखियाँ
खुद को खिलाड़ी माने हैं,
पर आधुनिकता के चक्कर में
खुद को
खोखला किये जा रहे हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

स्वर्ग-नर्क के बँटवारे की समस्या -- व्यंग्य


महाराज कुछ चिन्ता की मुद्रा में बैठे थे। सिर हाथ के हवाले था और हाथ कोहनी के सहारे पैर पर टिका था। दूसरे हाथ से सिर को रह-रह कर सहलाने का उपक्रम भी किया जा रहा था। तभी महाराज के एकान्त और चिन्तनीय अवस्था में ऋषि कुमार ने अपनी पसंदीदा ‘नारायण, नारायण’ की रिंगटोन को गाते हुए प्रवेश किया।

ऋषि कुमार के आगमन पर महाराज ने ज्यादा गौर नहीं फरमाया। अपने चेहरे का कोण थोड़ा सा घुमा कर ऋषि कुमार के चेहरे पर मोड़ा और पूर्ववत अपनी पुरानी मुद्रा में लौट आये। ऋषि कुमार कुछ समझ ही नहीं सके कि ये हुआ क्या? अपने माथे पर उभर आई सिलवटों को महाराज के माथे की सिलवटों से से मिलाने का प्रयास करते हुए अपने मोबाइल पर बज रहे गीत को बन्द कर परेशानी के भावों को अपने स्वर में घोल कर पूछा-‘‘क्या हुआ महाराज? किसी चिन्ता में हैं अथवा चिन्तन कर रहे हैं?

महाराज ने अपने सिर को हाथ की पकड़ से मुक्त किया और फिर दोनों हाथों की उँगलियाँ बालों में फिरा कर बालों को बिना कंघे के सवारने का उपक्रम किया। खड़े होकर महाराज ने फिल्मी अंदाज में कमरे का चक्कर लगा कर स्वयं को खिड़की के सामने खड़ा कर दिया। ऋषि कुमार द्वारा परेशानी को पूछने के अंदाज ने महाराज को दार्शनिक बना दिया-‘‘अब काहे का चिन्तन ऋषि कुमार? चिन्तन तो इस व्यवस्था ने समाप्त ही कर दिया है। अब तो चिन्ता ही चिन्ता रह गई है।’’

ऋषि कुमार महाराज के दर्शन को सुनकर भाव-विभोर से हो गये। आँखें नम हो गईं और आवाज भी लरजने लगी। वे समझ नहीं सके कि ऐसा क्या हो गया कि महाराज चिन्तन को छोड़ कर चिन्ता वाली बात कर रहे हैं? अपनी परेशानी को सवाल का चोला ओढ़ा कर महाराज की ओर उछाल दिया। महाराज ने तुरन्त ही उसका निदान करते हुए कहा-‘‘कुछ नहीं ऋषि कुमार, हम तो लोगों के तौर-तरीकों, नई-नई तकनीकों के कारण परेशान हैं। समझो तो हैरानी और न समझो तो परेशानी। अब बताओ कि ऐसे में चिन्तन कैसे हो?

ऋषि कुमार समझ गये कि महाराज की चिन्ता बहुत व्यापक स्तर की नहीं है। ऋषि कुमार के ऊपर आकर बैठ चुका चिन्ता का भूत अब उतर चुका था। वे एकदम से रिलेक्स महसूस करने लगे और बेफिक्र अंदाज में महाराज के पास तक आकर थोड़ा गर्वीले अंदाज में बोले-‘‘अरे महाराज! हम जैसे टेक्नोलोजी मैन के होते आपको परेशान होना पड़े तो लानत है मुझ पर।’’ महाराज ने ऋषि कुमार के चेहरे को ताका फिर इधर-उधर ताकाझाँकी करके बापस खिड़की के बाहर देखने लगे। महाराज के बाहर देखने के अंदाज को देख ऋषि कुमार ने भी अपनी खोपड़ी खिड़की के बाहर निकाल दी।

अच्छी खासी ऊँचाई वाली इस इमारत की सबसे ऊपर की मंजिल की विशाल खिड़की से महाराज अपने दोनो साम्राज्य-स्वर्ग और नर्क-पर निगाह डाल लेते हैं। ऋषि कुमार को लगा कि समस्या कुछ इसी दृश्यावलोकन की है। अपनी जिज्ञासा को प्रकट किया तो महाराज ने नकारात्मक ढंग से अपनी खोपड़ी को हिला दिया।

‘‘कहीं स्वर्ग, नर्क के समस्त वासियों के क्रिया-कलापों के लिए लगाये गये क्लोज-सर्किट कैमरों में कोई समस्या तो नहीं आ गई?’’ ऋषि कुमार ने अपनी एक और चिन्ता को प्रकट किया। महाराज के न कहते ही ऋषि कुमार ने इत्मीनान की साँस ली। सब कुछ सही होना ऋषि कुमार की कालाबाजारी को सामने नहीं आने देता है। ‘‘फिर क्या बात है महाराज, बताइये तो? आपकी परेशानी मुझसे देखी नहीं जा रही।’’ ऋषि कुमार ने बड़े ही अपनत्व से महाराज की ओर चिन्ता को उछाल दिया।

महाराज ऋषि कुमार की ओर घूमे और बोले-‘‘बाहर देख रहे हो कितनी भीड़ आने लगी है अब मृत्युलोक से। मनुष्य ने तकनीक का विकास जितनी तेजी से किया उतनी तेजी से मृत्यु को भी प्राप्त किया। अब दो-चार, दो-चार की संख्या में यहाँ आना नहीं होता; सैकड़ों-सैकड़ों की तादाद एक बार में आ जाती है। कभी ट्रेन एक्सीडेंट, कभी हवाई जहाज दुर्घटना, कभी बाढ़, कभी भू-स्खलन, कभी कुछ तो कभी कुछ........उफ!!! कारगुजारियाँ करे इंसान और परेशान होते फिरें हम।’’

ऋषि कुमार हड़बड़ा गये कि महाराज के चिन्तन को हो क्या गया? इंसान की मृत्यु पर इतना मनन, गम्भीर चिन्तन? अपनी जिज्ञासा को महाराज के सामने प्रकट किया तो महाराज ने समस्या मृत्यु को नहीं बताया। महाराज के सामने समस्या थी स्वर्ग तथा नर्क के बँटवारे की। ऋषि कुमार ने अपनी पेटेंट करवाई धुन ‘नारायण, नारायण’ का उवाच किया और महाराज से कहा कि इसमें चिन्ता की क्या बात है, हमेशा ही अच्छे और बुरे कार्यों के आधार पर स्वर्ग-नर्क का निर्धारण होता रहा है; अब क्या समस्या आन पड़ी?

महाराज ने अपने पत्ते खोल कर स्पष्ट किया कि ‘महाराजाधिराज ने युगों के अनुसार कार्यों का लेखा-जोखा तैयार कर रखा है। चूँकि भ्रष्टाचार, आतंक, झूठ, मक्कारी, हिंसा, अत्याचार, डकैती, बलात्कार, अपराध, रिश्वतखोरी, अपहरण आदि-आदि कलियुग के प्रतिमान हैं, इस दृष्टि से जो भी इनका पालन करेगा, जो भी इन कार्यों को पूर्ण करेगा वही सच्चरित्र वाला, पुण्यात्मा वाला होगा शेष सभी पापी कहलायेंगे, बुरी आत्मा वाले कहलायेंगे............’

‘‘.......तो महाराज, फिर चिन्ता कैसी? जो पुण्यात्मा हो उसे स्वर्ग और जो पापात्मा हो उसे नर्क में भेज दें, सिम्पल सी बात।’’ ऋषि कुमार ने महाराज के शब्दों के बीच अपने शब्दों को घुसेड़ा। अपनी बात को कटते देख महाराज ने भृकुटि तानी और इतने पर ही ऋषि कुमार की दयनीय होती दशा देख थोड़ा नम्र स्वर में बोले-‘‘कितनी बार कहा है कि बीच में मत टोका करो, पर नहीं। यदि स्वर्ग-नर्क का निर्धारण इतना आसान होता तो समस्या ही क्या थी।’’

ऋषि कुमार को अपनी गलती का एहसास हुआ और अबकी वे बिना बात काटे महाराज की बात सुनने को आतुर दिखे। महाराज ने उनसे बीच में न टोकने का वचन लेकर ही बात को आगे बढ़ाने के लिए मुँह खोला-‘‘समस्या यह है कि धरती से जो भी आता है वह भ्रष्टाचार, आतंक, बलात्कार, रिश्वतखोरी, मक्कारी, अत्याचार आदि गुणों में से किसी न किसी गुण से परिपूर्ण होता है। ऐसे में महाराजाधिराज के बनाये विधान के अनुसार उसे स्वर्ग में भेजा जाना चाहिए किन्तु स्वर्ग की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाये रखने के लिए ऐसे लोगों में अन्य दूसरे गुणों-दया, ममता, करुणा, अहिंसा, धर्म आदि-को खोज कर उन्हें नर्क में भेज दिया जाता है।’’ तभी महाराज ने देखा कि ऋषि कुमार अपने मोबाइल के की-पैड पर उँगलियाँ नचाने में मगन हैं। ‘‘क्या बात है ऋषि कुमार, हमारी बातें सुन कर बोर होने लगे?’’ ‘‘नहीं, नहीं महाराज, ऐसा नहीं है। हम तो मोबाइल स्विच आफ कर रहे थे ताकि आपकी बातों के बीच किसी तरह का व्यवधान न पड़े।’’ ऋषि कुमार अपनी हरकत के पकड़ जाने पर एकदम से हड़बड़ा गये।

महाराज ने ऋषि कुमार की ओर से पूरी संतुष्टि के बाद फिर से मुँह खोला-‘‘पहले स्थिति तो कुछ नियंत्रण में थी किन्तु जबसे धरती से राजनीतिक व्यक्तियों का आना शुरू हुआ है तबसे समस्या विकट रूप धारण करती जा रही है। इन नेताओं में तो किसी दूसरे गुण को खोजना भूसे में सुई खोजने से भी कठिन है। इस कारण स्वर्ग की व्यवस्था भी दिनोंदिन लचर होती जा रही है। सब मिलकर आये दिन किसी न किसी बात पर अनशन, धरना, हड़ताल आदि करने लगते हैं। किसी दिन ज्ञापन देने निकल पड़ते हैं। अब यही सब मिल कर हमारे अधीनस्थों को चुनाव के लिए, लाल बत्ती के लिए उकसा रहे हैं।’’ महाराज ने दो पल का विराम लिया और कोने में रखे फ्रिज में से ठंडी बोतल निकाल कर मुँह में लगा ली। गला पर्याप्त ढंग से ठंडा करने के बाद उन्होंने ऋषि कुमार की ओर देखा। ऋषि कुमार ने पानी के लिए मना कर आगे जानना चाहा।

महाराज धीरे-धीरे चलकर ऋषि कुमार के पास तक आये और उनके कंधे पर अपने हाथ रखकर समस्या का समाधान ढूँढने को कहा-‘‘कोई ऐसा उपाय बताओ ऋषि कुमार जिससे इन सबको स्वर्ग की बजाय नर्क में भेजा जा सके और यहाँ के लिए बनाया महाराजाधिराज का विधान भी भंग न हो।’’

ऋषि कुमार महाराज की समस्या को सुनकर चकरा गये। महाराज की आज्ञा लेकर पास पड़ी आराम कुर्सी पर पसर गये। दो-चार मिनट ऋषि कुमार संज्ञाशून्य से पड़े रहने के बाद उन्होंने आँखें खोलकर महाराज की ओर देखा। महाराज को चुप देख ऋषि कुमार आराम से उठे और बोले-‘‘महाराज धरती के नेताओं की समस्या तो बड़ी ही विकट है। उनसे तो वहाँ के मनुष्यों द्वारा बनाये विधान के द्वारा भी पार नहीं पाया जा सका है। बेहतर होगा कि मुझे कुछ दिनों के लिए कार्य से लम्बा अवकाश दिया जाये जिससे कि विकराल होती इस समस्या का स्थायी समाधान खोजा जा सके। तब तक एकमात्र हल यही है कि धरती पर नेताओं को हाथ भी न लगाया जाये। बहुत ही आवश्यक हो तो उनके स्थान पर आम आदमी को ही उठाया जाता रहा जाये।’’ इतना कहकर ऋषि कुमार महाराज की आज्ञा से बाहर निकले और अपनी मनपसंद रिंगटोन ‘नारायण, नारायण’ गाते हुए वहाँ से सिर पर पैर रखकर भागते दिखाई दिये।

रविवार, 22 मई 2011

अगले जनम मोहे हिन्दू न कीजो -- व्यंग्य

सुबह-सुबह आँख खुली तो कमरे का नजारा बदला हुआ लगा। जहाँ सोया था जगह वो नहीं लगी, पलंग भी वो नहीं था, आसपास का वातावरण भी वो नहीं था। चौंक कर एकदम उठे और जोर की आवाज लगाई। एक हसीन सी कन्या ने प्रवेश किया, समझ नहीं आया कि घर में इतनी सुन्दर कन्या कहाँ से आ गई। उसके हाथ में कुछ पेय पदार्थ सा था जो उसने मुझे थमा दिया। बिना कुछ पूछे, बिना कुछ जाने सम्मोहित सा उसे पीने लगे। मन की, तन की खुमारी एकदम से मिट गई।

अब थोड़ा सा खुद को सँभालकर उससे सवाल किया कि ये मैं कहाँ हूँ? उसने बताया कि ये मृत्युलोक नहीं है, ये तो पारलौकिक जगत है, जिसे कुछ लोग स्वर्ग और नरक के नाम से जानते हैं। हमारे एक और सवाल पर जवाब आया कि समूचे जगत में समानता-बंधुत्व-भाईचारा को देखते हुए स्वर्ग-नरक का भेद समाप्त कर दिया गया है। अब यहाँ सभी को इसी तरह की व्यवस्था प्रदान की गई है, हाँ उसके कार्यों और यहाँ के चाल-चलन को देखकर उसकी सुविधाओं में कमी-बढ़ोत्तरी होती जाती है।

अब मेरे चौंकने की तीव्रता और बढ़ गई, समझ नहीं आया कि बिना मरे हम यहाँ आ कैसे गये? दिमाग पर थोड़ा सा जोर डाला तो पता चला कि 21 मई की शाम को प्रलय आनी थी पर नहीं आई थी। उसके बाद रात को पूरी प्रसन्नता के साथ पी-खाकर सोये थे, जश्न मनाते हुए....फिर मृत्यु? उसी कन्या ने जैसे दिमाग को पढ़कर समाधान किया-‘‘तुम्हारे देश में प्रलय कुछ घंटों देरी से आई थी। रात को सोने पर तुम हमेशा के लिए सोते रह गये।’’ मेरे पूछने पर कि क्या सब कुछ तबाह हो गया, उसका उत्तर हाँ में आया।

इसके बाद उसने उठने का इशारा किया और कमरे से बाहर निकल गई। मैं भी बिना किसी भय के, बिना किसी मोह के कमरे से बाहर निकल आया। अब मोह किसका, सभी तो यहीं कहीं आसपास ही होंगे। कमरे के बाहर का वातावरण मनोहारी था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी, जैसी भारत में कभी चला करती होगी। बड़ा ही सुन्दर सा अनुभव हो रहा था, लगा कि काफी पहले ही प्रलय आ जानी चाहिए थी। चलो भला हो इस ईसाई धर्म का जिसने 21 मई को ही प्रलय बुला दी। अब अपनी जिन्दगी के हसीन पल यहीं कटेंगे।

टहलते-टहलते दूर तक निकल आये तो देखा कि एक मदर टाइप की लेडी आ रही हैं। पास आईं तो देखा सचमुच में मदर ही थी, सन्त मदर। वही सन्त मदर जिनकी फोटो के रखने से मृत्युलोक में व्यक्तियों के ट्यूमर और अन्य दूसरी बीमारियाँ पूर्णतः ठीक हो गईं थीं। हमने उनको नमन करके कहा-‘‘माता, आपकी फोटो का चमत्कार और वरदान तो हमें प्राप्त नहीं हो सका किन्तु आपके धर्म का प्रभाव हमने देख लिया। हमारा नमन स्वीकारें माता।’’

ये लो हमसे लगता है कि कोई गलती हो गई थी, भयंकर वाली गलती। उन सन्त माता ने चिल्ला कर हमें डाँटा-‘‘चुप रहो बदतमीज, माता तुम्हारे हिन्दू धर्म के भिखारी ही बोलते हैं भीख माँगते में। मैं तो मदर हूँ, जगत मदर। मैं तो मैं, मेरी फोटो भी चमत्कार करती है। है कोई तुम्हारे धर्म में ऐसा चमत्कारी सन्त, महात्मा, साध्वी?’’ और वह चुपचाप वहाँ हमें अकेला छोड़कर निकल पड़ी।

हम चुप, किंकर्तव्यविमूढ़, समझ में नहीं आ रहा था कि ये हमारे मुँह पर तमाचा मार गईं या फिर हमें सच्चाई दिखा गईं। हमारे हिन्दू धर्म में तो कोई ऐसा नहीं है जिसने फोटो के दम पर चमत्कार कर दिये हों और उन्हें समाज ने सहर्ष स्वीकारा भी हो। और देखो तो हमारे बाबाओं, महात्माओं को....लम्बी सी दाढ़ी रखा लेंगे.....लम्बा सा बेढब चोला पहन लेंगे और करने लगे धर्म की बातें। अरे! कहीं इस तरह से होते हैं चमत्कार। अब देखो इस धर्म के प्रचारकों को क्या कमाल है पोशाक में, कोट भी है....लम्बा सा लकदक गाउन भी है। इनके धर्मस्थल भी देखो...बैठने की सुन्दर व्यवस्था, साफ-सफाई और एक हमारे धर्म में, धर्मस्थलों में घुस जाओ तो बैठने की कौन कहे, खड़े होने तक का जुगाड़ नहीं। चारों तरफ पता नहीं क्या-क्या बुदबुदाने का शोर, इस पर भी मन न माना तो लगे घंटा-घड़ियाल-शंख फूँकने। उफ! क्या नौटंकी है हिन्दू धर्म में।

मदर की बातों से मन खिन्न हो उठा। बाबाओं, महात्माओं, साध्वियों को खोजने लगा। जिधर देखो उधर वही बुड्ढे खूसट टाइप के, जिनको देखकर लगता है कि अब इन्होंने महिलाओं की इज्जत लूटी, अभी किसी बच्चे का अपहरण किया। हाँ इधर व्यावसायिकता के दौर में कुछ स्मार्ट बाबाओं का आगमन हुआ किन्तु वे भी कोई चमत्कार न दिखला सके। और साध्वियाँ......थोड़ा सोचना पड़ गया तभी एक नाम आया तो वहाँ की व्यवस्था के सुख को भोगने के लालच में नाम भी जुबान पे नहीं लाये, पता नहीं किस सुविधा में कमी कर दी जाये। एक साध्वी आई भी तो बम फोड़कर चली गई जेल में, चमत्कार दिखा देती फिर कुछ भी कर देती...कम से हिन्दू धर्म का नाम तो हो जाता।

अब तो अपने हिन्दू होने पर जलालत का एहसास होने लगा। हिन्दू है ही क्या, गोधरा में ट्रेन में जलाने के बाद भी हादसे का शिकार बताये जाने वाला; अक्षरधाम मन्दिर में हमले के बाद भी खामोश रहने वाला; अपने आराध्य राम के जन्मस्थल की स्वीकार्यता के लिए अदालत का मुँह ताकने वाला; बाबर-औरंगजेब की संतानों के साथ तालमेल बैठा कर चलने वाला; लगातार होते जा रहे धर्म परिवर्तन के बाद भी सर्व-धर्म-समभाव का भजन गाने वाला....। छी...छी...छी...मैं हूँ क्या...एक हिन्दू...जिसने सिवाय भेदभाव के, कट्टरता, वैमनष्य फैलाने के कुछ नहीं किया।

चलते-चलते सोचा-विचारी हो रही थी कि उस जगत के सर्वशक्तिमान का फरमान चारों ओर गूँजने लगा कि जल्द ही पृथ्वीलोक को बसाया जाना है। सभी को वहाँ जाना जरूरी है, हाँ इतनी छूट है कि अपने-अपने विकल्प दे दें कि किस देश में पैदा किया जाये........। हमने आगे के फरमान को नहीं सुना और दौड़कर सर्वशक्तिमान के दरवार में पहुँच गये। देखा वहाँ महाराज की बजाय महारानियों का जमावड़ा था। कोई इंग्लैण्ड से, कोई अमेरिका से, कोई श्रीलंका से, कोई पाकिस्तान से, कोई दिल्ली से, कोई उत्तर प्रदेश से, कोई तमिलनाडु से, कोई पश्चिम बंगाल से। हमें लगा कि भारत का बहुमत है अपना ही देश माँग लिया जाये पर तभी दिमाग में धार्मिक लहर जोर मार गई। हमने चिल्ला कर कहा-‘‘महारानियो जो भी देश देना हो दे देना पर अगले जनम मोहे हिन्दू धर्म में पैदा न करना। इस धर्म में सिवाय ढोंग के, नाटक के, छल-प्रपंच के, भेदभाव के कुछ नहीं होता....हमें हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म में पैदा कर देना। चाहे ईसाई धर्म में जिसने प्रलय की घोषणा कर उसको सच्चाई में बदल दिया चाहे मुस्लिम धर्म में जिसकी धार्मिक कट्टरता के कारण कभी भी फाँसी की सजा नहीं मिल सकती चाहे.....।’’

‘‘बस...चुपचाप रहो हिन्दू...ये तुम्हारा मन्दिर नहीं, तुम्हारा समाज नहीं, तुम्हारा देश नहीं कि कुछ भी बकवास करते फिरो। यहाँ सब नियम से, समय से होता है। समय आया, नियम बना तो प्रलय आ गई, समय आ जाता, नियम बन जाता तो फाँसी भी हो जाती।’’ महारानियों की कड़क आवाज का गूँजना था कि कई सारे दिग्गी टाइप सिपहसालार खड़े हो गये। हमने मौन लगा जाना ही बेहतर समझा। होंठ बन्द, जुबान खामोश किन्तु मन फिर भी कह रहा था कि अगले जनम मोहे हिन्दू न कीजो।