सोमवार, 9 जून 2008

भूख

आलीशान बंगले के विशाल नक्काशीदार दरवाजे के सामने एक छोटा बालक लगातार कुछ मिलने की गुहार लगा रहा था। 'शायद आज चौकीदार छुट्टी पर था नहीं तो उसने अभी तक भगा दिया होता' ऐसा सोचते हुए बच्चे ने फ़िर जोर की आवाज़ लगाई। बरामदे में बंधे दोनोविदेशी 'डोगी' भौंक-भौंक कर उस बालक को डराने का प्रयास कर रहे थे। अपने प्यारे 'डोगी' की परेशान हालत और बालक की कर्कश आवाज़ से झल्ला कर बंगले की मालकिन रजाई की गर्माहट त्याग कर बाहर बरामदे में आई। दोनों प्यारे 'डोगी' मालकिन की झलक पाकर शांत हो गए पर बालक कुछ पाने की आस में और तेजी से विनय-भाव से चिल्ला उठा-"मांजी कुछ खाने को दे देना, भूख लगी है, कल से कुछ खाया नहीं है

मालकिन का चेहरा विद्रूप हो उठा। अपने आराम में व्यवधान देख कर वे झल्लाहट में बालक को डांटने, भागने के उद्देश्य से मुंह खोलने वाली थी कि पीछे से सेब खाते चले आए उनके छोटे से पुत्र ने उनकी साड़ी हिलाते हुए जिज्ञासा प्रकट की- "मम्मी, भूख क्या होती है?"

मालकिन की जैसे तंद्रा टूटी। उसने एक निगाह अपने पुत्र पर और एक निगाह दरवाजे के पार खड़े बालक पर डाली; फ़िर अपने पुत्र को गोद में उठा कर उस बालक को कुछ देने के लिए लेन अन्दर चली गई।

(स्पंदन "बुन्देलखण्ड विशेष" में प्रकाशित, कुमारेन्द्र द्वारा लिखित)

माँ की ममता

माँ अपने दोनों बच्चों का लगातार भूख से रोना नहीं देख सकी। एक को उठा कर अपने सूख चुके स्तन से लगा लिया, किंतु हड्डियों से चिपक चुके माँ के मांस से ममत्व की धार न बह सकी, क्षुधा शांत न हो सकी। भूख की व्याकुलता से परेशान बच्चे रोते ही रहे। भूखे बच्चों को भोजन देने में असमर्थ माँ ने अंततः कुछ देने का विचार बनाया। सामर्थ्य जुटा कर चूल्हे की लकडियों में आग लगा कर उस पर पतीली चढा दी और पानी दल कर चम्मच से चलाने लगी। एक धोखा देने के बाद बच्चों को एक और धोखा; भूख को मिटाने के लिए महज धोखा। खौलते पानी के उठते धुएं से बालमन कुछ तसल्ली खाने लगा। धोखे के भोजन में तसल्ली का स्वाद; फ़िर भी बच्चे रो-रो कर थक गए। माँ एक हाथ से पतीली के खौलते पानी को चम्मच से चलाती रही और दूसरे हाथ से गोद में लुढ़क चुके दोनों बच्चों को थपकी देती रही। धीरे-धीरे दोनों बच्चे गहरी निन्द्रा की आगोश में चले गए किंतु माँ का चम्मच चलाना जारी रहा। इस लालच से कि.......शायद पतीली की आवाज़ बच्चों को अचेतन में ही भोजन का स्वाद दिलाती रहे; वह एक धोखा ही खिलाती रही और बच्चे एक और रात ऐसे ही भूखे पेट चैन से सोते रहे।
(स्पंदन "बुन्देलखण्ड विशेष" में प्रकाशित, कुमारेन्द्र द्वारा लिखित)