आजकल
सुबह आँख खुलने से लेकर देर आँख बंद होने तक चारों तरफ हाय-हाय सुनाई देती है.
आपको भी सुनाई देती होगी ये हाय-हाय? अब
आपको लगेगा कि आखिर ये हाय-हाय है क्या, किसकी? ये जो है हाय! ये एक तरह की आह है, जो एकमात्र
हमारी नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो बाजार के कुअवसरों से दो-चार हो रहा
है. बाजार के कुअवसर ऐसे हैं कि न कहते बनता है और न ही सुनते. बताने का तो कोई
अर्थ ही नहीं. इधर कोरोना के कारण ध्वस्त जैसी हो चुकी अर्थव्यवस्था का नाम
ले-लेकर आये दिन बाजार का नजारा ही बदल दिया जाता है. आपको नहीं लगता कि बाजार का
नजारा बदलता रहता है.
बाजार
का नजारा अलग है और इस नजारे के बीच सामानों के दामों का आसमान पर चढ़े होना सबको
दिखाई दे रहा है. सबको दिखाई देने वाला ये नजारा बस उनको नहीं दिखाई दे रहा, जिनको असल में दिखना चाहिए था. इधर सामानों के मूल्य दो-चार दिन ही स्थिर
जैसे दिखाई देते हैं, वैसे ही कोई न कोई टैक्स उसके ऊपर
लादकर उसके मूल्य में गति भर दी जाती है. यदि कोई टैक्स दिखाई नहीं पड़ता है तो
जीएसटी है न. अब तो इसे एक-एक सामान पर छाँट-छाँट कर लगाया जा रहा है. ऐसा करने के
पीछे मंशा मँहगाई लाना नहीं बल्कि वस्तुओं के मूल्यों को गति प्रदान करनी है. अरे!
जब मूल्य में गति होगी तो अर्थव्यवस्था को स्वतः ही गति मिल सकेगी.
ऐसा
नहीं है कि ऊपरी स्तर से मँहगाई कम करने के प्रयास नहीं किये गए. प्रयास किये गए
मगर कहाँ और कैसे किये गए ये दिखाई नहीं दिए. आपने फिर वही बात कर दी. अरे आपको
जीएसटी दिखती है, नहीं ना? बस ऐसे ही प्रयास हैं जो दिख नहीं रहे हैं. और हाँ,
कोरोना के कारण देश भर में बाँटी जा रही रेवड़ियों की व्यवस्था भी उन्हीं के द्वारा
की जानी है जो इन रेवड़ियों का स्वाद नहीं चख रहे हैं. अब तो आपको गर्व होना चाहिए
मँहगे होते जा रहे सामानों को, वस्तुओं को खरीदने का. आखिर
आप ही तो हैं जिन्होंने लॉकडाउन के बाद बहती धार से अर्थव्यवस्था को धार दी थी, अब आसमान की तरफ उड़ान भरती कीमतों के सहयोगी बनकर अर्थव्यवस्था को तो गति
दे ही रहे हैं, रेवड़ियों को भी स्वाद-युक्त बना रहे हैं.
बढ़ते
जा रहे दामों के कारण स्थिति ये बनी है कि बेचारे सामान दुकान में ग्राहकों के इंतजार
में सजे-सजे सूख रहे हैं. वस्तुओं ने जीएसटी का आभूषण पहन कर खुद की कीमत बढ़ा ली
है, अब वे अपनी बढ़ी कीमत से कोई समझौता करने को
तैयार नहीं. इस मंहगाई के दौर में सामानों से पटे बाजार और दामों के ऊपर आसमान में
जा बसने पर ऐसा लग रहा है जैसे किसी गठबन्धन सरकार के घटक तत्वों में कहा-सुनी हो
गई हो. सामान बेचारे अपने आपको बिकवाना चाहते हैं पर कीमत है कि उनका साथ न देकर उन्हें
अनबिका कर दे रही है. उस पर भी उन कीमतों ने विपक्षी जीएसटी से हाथ मिला लिया है.
अब ऐसी हालत में सबसे ज्यादा मुश्किल में बेचारा उपभोक्ता है, ग्राहक है. इसमें भी वो ग्राहक ज्यादा कष्ट का अनुभव कर रहा है जो मँहगी, लक्जरी ज़िन्दगी को बस फिल्मों में देखता आया है.
ऐसे
ही लक्जरी उपभोक्ताओं की तरह के हमारे सरकारी महानुभाव हैं. अब वे बाजार तो घूमते
नहीं हैं कि उनको कीमतों का अंदाजा हो. अब चूँकि वे बाजार घूमने-टहलने से रूबरू तो
होते नहीं हैं, इस कारण उनके पास किसी तरह की तथ्यात्मक
जानकारी तो होती नहीं है. अब बताइये आप, जब जानकारी नहीं तो बेचारे
कीमतों को कम करने का कैसे सोच पाते? इस महानुभावों का तो हाल ये है कि एक आदेश दिया
तो इनको भोजन उपलब्ध. गाड़ी में तेल डलवाने का पैसा तो देना नहीं है, रसोई के लिए गैस का इंतजाम भी नहीं करना है और न ही लाइन में खड़े होकर किसी
वस्तु के लिए मारा-मारी करनी है. अब इतने कुअवसर खोने के बाद वे बेचारे कैसे जान सकते
हैं कि कीमतों में वृद्धि हो रही है.
ये दोष तो उस बेचारे आम आदमी का है जो दिन-रात खटते हुए बाजार को
निहारा करता है. वही बाजार के कुअवसरों से दो-चार होता है. वही लगातार मँहगाई की मार
खा-खाकर पिलपिला हो जाता है. इस पिलपिलेपन का कोई इलाज भी नहीं है. यह किसी जमाने
में चुटकुले की तरह प्रयोग होता था किन्तु आज सत्य है कि अब आदमी झोले में रुपये
लेकर जाता है और जेब में सामान लेकर लौटता है.
ऊपर बैठे महानुभाव भी भली-भांति समझते हैं कि आम आदमी की ऐसी
ग्राह्य क्षमता है कि वह मँहगाई को भी आसानी से ग्राह्य कर जायेगा. ऐसे में परेशानी
कैसी? देश की जनता तो पिसती ही रही है, चाहे वह नेताओं के
आपसी गठबन्धन को लेकर पिसे अथवा सामानों और दामों के आपसी समन्वय को लेकर. सत्ता
के लिए किसी का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, टूट सकता है
ठीक उसी तरह मंहगाई का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, दामों
और सामानों का गठबन्धन टूट भी सकता है. इस छोटी सी और भारतीय राजनीति की सार्वभौम
सत्यता को ध्यान में रखते हुए सरकार की नादान कोशिशों को क्षमा किया जा सकता है.