रविवार, 18 अगस्त 2013

बातचीत की बातें

राजनीति की वर्तमान स्थिति को देखकर अपने पढ़ाई के पुराने दिन याद आ गए। अपने हाईस्कूल अध्याय के सफल प्रयास में प्रसिद्द साहित्यकार प्रताप नारायण मिश्र जी के ‘बात’ सम्बन्धी विचारों पर नजर डालने का अवसर मिला था। तब उस ‘बात’ का सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ ‘बात’ से ही था। हाँ, कहीं-कहीं उसमें बात रोग की चर्चा हो जाया करती थी। समय बदला, बात करने के अंदाज बदले, बात का रंग भी बदला। जैसे राजनीति में गठबंधन शब्द आम होता चला जा रहा है, जिसे देखो वही गठबंधन करके अपना विस्तार करता जा रहा है वैसे ही बात ने भी गठबंधन करते हुए अपना विकास किया। बात ने चीत से गठबंधन करते हुए खुद को बातचीत बना लिया। इसके भी अपने कारण रहे और बात को चीत से गठबंधन करना पड़ा।


दरअसल किसी समय में देश के किसी जिम्मेवार ने कह दिया कि ‘बातें कम, काम ज्यादा।’ अब जैसे ही यह नारा सामने आया वैसे ही बातें करने वालों के पेट में मरोड़ उठना शुरू हो गई। उनकी निगाह में तो अभी तक बातें करना भी एक काम था। बातों के द्वारा बहुत सी बातों को निपटा लिया जाता है। जिस समस्या का समाधान किसी और कदम से नहीं होता वे समस्याएँ बातों से निपटाने की बात की जाती है। छोटी सी बात हो या फिर बड़ी बात, दो व्यक्तियों के बीच का मसला हो या फिर दो देशों के बीच का तनाव, सबकुछ बातों से निपटाए जाने परम्परा रही है। देखिये न, पाकिस्तान से अभी तक बातचीत के ज़रिये ही मामला निपटाया जा रहा है। कश्मीर में अलगाववादियों से बातचीत के ज़रिये विवाद निपटाने की बातें होती हैं। सो बातों के शौकीनों को बहुत बुरा लगा कि उनकी बातों को काम न माना गया। सो उन्होंने बात का गठबंधन चीत से करवा दिया। अब वे लोग बात नहीं वरन बातचीत करने लगे। काम फिर वहीं के वहीं रह गया।  


बातों के इन शौक़ीन लोगों ने बात की परम्परा और उसके विस्तार पर विस्तार से चर्चा करते हुए अपनी बात ऊपर तक पहुँचाई। सच भी है, आखिर एक छोटे से शब्द ‘बात’ के कितने और अलग-अलग अर्थ हैं। जहाँ जैसी स्थिति वहाँ वैसा अर्थ। छोटे से छोटा काम, बड़े से बड़ा काम बिना बात के निपटता भी तो नहीं। घर पर चाय-नाश्ता हो रहा हो या फिर किसी मंहगे होटल की कॉफ़ी-शॉपी सबमें जो प्रमुख है वह है बात। खाना खाया जायेगा तो बात। शाम को घर पर पति-पत्नी की बुराई-नुक्ताचीनी की स्थिति तो बात, पड़ोसी के हालचाल लेने हैं तो बात, बाजार से सब्जी-भाजी ली जाएगी तो बात, स्कूल में बच्चों की प्रगति जाननी है तो बात। कहने का अर्थ यह कि बिना बात के ज़िन्दगी का कोई पल खाली नहीं जाता। जागने तक की कौन कहे यहाँ तो सोते-सोते भी बहुत से लोग बातें करने में लगे रहते हैं। खुद से ही बातें करेंगे या फिर सपने में अपने किसी से।


अब जबकि पल-पल में बातें, हर पल में बातें तो कुछ बात-विशेषज्ञों ने की जाने वाली बातों की स्थिति-परिस्थिति के अनुसार उसका नामकरण भी कर दिया। दो ख़ास व्यक्ति या कहें कि लंगोटिया यार जैसे लोगों की बात हो रही हो तो गपबाजी। थोड़ी सी औपचारिकता से भरी बातें हो रही हों तो उसे मुलाकात बता दिया जाता है। किसी गंभीर विषय पर अपने से वरिष्ठ से बात की जाये तो विचार-विमर्श। अपने किसी ख़ास से किसी तरह की बात हो रही तो उसे गुफ्तगू से परिभाषित कर देते हैं। आसपास का माहौल टटोलते हुए सिर्फ सुनाने वाले को सुनाई पड़े, इस अंदाज में बात की जाए तो वह कानाफूसी वाली श्रेणी में शामिल हो जाती है। खुले मंच से बातें हो रही हों तो गोष्ठी कहलाने लगती है। बड़े मंत्रियों, अधिकारियों में आपसी बातचीत होने लगे तो ऐसी बातें वार्ता, मुलाकात से सम्मानित हो जाती है। इतने छोटे से शब्द के इतने सारे अर्थ, इतनी व्यापकता तो संभव है कि उसके महत्त्व भी होंगे। अब ऐसे महत्त्वपूर्ण शब्द को कम करके आँकना कहीं से भी उचित नहीं।


असल में हम भारतवासियों के लिए किसी भी काम का कोई कारण नहीं होता बस उसके ज़रिये बात करने को मिलती रहनी चाहिए। कहीं दुर्घटना होगी तो बातचीत शुरू हो जाएगी। आतंकी हमला करेंगे तो बातें शुरू हो जाएँगी। दो देशों का आपसी विवाद होगा तो वार्ताओं के दौर शुरू हो जायेंगे। मैत्री भाव से खेल खेलना है तो पहले लम्बी-लम्बी बातें होंगी। देश के बाहर की समस्या हो तो बात, देश के भीतर की समस्या हो तो बात। ऐसा लग रहा है जैसे बात ही इस देश का राष्ट्रीय शब्द, राष्ट्रीय कार्य बन गया है।


बात करने की हमारी इस राष्ट्रीयता को हमारे आला राजनीतिज्ञों ने और भी ऊँचाइयाँ दी हैं। अब बस बातें ही हो रही हैं। वे बातें करते हैं, बस बातें ही करते हैं। बातों-बातों में ही बता जायेंगे कि क्या-क्या काम किये हैं, किसने क्या-क्या काम नहीं किये हैं। बातों के दौर उस समय और बढ़ जाते हैं जबकि चुनावी मौसम चल रहा हो। कहा जाये तब बातों के दौर के बजाय बातों के दौरे पड़ने लगते हैं। ऐसे समय में उनकी बातों का कोई सन्दर्भ नहीं होता, कोई प्रसंग नहीं होता, कोई भावार्थ नहीं होता। बस बातें होती हैं। उनकी बातें होती हैं, उनके समर्थकों की बातें होती हैं। वे बातों-बातों में कोई नाम उच्चारित नहीं कर पाते हैं तो बातें। कोई पंद्रह मिनट की बात में बैठने की विवशता की बात करता है तो कोई बात को पूरी बात बनाने की बात करता है। उनकी एक बात से कई-कई बातें निकाल ली जाती हैं। वे अपनी बात करते हैं, उनके समर्थक उसमें से और बातें निकाल लेते हैं। उनकी बात समाप्त हो जाती है पर उनके समर्थकों की उस बात की बातें कभी समाप्त नहीं होती हैं। उसका सुखद परिणाम आये या न आये, इससे कोई मतलब नहीं, बस बातें करने के मुद्दे मिलते रहे।


ऐसे सुखद अवसर आजकल हमारी राजनीति बहुत आराम से देने लगी है। अब बातें खोजनी नहीं पड़ती हैं, बस खुद-ब-खुद सामने आकर कहती है कि हमारी बात करो। और हम लोग हैं कि ऐसे अवसर की ताक में रहते ही हैं। झट से बातें करना शुरू कर देते हैं। बातें कैसी भी हों हम सब बातें करते ही रहेंगे आखिर बात करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार हो या न हो पर राजनीतिसिद्ध अधिकार तो है ही। कितने-मिटने मुद्दे हैं बातों के, जैसे सरकार बनने पर, सरकार गिरने पर, गठबंधन होने पर, गठबंधन न होने पर, चुनाव होने पर, चुनाव परिणामों पर, विधायकों के आने-जाने पर, उनके बोलने पर, उनके न बोलने पर, किसी के अटकने पर, किसी के भटकने पर। चलिए, आजकल बात का मुद्दा सरकार बनाना, समर्थन जुटाना भर है। इसके बाद भी बात करने का नया मुद्दा मिलेगा। तब गिर बात करेंगे, अपनी-अपनी जीभ तराशेंगे। नए मुद्दे के मिलने तक.... इति वार्ता।

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