सोमवार, 8 दिसंबर 2014

साहित्य-समृद्धि के लिए साहित्यकार संवेदित हो



साहित्यकारों के बीच, असाहित्यकारों के बीच अब साहित्य चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ असाहित्यकारों को इस बात का दुःख होने लगा है कि यदि साहित्यकार भूखा रहेगा तो खायेगा क्या? ये चिंता राजनीति से प्रेरित भी दिखाई देती है और राजनीति को प्रेरित करती भी लगती है. ये साहित्य की बहुत बड़ी बिडम्बना है कि ऐसे लोग अब साहित्य की चिंता करते देखे जा रहे हैं जिनका कभी भी साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहा. यदि साहित्य की, विशेष रूप से हिन्दी साहित्य की बात की जाये तो उँगलियों पर गिने जा सकने वाले नाम ही उन साहित्यकारों के मिलेंगे जो धन की मसनद लगाकर साहित्यसृजन करते रहे अन्यथा की स्थिति में साहित्यकारों ने घनघोर अभावों को सहा है और कालजयी कृतियों की रचना की है. ऐसे एक-दो नहीं अनेकानेक नाम हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से, अपने मिजाज़ से, अपने विचारों से समझौता न करके फक्कड़पन की स्थिति में भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है.
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वर्तमान दौर जबसे बाज़ार के हवाले हुआ है तबसे समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक क्षेत्र उत्पाद सा लगने लगा है. साहित्य हो या साहित्यकार, कलम हो या कि रचना, लेखक हो या कि पाठक सब कहीं न कहीं बाज़ारवाद के प्रभाव में ही साहित्य-क्षेत्र में आगे बढ़ते दिख रहे हैं. यहाँ आकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों को समझना होगा कि महज एक कृति का प्रकाशित हो जाना साहित्य नहीं है, किसी नेता-मंत्री के हाथों सम्मानित हो जाना साहित्य-सेवा नहीं है, बड़ी-बड़ी रॉयल्टी पा लेना साहित्य-सृजन नहीं है. उन्हें स्वयं अपने गिरेबान में झाँकना होगा और देखना होगा कि साहित्य की समृद्धि के लिए उन्होंने किस संख्या में नई पौध को रोपने का काम किया है, जो नवांकुर हैं उनकी सुरक्षा की कितनी जिम्मेवारी उठाई है. आधुनिकता से परिपूर्ण ये दौर, तकनीकी से भरा ये दौर जिस तरह जीवन-मूल्यों के लिए, संवेदनाओं के लिए, इंसानों के लिए संक्रमणकाल है ठीक उसी तरह से साहित्य-जगत के लिए भी संक्रमण का दौर है. साहित्य आम आदमियों के बीच से उठकर प्रकाशकों की गोदी में बैठ गया है, जहाँ प्रकाशन अब या तो पुरस्कारों के लिए होता है या फिर पुस्तकालयों के लिए. ऐसे में साहित्य की समृद्धि की संभावनाओं पर चर्चा करना भी बेमानी हो जाता है. हिन्दी साहित्य में कविता और दुष्यंत के बाद चलन में आई हिन्दी ग़ज़ल जिस तरह से आम आदमी के बीच सहजता से स्थापित थी वो भी अब मंचीय चुटकुलों में परिवर्तित होती दिख रही है. वास्तविकता प्रदर्शित करने के नाम पर कहानियों, उपन्यासों में फूहड़ता, यौन प्रदर्शन का समावेश होना साहित्य को विकृत कर रहा है.
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दरअसल साहित्य सामाजिक संवेदना का विषय है, इसमें साहित्यकार जिस-जिस मानसिकता का, जिस-जिस अवस्था का अनुभव करता है वो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अपनी रचना में प्रदर्शित करता है. ये कतई आवश्यक नहीं कि जब तक साहित्यकार अभावग्रस्त नहीं होगा, जब तक साहित्यकार भूखा नहीं होगा, जब तक वो कष्ट में नहीं होगा तब तक कालजयी रचनाएँ संभव नहीं. इसके उलट साहित्यकार का संवेदित होना, समाज की नब्ज़ को पहचानने वाला, समृद्धि के लिए नई पौध का निर्माण करने वाला होना गुणों से परिपूर्ण होना आवश्यक है. महज इसलिए लेखन करना कि किसी न किसी रूप में पुस्तकों के प्रकाशन होते रहे, महज इसलिए लिखते रहना कि पुरस्कार झोली में गिरते रहे, इसलिए लेखन करना कि समाज में साहित्यकार का तमगा मिला रहे साहित्य को समृद्ध नहीं कर रहे वरन उसको रसातल में ले जाने का काम कर रहे हैं. और इसका आकलन महज इस बात से लगाया जा सकता है कि विगत दो-तीन दशकों में एक-दो पुस्तकों को छोड़कर कोई दीर्घजीवी कृति पाठकों के हाथों में नहीं आई है. साहित्यकारों को सामाजिक संवेदना, जीवन-मूल्यों के साथ साहित्य-सृजन करना होगा, उसी से साहित्य समृद्ध होगा, उसी से साहित्यकार संपन्न होगा. अन्यथा की स्थिति में सोशल मीडिया की निर्द्वन्द्व स्वतंत्रता ने तो प्रत्येक व्यक्ति को साहित्यकार और किसी भी तरह के लेखन को साहित्य बना ही दिया है.

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

तिरंगे को सच्ची सलामी अभी बाकी है - आलेख



तिरंगे को सच्ची सलामी अभी बाकी है
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
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          जब पहली आधी रात को तिरंगा फहराया गया था, तब हवा हमारी थी, पानी हमारा था, जमीं हमारी थी, आसमान हमारा था तब भी जन-जन की आँखों में नमी थी। पहली बार स्वतन्त्र आबो-हवा में अपने प्यारे तिरंगे को सलामी देने के लिए उठे हाथों में एक कम्पन था मगर आत्मा में दृढ़ता थी, स्वभाव में अभिमान था, स्वर में प्रसन्नता थी, सिर गर्व से ऊँचा उठा था। समय बदलता गया, परिदृश्य बदलते रहे किन्तु तिरंगा हमेशा फहरता रहा, हर वर्ष फहराया जाता रहा। सलामी हर बार दी जाती रही किन्तु अहम् हर बार मरता रहा; गर्व से भरा सिर हर बार झुकता रहा; आत्मा की दृढ़ता हर बार कम होती रही। यह एहसास साल दर साल कम होता रहा। हाथों का कम्पन हर बार बढ़ता रहा; आँखों के आँसू हर बार तेजी से बहते रहे मगर कभी हमने हाथों के कम्पन को नहीं थामा, आँसुओं का बहना नहीं रोका; आँखों के आँसू नहीं पोंछे। पहली बार जब हाथ काँपे थे तो वे हमारे स्वाभिमान का परिचायक बने, अब यही कम्पन हमारे नैतिक चरित्र, चारित्रिक पतन को दिखा रहा है। पहली बार आँखों से बहते आँसू खुशी के थे मगर अब लाचारी, बेबसी, हताशा, भय, आतंक, अविश्वास आदि के हैं। सामने लहराता हमारा प्यारा तिरंगा हमसे हमारी स्वतन्त्रता का अर्थ पूछता है; हमसे हमारे शहीदों के सपनों का मर्म पूछता है।
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          शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशां होगा कुछ ऐसा सोचकर ही हमारे वीर-बाँकुरों ने आजादी के लिए हँसते-हँसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिये थे। इस महान सोच के बाद ही हमें प्राप्त हुई खुलकर हँसने की स्वतन्त्रता, खुलकर घूमने की आजादी, अपना स्वरूप तय करने की आजादी। हम आजाद तो हुए किन्तु विचारों की खोखली दुनिया को लेकर। राष्ट्रवाद जैसी अवधारणा अब हमें प्रभावित नहीं करती वरन् इसमें भी हमें साम्प्रदायिकता का बोध होने लगा है। यही कारण है कि आज हर ओर अराजकता का, हिंसा, अपराध, अत्याचार, भेदभाव आदि का बोलबाला दिख रहा है। ये सब एकाएक नहीं हो गया है, दरअसल स्वतन्त्र भारत के वक्ष पर एक ऐसी पीढ़ी ने जन्म ले लिया, जिसके लिए गुलामी एक कथा की भाँति है, शहीदों की शहादत उसके लिए गल्प की तरह है, आजादी के मतवालों की कुर्बानियाँ महज एक इत्तेफाक। ऐसी पीढ़ी के लिए आजादी का अर्थ स्वच्छन्दता, उच्शृंखलता आदि बना हुआ है; आजादी के गीत, राष्ट्रगीत, वन्देमातरम् इनके लिए आउटडेटेड हो गये हैं और पॉप, जैज आदि इनके पसंदीदा गीत बने हुए हैं।
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          आजाद भारत में विकास का नाम लेकर चर्चा करना भी राजनीति हो गया है। तिलक-टोपी की राजनीति आज इक्कीसवीं सदी में भी स्पष्ट रूप से दिख रही है। तुष्टिकरण आज भी अपने पूरे चरम पर दिख रहा है। हाशिए पर खड़े लोगों को देश की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए बनाया गया आरक्षण भी मलाईदार, रसूखदारों की कठपुतली सी बना दिख रहा है। लोकतन्त्र एक तरह की राजशाही में परिवर्तित होता चला जा रहा है। जनप्रतिनिधि अब जनता के सेवक से ज्यादा उनके हुक्मरान बनते जा रहे हैं। आजादी के दीवानों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि विकास के नाम पर सत्तासीन लोग समाज के विकास के स्थान पर अपनी पीढ़ियों का विकास करने में जुट जायेंगे; विकसित समाज की अवधारणा में आम आदमी को महत्व नहीं मिल पायेगा। यही कारण है कि समय-समय पर देश में अलगाववादी ताकतें, नक्सलवादी ताकतें अपना सिर उठाने लगती हैं। अपने अधिकारों की माँग करते-करते ये ताकतें आतंकवादी शक्तियों में परिवर्तित हो जाती हैं और देश में अराजकता को फैलाने लगती हैं।
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          इक्कीसवीं सदी में खड़े हमारे आजाद देश के पास आज भी स्थिरता का अभाव सा दिखाई देता है। कभी हम अपने पड़ोसी देशों की कृत्सित नीतियों का शिकार बनते हैं तो कभी वैश्विक तानाशाह के रूप में उभरकर सामने आ रहे अमेरिका की आर्थिक नीतियों का शिकार बनते हैं। कभी हमें सीमापार से हो रहे आतंकी हमलों से बचना पड़ता है तो कभी यह आग हमारे ही घरों में लगी दिखाई देती है। कभी हम दो देशों की आपसी जंग में द्वंद्व की स्थिति में होते हैं तो कभी हम अपने देश में ही दो समुदायों में हो रहे दंगों की आग में झुलसते हैं। हम मंगल ग्रह पर पानी और जीवन की आशा में करोड़ों रुपये का अभियान चलाकर वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के सामने सीना ठोंकते हैं तो शिक्षा के नाम पर वैश्विक जगत में अभी भी बहुत पीछे होने के कारण शर्मिन्दा होते हैं। अपनी संस्कृति के साथ विश्व की तमाम संस्कृतियों का समावेश कर हम सांस्कृतिक प्रचारक-विचारक के रूप में विख्यात होते हैं तो अपने देश की महिलाओं की गरिमा, उनकी जान की सुरक्षा न कर पाने के चलते शर्म से सिर झुका बैठते हैं। हमने औद्योगीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के नाम पर हाथों में मोबाइल तो थमा दिये किन्तु शिक्षा के लिए हर हाथ को पुस्तकें, पेन्सिलें नहीं पकड़ा पाये। अभिजात्य वर्ग एवं पश्चिमीकरण की नकल में हमने हर हाथ को सस्ते दरों पर बीयर तो उपलब्ध करवा दी किन्तु बहुतायत में अपनी जनता को पीने का स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं करवा पाये।
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          देखा जाये तो विकास के बाद भी हम विकास की खोखली अवधारणा को पोषित करते जा रहे हैं। मॉल, जगमगाते शहर, मैट्रो, मल्टीस्टोरीज, शॉपिंग कॉम्पलैक्स आदि हमारी विकास की सफलता नहीं हैं। जब तक एक भी बच्चा भूखा है, एक भी बच्चा अशिक्षित है, एक भी बच्चा रोगग्रस्त है तब तक हम अपने को विकसित और आजाद कहने योग्य नहीं। हमें आजादी की परिभाषा को समझाने-समझने की जरूरत है। जब तक देश में हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर विभेद होगा, जब तक शिया-सुन्नी विवाद जलता रहेगा, जब तक नक्सलवाद के कारण लोगों को मारा जाता रहेगा, जब तक देश का युवा भटकता हुआ आतंक की शरण में जाता रहेगा, जब तक विदेशी ताकतों के द्वारा हम संचालित रहेंगे, जब तक राजनीति में तुष्टिकरण हावी रहेगा, जब तक लोकतन्त्र के स्थान पर राजशाही को स्थापित करने के प्रयास होते रहेंगे, जब तक गाँवों की उपेक्षा कर औद्योगीकरण्र किया जाता रहेगा, जब तक कृषि के स्थान पर मशीनों को प्राथमिकता प्रदान की जाती रहेगी, जब तक इंसान उपभोग की वस्तु के तौर पर देखा जाता रहेगा, जब तक हमारी जाति हमारी पहचान का साधन बनी रहेगी (ऐसी और भी हजारों स्थितियाँ हैं) तब तक हम अपने को वास्तविक रूप में आजाद कहने के हकदार नहीं।
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          ऐसे में सवाल उठता है कि क्या फिर कोई हल नहीं इस समस्या का? क्या कोई रास्ता नहीं खुद को वास्तविक आजाद कहलाने का? सवाल का जवाब यही है कि इसके लिए सियासतदानों का मुँह देखने के स्थान पर, सफेदपोशों से अपेक्षा करने के बजाय, सत्ताधारियों के कदमों के इंतजार के स्थान पर आम नागरिक को ही आगे आना होगा। आपसी विभेद को समाप्त किये बिना आगे बढ़ना सम्भव नहीं और समझना होगा कि इस विभेद से नुकसान किसे हो रहा है? वैमनष्यता के चलते व्यक्ति अपना ही विकास नहीं कर सकता है तो वह समाज का, अपने परिवार का विकास कैसे करेगा? व्यक्ति की रोजी-रोटी उसके कर्म पर आधारित है, आपसी तनाव, मनमुटाव के चलते ऐसा हो पाना सम्भव नहीं तो भूखा किसे रहना है? बच्चे हमारे भविष्य की आधारशिला हैं, जिनसे हमारे परिवार का, हमारे समाज का विकास होना है, यदि वो ही अशिक्षित, भूखा, अस्वस्थ रहेगा तो विकास की अवधारणा बेमानी है। इन बातों को हमें स्मरण रखना होगा और अपने देश के विकास के लिए एक कदम आगे आना ही होगा। याद रखना होगा कि जिन्हें सत्ता चाहिए वो हमारा ही उपयोग करके सत्ता प्राप्त कर लेते हैं तो क्या हम स्वयं के लिए अपना उपयोग कर अपना और अपने राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते हैं? नागरिक किसी भी धर्म के हों, किसी भी जाति के हों, किसी भी क्षेत्र के हों किन्तु देश हमारा है और हम देश के, इस सोच के द्वारा हम विकास की, एकता की राह पर आगे बढ़ सकते हैं। शहीदों के वे स्वप्न जो अभी भी झिलमिला रहे हैं, पूर्ण होने को तरस रहे हैं, हमारी इसी पहल के द्वारा पूर्ण हो सकते हैं। यदि ऐसा हम कर पाते हैं तो हम अपने प्यारे तिरंगे को सच्ची सलामी दे सकेंगे और एक बार फिर हमारा सिर उसके सामने गर्व से भरा होगा, दृढ़ता से हमारे हाथ उठे होंगे, जयहिन्द, वन्देमातरम् का घोष हमारे कंठों से निकलकर समूचे आसमान में गूँज उठेगा।
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आलेख जनपद जालौन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'अदबनामा' जुलाई-सितम्बर २०१४ (प्रवेशांक) में प्रकाशित

सोमवार, 18 अगस्त 2014

नंगत्व की विभिन्न प्रजातियाँ - व्यंग्य



नंगत्व की विभिन्न प्रजातियाँ
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
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परिधानयुक्त समाज में परिधान-मुक्तता अपने आपमें एक आन्दोलन सरीखा है. आदि मानव ने जितनी मेहनत के बाद कपड़ों, वस्त्रों का निर्माण करके मनुष्य को परिधानयुक्त बनाया, मानव ने उतनी ही सहजता से स्वयं को वस्त्र-विहीन करने का कदम उठाया. इस वस्त्र-विहीनता को भी विभिन्न तरीके से, विभिन्न विद्वतजनों ने, विभिन्न परिभाषाओं में आबद्ध किया है. पूर्णतः वस्त्र-विहीन विचरण करने वालों को जानवर की संज्ञा से सुशोभित किया गया. इस वर्ग में ऐसे जीव को रखा गया जिसने परिधानों के बंधन को कभी स्वीकार ही नहीं किया. पूर्ण प्राकृतिक परिवेश में विचरता यह जीव जब कभी मनुष्य के दांव-पेंच का शिकार हो बंधन-युक्त हो जाता है, तो यदा-कदा मौसम की मार से बचने के लिए मनुष्य रूप में विचरते पशु के द्वारा अल्प-परिधान बंधन में बाँध दिया जाता है. इसी प्रकार से एक अन्य प्रजाति, जो वस्त्र-युक्त होते हुए भी गाहे-बगाहे वस्त्र-मुक्त, वस्त्र-विहीन होने की कोशिश करती है. कलाकारों की श्रेणी में विचरण करता यह नग्न प्राणी कभी स्वयं वस्त्र-मुक्त होता है तो कभी किसी और को वस्त्र-विहीन करता है. एक स्थिति में यह खुद को मॉडल के रूप में प्रदर्शित करता है तो दूसरे रूप में यह पेंट, ब्रश, कैनवास की रंगीनियों के मध्य चित्रकार की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है. इन्हीं के बीच कभी-कभी एक ऐसी भी प्रजाति देखने को मिल जाती है जो परिधानों से सुसज्जित होने के बाद भी परिधान-विहीन दिखाई देती है. इस प्रजाति के लिए परिधानों का होना, न होना एक समान भाव में होता है. इसके परिधान कभी अपने आप ढलक जाते हैं, तो कभी-कभी इनके उठने-बैठने से इनको परिधान-विहीन बना देते हैं. ये अत्यंत उच्च श्रेणी की प्रजाति होती है जो पेज थ्री पर शोभायमान होती है और इसके लिए परिधानों के साथ परिधान-विहीन दिखना स्टेटस सिम्बल माना जाता है. ऐसा न हो पाने, न पर पाने वाली प्रजाति अक्सर फूहड़ कहलाती है.
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वस्त्र-विहीनता की इन स्थितियों को सभ्यता का मुलम्मा चढ़ाकर नग्न, अर्द्ध-नग्न, टॉपलेस आदि-आदि के नामों से पुकारा-पहचाना जाता है, वहीं आम, अनौपचारिक बातचीत में ये सभी वस्त्र-विहीन प्रजातियाँ ‘नंगे’ ही कहे जाते हैं. कई बार लगता है कि इन परिधान-संपन्न प्रजातियों को जो वस्त्र-विहीन होने को आतुर रहती हैं, वे चाहे स्त्री हों या पुरुष, प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है. समाज का बहुत-बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो समूची देह को वस्त्रों के बंधन में किये रहता है. प्राकृतिक आबो-हवा से दूर रखना भी देह के साथ ज्यादती ही है और किसी भी देश का कानून किसी की भी देह के साथ ज्यादती करने की अनुमति नहीं देता है. इसके अलावा ये लोग कहीं न कहीं अपनी-अपनी जड़ों की ओर लौट रहे हैं, इस कारण से भी इनका स्वागत होना चाहिए. आखिर हम सभी लोग चाहते हैं, मानते हैं कि इंसान आधुनिक होते जाने के चलते अपनी जड़ों से कटता जा रहा है, ये तमाम प्रजातियाँ प्रयासरत हैं कि भले ही पागलपन के नाम पर, भले ही मॉडलिंग के नाम पर, भले ही चित्रकारी के नाम पर, भले ही कलाकारी के नाम पर, भले ही कलात्मकता के नाम पर वस्त्र-विहीन ही क्यों न होना पड़े किन्तु अपनी जड़ों से समाज के बहुसंख्यक वर्ग को जोड़ने का कार्य किया जायेगा, लोगों को वस्त्र-मुक्ति आन्दोलन की ओर अग्रसर किया जायेगा. परिधान के बंधनों से परिधान-मुक्तता की ओर चलता, आधुनिकता से अपनी जड़ों की ओर लौटता इनका आन्दोलन सफलता की राह अग्रसर है आखिर इन्हीं जैसे चंद लोग संस्कृति, सभ्यता का नित्य ही बलात्कार कर पाशविकता को जन्म दे रहे हैं; आग के गोलों, बमों के धमाकों के द्वारा बस्तियों को गुफाओं-कंदराओं में बदल रहे हैं; इंसानों को मार-मार कर कबीलाई मानसिकता का परिचय दे रहे हैं. काश! परिधान इनको बंधन का नहीं अलंकरण का पर्याय समझ आता?

© कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

रविवार, 10 अगस्त 2014

फ़िज़ूल खर्च - लघुकथा


फ़िज़ूल खर्च
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वह तो ख़ुशी के मारे पागल हुई जा रही थी. उसके दोनों भाई उसके सामने खड़े थे. इस बार रक्षाबंधन पर मायके जाना नहीं हो पाया तो ये सोच-सोच कर दुखी थी कि किसे राखी बाँधेगी? उसके दोनों भाईयों की कलाई सूनी रह जाएगी. उसने बड़ी उमंग से, उत्साह से राखी की थाली सजाई, अपने दोनों भाइयों को टीका करके राखी बाँधी. भाइयों ने उसकी ख़ुशी को और भी बढ़ा दिया जब छोटे भैया ने उसके हाथ में नई स्कूटी की चाबी थमा दी. आँखों में आँसू भरकर वह दोनों भाइयों से लिपट गई. उसे अपने पर गर्व हो रहा था कि उसे ऐसे प्यार करने वाले, उसका ख्याल रखने वाले भाई मिले हैं.
शाम होते-होते उसके दोनों भाई वापस चले गए. शाम होते-होते उसका उत्साह ठंडा पड़ गया. शाम होते-होते स्कूटी मिलने की उसकी ख़ुशी भी चली हो गई. राखी बंधवाई उसके पति ने अपनी इकलौती छोटी बहिन को नई स्कूटी दिलवा दी थी. उसके गुमसुम होने का कारण भी यही था, आखिर उसके पति ने फ़िज़ूल खर्चा जो कर दिया था.
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© कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र 
१० अगस्त २०१४ - रक्षाबंधन 
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चित्र गूगल छवियों से साभार

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

नग्न मानसिकता - लघुकथा

मोबाइल में मैसेज के नोटिफिकेशन की घंटी ने आवाज़ दी, उसने लपक कर मोबाइल की स्क्रीन पर खेलना शुरू कर दियास्क्रीन पर उभर कर आई तस्वीर देख उसकी आँखें और बड़ी हो गईं। स्क्रीन नग्न स्त्री देह के साथ चमक रही थी, जिसके अंग-प्रत्यंग एक-एक कर बदलती फोटो के साथ सामने आते जा रहे थे। अपने आसपास एक जासूसी, जाँचनुमा निगाह डालने के बाद वो फिर स्क्रीन पर महिला की नग्न देह से खिलवाड़ करने में लग गया। चार-पाँच मिनट खुद खेलने के बाद अब उसके द्वारा उन तस्वीरों को शेयर करने का उपक्रम शुरू कर दिया गया।
तस्वीरें तो शेयर हो ही रही थी और हर शेयर में एक कॉमन सन्देश “बेचारी रेप होने के बाद मार दी गई, वैसे है टंच माल।” मृत नारी की नग्न देह की चंद तस्वीरें लोगों की मानसिकता को शेयर कर रही थीं और ये मानसिकता कुछ और बलात्कारियों को जन्म दे रही थी। 
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© कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र