कविता --- पहचान के साथ ही...
अपराध करने के बाद भी
अपराध-बोध का
तनिक भी भान नहीं,
नहीं एहसास कि
वह अपने हाथों से
मिटा चुका है एक सृष्टि को,
वो हाथ जो
झुला सकते थे झूला,
दे सकते थे थपकी,
सिखा सकते थे चलना,
जमाने के साथ बढ़ना,
उन्हीं हाथों ने
सुला दिया मौत की नींद,
मिटा दिये सपने,
अवरुद्ध कर दिया विकास,
बिना उसकी आंखें खुले,
बिना उसके संसार देखे,
बिना अपना परिवार जाने,
समाप्त हो गया उसका अस्तित्व,
समाप्त हो गया एक जीवन,
मिट गई एक मुस्कान
क्योंकि
समाज में आने के पूर्व ही
समाज के कथित ठेकेदार
कर चुके थे उसकी पहचान।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
कहाँ से चले थे, कहाँ आ गए हैं --- [कविता -- कुमारेन्द्र]
पड़े थे खण्डहर में
पत्थर की मानिन्द
उठाकर हमने सजाया है,
हाथ छलनी किये अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत
हम को ही आँखें दिखा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
बदन पर लिपटी है कालिख
सफेदी तो बस दिखावा है,
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना ये
मुँह से रोटी छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
सियासत का बाजार
रहे गर्म
कोशिश में लगे रहते हैं,
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर गुजर कर
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
चित्र गूगल छवियों से साभार
पत्थर की मानिन्द
उठाकर हमने सजाया है,
हाथ छलनी किये अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत
हम को ही आँखें दिखा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
बदन पर लिपटी है कालिख
सफेदी तो बस दिखावा है,
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना ये
मुँह से रोटी छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
सियासत का बाजार
रहे गर्म
कोशिश में लगे रहते हैं,
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर गुजर कर
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।
चित्र गूगल छवियों से साभार
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