बुधवार, 17 जुलाई 2013

जो तुमको लगती नंगई, वो है हमारी जीवन-शैली

@ राजा किशोरी महेन्द्र
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का हो, काहे बमचक मचाये हो? जब देखो शुरू हो जाते हो सभ्यता, संस्कृति, शालीनता, अश्लीलता, आधुनिकता का लेक्चर देने. ये करना सही है, वो करना गलत है; ये करने से संस्कृति खतरे में पड़ेगी, वो करने से संस्कृति का विकास होगा; ये करना युवाओं को शोभा नहीं देता, वो करने से युवाओं का विकास होता है.... क्या यार! हर बात में नुक्ताचीनी, हर काम में टांग अड़ाना, कभी तो फ्री होकर कुछ करने दिया करो. जरा सी मस्ती कर लो तो तुम सभी के तन-बदन में आग लग जाती है; थोड़ा सा पी-पिबा लो तो तुम लोगों के हलक सूख जाते हैं; कभी-कभी सिगरेट के छल्ले उड़ा लो तो तुम्हारे हाथों के तोते उड़ने लगते हैं; कभी किसी के साथ गलबहियाँ कर लो तो तुम्हारा चैन लुट जाता है. कुछ भी करते हम हैं और उसका प्रभाव तुम लोगों के जीवन पर पड़ने लगता है. छोड़ो ये बेकार का तामझाम...नाहक ही अपनी और हमारी जिंदगी का मजा ख़राब किये डाल रहे हो.
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कभी कुछ किया हो खुल्लमखुल्ला, तब तो उसका मजा समझो. हमें समझाते हो कि इसका परिणाम ख़राब है, इससे नाम मिट्टी में मिल जाता है. अरे क्या जानो खुलेआम कुछ भी करने का मजा..मौजा ही मौजा दिखती है. हम उस ज़माने की संतानें नहीं जो घनघोर बंदिश में रहती थी, परदे में बने रहना जिनकी महानता होती थी. हम तो उस ज़माने में जन्मे हैं जहाँ खुलापन ही इसकी विशेषता है, जहाँ आधुनिकता में रचे-बसे दिखना ही हमारी महानता है, जहाँ पर्दों को फाड़ देना, बंदिशों को तोड़ देना हमारी खासियत मानी जाती है. अरे वो दिन गए जबकि अपने जीवनसाथी तक से मिलना एवरेस्ट पर चढ़ने से ज्यादा कठिन होता था, दिन के समय तो मिलना आसमान के तारे तोड़ने जैसा हुआ करता था. जैसे-तैसे मिलना हुआ तो वो भी स्याह काली रात में...जब हाथ को हाथ नहीं सूझता, पैर को पैर नहीं सूझता, मुंह को मुंह नहीं सूझता था. सोच लो, एक-दूसरे की शक्ल सही से, पूरी तबियत से निहारने के चक्कर में हफ़्तों गुजर जाया करते थे. प्रेम-रोमांस की बातें तो जैसे आसपास फटकती ही नहीं थी. ऐसे फूहड़ समाज से निकल कर आये लोग हमें समझाने में लगे हैं कि कैसे आपस में मेल-मिलाप रखा जाये.
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अरे, हमारे मेल-मिलाप को तुम जाहिल लोग क्या खाकर समझोगे. तुम लोगों को हमारे हम काम में नग्नता, अश्लीलता, नंगई दिखाई देती है. मैदान में, पार्क में, बाज़ार में, मॉल में, पार्टी में, पब में, बार में, स्कूल में, ऑफिस में, सड़क में, मेट्रो में, बस में, ट्रेन में, कार में, बाइक में...जहाँ भी जैसे भी हो हमें मौका मिल ही जाता है. अब हम मौके का इंतज़ार नहीं करते बल्कि मौके हमारे इंतज़ार में बैठे होते हैं. ‘जहाँ देखा मौका, वहीं लगाया चौका’ हमारे जैसी जागरूक, आधुनिक, सक्रिय पीढ़ी का ब्रह्मवाक्य है. अब क्या-क्या समझाएं तुम लोगों को महानुभावो, तुम सब अपना-अपना काम देखो और हमें अपना-अपना काम करने दो. अभी जरा ट्रेलर खुलेआम देखकर तुम सबका पेट खौलने लगा कल को क्या होगा जब हमारा अंदाज़े-बयाँ इससे आगे का होगा और वो भी खुल्लमखुल्ला? अपनी कल की स्थिति को अपने काबू में रखने की कोशिश करो, अपने होशोहवास को नियंत्रण में रखने का प्रयास करो. हमें बाँधने की चेष्टा न करो क्योंकि हम तो भटकता पानी, बेकाबू अंधड़ हैं जो सिर्फ मिटाना जानता है...सिर्फ मिटाना जानता है.
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