गुरुवार, 10 नवंबर 2022

मँहगाई को भी पचा लेंगे

आजकल सुबह आँख खुलने से लेकर देर आँख बंद होने तक चारों तरफ हाय-हाय सुनाई देती है. आपको भी सुनाई देती होगी ये हाय-हाय? अब आपको लगेगा कि आखिर ये हाय-हाय है क्या, किसकी? ये जो है हाय! ये एक तरह की आह है, जो एकमात्र हमारी नहीं है बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो बाजार के कुअवसरों से दो-चार हो रहा है. बाजार के कुअवसर ऐसे हैं कि न कहते बनता है और न ही सुनते. बताने का तो कोई अर्थ ही नहीं. इधर कोरोना के कारण ध्वस्त जैसी हो चुकी अर्थव्यवस्था का नाम ले-लेकर आये दिन बाजार का नजारा ही बदल दिया जाता है. आपको नहीं लगता कि बाजार का नजारा बदलता रहता है.

 

बाजार का नजारा अलग है और इस नजारे के बीच सामानों के दामों का आसमान पर चढ़े होना सबको दिखाई दे रहा है. सबको दिखाई देने वाला ये नजारा बस उनको नहीं दिखाई दे रहा, जिनको असल में दिखना चाहिए था. इधर सामानों के मूल्य दो-चार दिन ही स्थिर जैसे दिखाई देते हैं, वैसे ही कोई न कोई टैक्स उसके ऊपर लादकर उसके मूल्य में गति भर दी जाती है. यदि कोई टैक्स दिखाई नहीं पड़ता है तो जीएसटी है न. अब तो इसे एक-एक सामान पर छाँट-छाँट कर लगाया जा रहा है. ऐसा करने के पीछे मंशा मँहगाई लाना नहीं बल्कि वस्तुओं के मूल्यों को गति प्रदान करनी है. अरे! जब मूल्य में गति होगी तो अर्थव्यवस्था को स्वतः ही गति मिल सकेगी.

 



ऐसा नहीं है कि ऊपरी स्तर से मँहगाई कम करने के प्रयास नहीं किये गए. प्रयास किये गए मगर कहाँ और कैसे किये गए ये दिखाई नहीं दिए. आपने फिर वही बात कर दी. अरे आपको जीएसटी दिखती है, नहीं ना? बस ऐसे ही प्रयास हैं जो दिख नहीं रहे हैं. और हाँ, कोरोना के कारण देश भर में बाँटी जा रही रेवड़ियों की व्यवस्था भी उन्हीं के द्वारा की जानी है जो इन रेवड़ियों का स्वाद नहीं चख रहे हैं. अब तो आपको गर्व होना चाहिए मँहगे होते जा रहे सामानों को, वस्तुओं को खरीदने का. आखिर आप ही तो हैं जिन्होंने लॉकडाउन के बाद बहती धार से अर्थव्यवस्था को धार दी थी, अब आसमान की तरफ उड़ान भरती कीमतों के सहयोगी बनकर अर्थव्यवस्था को तो गति दे ही रहे हैं, रेवड़ियों को भी स्वाद-युक्त बना रहे हैं.

 

बढ़ते जा रहे दामों के कारण स्थिति ये बनी है कि बेचारे सामान दुकान में ग्राहकों के इंतजार में सजे-सजे सूख रहे हैं. वस्तुओं ने जीएसटी का आभूषण पहन कर खुद की कीमत बढ़ा ली है, अब वे अपनी बढ़ी कीमत से कोई समझौता करने को तैयार नहीं. इस मंहगाई के दौर में सामानों से पटे बाजार और दामों के ऊपर आसमान में जा बसने पर ऐसा लग रहा है जैसे किसी गठबन्धन सरकार के घटक तत्वों में कहा-सुनी हो गई हो. सामान बेचारे अपने आपको बिकवाना चाहते हैं पर कीमत है कि उनका साथ न देकर उन्हें अनबिका कर दे रही है. उस पर भी उन कीमतों ने विपक्षी जीएसटी से हाथ मिला लिया है. अब ऐसी हालत में सबसे ज्यादा मुश्किल में बेचारा उपभोक्ता है, ग्राहक है. इसमें भी वो ग्राहक ज्यादा कष्ट का अनुभव कर रहा है जो मँहगी, लक्जरी ज़िन्दगी को बस फिल्मों में देखता आया है.

 

ऐसे ही लक्जरी उपभोक्ताओं की तरह के हमारे सरकारी महानुभाव हैं. अब वे बाजार तो घूमते नहीं हैं कि उनको कीमतों का अंदाजा हो. अब चूँकि वे बाजार घूमने-टहलने से रूबरू तो होते नहीं हैं, इस कारण उनके पास किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तो होती नहीं है. अब बताइये आप, जब जानकारी नहीं तो बेचारे कीमतों को कम करने का कैसे सोच पाते? इस महानुभावों का तो हाल ये है कि एक आदेश दिया तो इनको भोजन उपलब्ध. गाड़ी में तेल डलवाने का पैसा तो देना नहीं है, रसोई के लिए गैस का इंतजाम भी नहीं करना है और न ही लाइन में खड़े होकर किसी वस्तु के लिए मारा-मारी करनी है. अब इतने कुअवसर खोने के बाद वे बेचारे कैसे जान सकते हैं कि कीमतों में वृद्धि हो रही है.


ये दोष तो उस बेचारे आम आदमी का है जो दिन-रात खटते हुए बाजार को निहारा करता है. वही बाजार के कुअवसरों से दो-चार होता है. वही लगातार मँहगाई की मार खा-खाकर पिलपिला हो जाता है. इस पिलपिलेपन का कोई इलाज भी नहीं है. यह किसी जमाने में चुटकुले की तरह प्रयोग होता था किन्तु आज सत्य है कि अब आदमी झोले में रुपये लेकर जाता है और जेब में सामान लेकर लौटता है.


ऊपर बैठे महानुभाव भी भली-भांति समझते हैं कि आम आदमी की ऐसी ग्राह्य क्षमता है कि वह मँहगाई को भी आसानी से ग्राह्य कर जायेगा. ऐसे में परेशानी कैसी? देश की जनता तो पिसती ही रही है, चाहे वह नेताओं के आपसी गठबन्धन को लेकर पिसे अथवा सामानों और दामों के आपसी समन्वय को लेकर. सत्ता के लिए किसी का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, टूट सकता है ठीक उसी तरह मंहगाई का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, दामों और सामानों का गठबन्धन टूट भी सकता है. इस छोटी सी और भारतीय राजनीति की सार्वभौम सत्यता को ध्यान में रखते हुए सरकार की नादान कोशिशों को क्षमा किया जा सकता है. 



कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

हमेशा हैं तुम्हारे साथ

कई बार

कितने असहाय से

होते हैं हम,

हाथ बढ़ा कर

तुम्हारा हाथ

न थाम पाते हैं हम.

 

जानते हुए भी कि

तुमको सहारे की नहीं

एक साथ की जरूरत है

फिर भी

तुम्हारा साथी

न बन पाते हैं हम.

 

तुम्हारी आँखों में

चमकते सितारे

देख-समझ लेते हैं

मगर उनको

अपनी पलकों पर सहेजने को

नजरों से नजरें

न मिला पाते हैं हम.

 

हर बार नहीं होते

कंधे सिर टिका कर

रोने के लिए,

वे देते हैं कई बार

एहसास अपनेपन का,

 

तुमको अपनेपन का

एहसास करवाने को

चाह कर भी

कंधे अपने आगे

न कर पाते हैं हम.

 

किस मजबूरी ने

रोक रखे हाथ

पता नहीं,

क्यों न बन पाये

तुम्हारे साथी

पता नहीं,

नजरों ने

किसलिए मुँह फेरा

पता नहीं,

झुके हुए से

क्यों दिखे कंधे

पता नहीं,

 

बस पता इतना है कि

अधिकारों ने

संकोच के दामन को

रखा है थाम,

साथ देते दिखें न दिखें

हाथ, नजरें, कंधे

मगर सब हमेशा

हैं तुम्हारे साथ.  






कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

रविवार, 25 सितंबर 2022

माँ, मुझे एक बार तो जन्मने दो

माँ,

मुझे एक बार तो जन्मने दो,

मैं खेलना चाहती हूँ

तुम्हारी गोद मैं,

लगना चाहती हूँ

तुम्हारे सीने से,

सुनना चाहती हूँ मैं भी

लोरी प्यार भरी,

मुझे एक बार जन्मने तो दो;

 

माँ,

मैं तो बस

तुम्हे ही जानती हूँ,

तुम्हारी धड़कन ही

पहचानती हूँ,

मेरी हर हलचल का

एहसास है तुम्हे,

मेरे आंसुओं को भी

तुम जरूर पहचानती होगी,

मेरे आंसुओं से

तुम्हारी भी आँखें भीगती होगी,

मेरे आंसुओं की पहचान

मेरे पिता को कराओ,

मैं उनका भी अंश हूँ

यह एहसास तो कराओ,

मैं बन के दिखाऊंगी

उन्हें उनका बेटा,

मुझे एक बार जन्मने तो दो;

 

माँ,

तुम खामोश क्यों हो?

तुम इतनी उदास क्यों हो?

क्या तुम नहीं रोक सकती हो

मेरा जाना?

क्या तुम्हे भी प्रिय नहीं

मेरा आना?

तुम्हारी क्या मजबूरी है?

ऐसी कौन सी लाचारी है?

मजबूरी..??? लाचारी...???

मैं अभी यही नहीं जानती,

क्योंकि मैं कभी जन्मी ही नहीं,

कभी माँ बनी ही नहीं,

 

माँ,

मैं मिटाऊंगी तुम्हारी लाचारी,

दूर कर दूंगी मजबूरी,

बस,

मुझे एक बार जन्मने तो दो.

+


कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

शनिवार, 16 अप्रैल 2022

पतझड़ में सावन की फुहार सी तुम

पतझड़ में सावन की फुहार सी तुम

किसी उपवन में छाई बहार सी तुम,

तुम से है रौनक तुम से ही खुशियाँ

जीवन के उल्लासित त्यौहार सी तुम।

 

धड़कन में तुम, तुम ही साँसों में

तुम नजरों में, तुम ही ख्वाबों में,

सोच में तुम ही, बातें भी तुम्हारी

खट्टे मीठे पलों की हिस्सेदार सी तुम।

 

कहना चाहें तुमसे अपने दिल की

छोटी सी, बड़ी सी बातें मन की,

तुम अपनी सी, विश्वास तुम्हीं पर

सारे एहसासों की राजदार सी तुम।






















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कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

मिल कर बिछड़ने से डरता हूँ

तुम न आओ,

इस तरह पास मेरे,

नहीं हिम्मत

अब खोने की

पास मेरे,

आज पास हो तुम

लेकिन

कल को चले जाओगे दूर

यकीं है हमें,

दिल को कितनी ही बार

समझाया है मगर

अब न समझेगा

यकीं है हमें,

ये सच है कि

तुम्हारा पास होना

देता है ख़ुशी दिल को,

देता है सुकून मन को

पर डरता है साथ ही

ये दिल भी,

ये मन भी,

पता नहीं किस पल तुम

कह दो आकर अलविदा,

पता नहीं किस पल तुम

आ जाओ

छोड़ कर जाने को,

बस उसी पल से डरता हूँ,

उस पल से बचने को

आज

तुमसे मिलने से बचता हूँ,

फिर एक बार मिल कर

बिछड़ने से डरता हूँ. 




++

कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

उसी तरह मुस्कुराता हूँ

समय से लड़ना होता है हमारा भी,

हार-जीत से सामना होता है हमारा भी,

कभी-कभी होता है एहसास

बिखरने जैसा भी,

और टूटने सा लगता हूँ

कहीं-कहीं से कभी-कभी,   

पर न टूटने देता हूँ खुद को

न बिखरने देता हूँ।  

इसलिए नहीं कि आत्मविश्वास से भरा हूँ

इसलिए भी नहीं कि

ज़िन्दगी को जीतने निकला हूँ

बल्कि इसलिए कि

बहुतों की हिम्मत हूँ मैं,

बहुतों की जरूरत हूँ मैं,

बुजुर्गों का सहारा हूँ मैं,

छोटों का हौसला हूँ मैं,

जाने कितनों का विश्वास हूँ मैं,

अनेक दिलों की आस हूँ मैं।  

बस इसलिए

न आँसू बहा सकता हूँ,

न टूट सकता हूँ,

न ही हार सकता हूँ,

न ही भाग सकता हूँ।  

 

इसके बाद भी कभी-कभी

हाँ, कभी-कभी मैं रोने सा लगता हूँ,  

नम आँखों में सब झिलमिलाते ही

याद आता है खुद का 

बूढ़े माता-पिता की आँखों की रौशनी होना,

आँखों में गर आँसू भर आयेंगे

फिर वे अपनी दुनिया कैसे देख पायेंगे,

उनको उनकी दुनिया दिखाने को

चाँद-सूरज सा चमक जाता हूँ,

फिर-फिर उसी तरह मुस्कुराता हूँ।  

 

हाँ, कभी-कभी मैं टूटने सा लगता हूँ,

दिल-दिमाग के हल्का सा दरकते ही 

याद आता है खुद का 

भाईयों-बहिनों की ताकत होना,

मेरा टूटना उनके सपनों को तोड़ेगा

मंजिल को बढ़ती राहें रोकेगा,  

उनकी उड़ान को विस्तार देने को

आसमान में बदल जाता हूँ,

फिर-फिर उसी तरह मुस्कुराता हूँ।

 

हाँ, कभी-कभी मैं थकने सा लगता हूँ,

झुकते कंधों और बोझिल क़दमों के बीच

याद आता है खुद का

दोस्तों का बेलौस हौसला होना,

रुकते मेरे रुकेगी रवानगी उनकी

मौज-मस्त सी खिलंदड़ हँसी उनकी,   

बेफिक्र आवारगी को नए आयाम देने को

मदमस्त पवन सा बहक जाता हूँ,

फिर-फिर उसी तरह मुस्कुराता हूँ।  

 

हाँ, कभी-कभी खुद से दूर होने सा लगता हूँ,

अपने बनाये घरौंदे में सिमटते हुए

याद आता है खुद का

हमसफ़र होना अपने हमसफ़र का

तन्हा कर जायेगा उसे इस तरह सिमटना

दिल की आस का होगा बिखरना,  

कच्चे धागे की डोर का विश्वास बढ़ाने को

खुद को खुद सा बनाता हूँ,  

फिर-फिर उसी तरह मुस्कुराता हूँ।  

 .


कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

गुरुवार, 31 मार्च 2022

जन्म लेने का नाम ज़िन्दगी नहीं

सिर्फ जन्म लेने का नाम ज़िन्दगी नहीं,

जीवन को पूरा गुजार लेना ज़िन्दगी नहीं,

जन्म से लेकर मृत्यु तक की यात्रा ज़िन्दगी नहीं.

 

जन्म तो लेते हैं

पशु-पक्षी भी, पेड़-पौधे भी,

जीवन को पूरा बिताते हैं

पशु-पक्षी भी, पेड़-पौधे भी,

जन्म से मृत्यु तक की यात्रा पर जाते हैं

पशु-पक्षी भी, पेड़-पौधे भी.

 

ज़िन्दगी नाम है एक जंग का

खुद से ही लड़ने का,

खुद से जीतने का,

खुद से हारने का.

 

ज़िन्दगी नाम है एक तरंग का

लड़ते हुए हौसला न खोने का,

जीतने पर घमंड न करने का,

हारने पर निराश न होने का.

 

ज़िन्दगी नाम है एक पल का

उस पल में ज़िन्दगी बिता देने का,

उस पल में ज़िन्दगी बना देने का,

उस पल में ज़िन्दगी सिखा देने का.

 

ज़िन्दगी नाम है समय का

उस समय से सीख लेने का,

उस समय में इंसान बनने का,

उस समय में अमरत्व पाने का.

 

ज़िन्दगी नाम है ज़िन्दगी का

ज़िन्दगी को जिंदादिल बनाने का,

ज़िन्दगी में हँसने-मुस्कुराने का,

ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बना देने का.

 

ज़िन्दगी के हर पल में

सीखना होगा हमें खुद ही,

बदलना होगा हमें खुद ही,

समझना होगा हमें खुद ही.

 

ज़िन्दगी है तो एहसास है

कष्टों का, चुभन का,

दुःख का, पीड़ा का,

ग़म का, विषाद का.

 

नहीं ज़िन्दगी तो एहसास नहीं

किसी चुभन का, किसी जलन का,

किसी कष्ट का, किसी पीड़ा का,

किसी आँसू का, किसी करुणा का.

 

काश! सहज होता ज़िन्दगी में

समझना ज़िन्दगी को,

सहेजना ज़िन्दगी को,

सँभालना ज़िन्दगी को.

 

तो हर पल में एक ज़िन्दगी होती.

तो हर ज़िन्दगी में एक ख़ुशी होती.

तो हर ज़िन्दगी एक ज़िन्दगी होती.