रविवार, 18 दिसंबर 2016

रहस्य जीवन का

२ - रहस्य जीवन का
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जीवन रूपी रहस्य को
मत खोज मानव,
डूब जायेगा
इसकी गहराई में।
तुम से न जाने कितने
डूब गये इसमें पर
न पा सके तल
जीवन रूपी सागर का।
छिपा है मात्र इसमें ढ़ेर
लाचारी का,
अंबार बेबसी का।
नदी है कहीं आँसुओं की,
तो कहीं आग है नफरत की।
चारों ओर बस लाचारी है,
कहीं गरीबी का उफान है
तो कहीं भूख का तूफान है।
नहीं रखा है कुछ भी
खोज में इसकी,
घिर कर इसमें पछतायेगा,
सिर टकरायेगा पर
न पा सकेगा रहस्य
इस जीवन का।

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

मेरा भारत महान!

१- मेरा भारत महान! 

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सालों पहले देखा
सपना एक
भारत महान का।
आलम था बस
इन्सानियत, मानवता का,
सपने के बाहर
मंजर कुछ अलग था,
बिखरा पड़ा था...
टूटा पड़ा था...
सपना...
भारत महान का।
चल रही थी आँधी एक
आतंक भरी,
हर नदी दिखती थी
खून से भीगी-भरी,
न था पीने को पानी
हर तरफ था बस
खून ही खून।
लाशों के ढ़ेर पर
पड़ा लहुलुहान...
कब सँभलेगा
मेरा भारत महान!

सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

ओ भारतमाता के प्रहरी, है तुमको बारम्बार नमन

ओ भारतमाता के प्रहरी,
है तुमको बारम्बार नमन.

अडिग हिमालय है तुमसे,
तुमसे सागर में गहराई.
धरती की व्यापकता तुमसे,
तुमसे अम्बर की ऊँचाई.
ओ भारतमाता के प्रहरी,
है तुमको बारम्बार नमन.

तुमसे मुस्काता है बचपन,
तुमसे इठलाती है तरुणाई.
शौर्य तुम्हारा नस-नस में,
भर ले ज़र्रा-ज़र्रा अंगड़ाई.
ओ भारतमाता के प्रहरी,
है तुमको बारम्बार नमन.

तीन रंग की आज़ादी,
है लाल किले पर लहराई.
तुमसे है सम्मान, सबल,
है गरिमा भी तुमसे पाई.
ओ भारतमाता के प्रहरी,
है तुमको बारम्बार नमन.

जय वीरों की, जय सेना की,
देता है जयघोष सुनाई.
जले दीप से दीप कई तो,
देश है देता संग दिखाई.
ओ भारतमाता के प्रहरी,
है तुमको बारम्बार नमन.


शुक्रवार, 17 जून 2016

संरक्षित करने के लिए पहले मारना जरूरी है

मारना और बचाना अन्योनाश्रित क्रियाएँ हैं. यदि किसी को बचाना है तो उसको मारना जरूरी है. बिना मारे बचाने जैसा कदम उठाया भी नहीं जा सकता है. ये क्रियाएँ विनाश और विकास की तरह हैं. विध्वंस और निर्माण के समतुल्य हैं. दो अलग-अलग प्रकृति की क्रियाओं का एकदूसरे से सम्बद्ध होना आश्चर्य का विषय नहीं है. अनादिकाल में स्वयं भगवान ने युद्धभूमि में उपदेशों के द्वारा अपने सखा-शिष्य को समझाया था कि निर्माण के लिए विध्वंस आवश्यक है. विकास की प्रक्रिया के लिए विनाश अनिवार्य है. मारना और बचाना भी ठीक इसी तरह की अन्योनाश्रित व्यवस्था है. आश्चर्य देखिये कि मारने-बचाने जैसी व्यवस्था को राजा से बोधिसत्व की ओर गए भगवान ने भी सिद्ध किया था. उन्होंने केवल शाब्दिक कृत्य से नहीं वरन एक पक्षी के द्वारा मारने-बचाने की क्रिया की अन्योनाश्रितता को प्राप्त किया था.

उनके बाद से समय-समय पर मारने-बचाने की अवधारणा पर कार्य किये जाते रहे. हर बार जानवरों को ही निशाना बनाया जाता रहा. ये उपक्रम तब तक चलता जब तक कि उसकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर न पहुँच जाती. ज्यों ही प्रजाति विलुप्तिकरण का एहसास होता त्यों ही उसके बचाए जाने के प्रयासों का द्वार खोल दिया जाता. मारने की प्रक्रिया के बाद बचाए जाने की प्रक्रिया स्वतः आरम्भ कर दी जाती. गौरैया बचाई जाने लगी. बाघ बचाए जाने लगे. हिरन संरक्षित किये जाने लगे. गिद्ध खोजे जाने लगे. घड़ियाल अभ्यारण्य में पाले जाने लगे. कुल मिलाकर ऐसी कई-कई प्रजातियों के विध्वंस के बाद उनके निर्माण की बात सोची जाने लगी. उनके विनाश के बाद उनके विकास की प्रक्रिया अपनाई जाने लगी. उनके निर्वासन के बाद उनके संरक्षण की चर्चा होने लगी. कई-कई पक्षियों की प्रजातियाँ इसके बाद भी बचाई न जा सकीं और विलुप्त हो गईं. ये तो बाघ की किस्मत अच्छी कही जाएगी, जिसकी संख्या को इस प्रक्रिया में बढ़ा लिया गया.


कालगणना में कई-कई युग बीत जाने के बाद पुनः भगवन-वाणी ने अपने को सिद्ध करने का अवसर तलाश लिया. अबकी किसी भगवान ने नहीं वरन भक्त-सदस्य के द्वारा मारने-बचाने की अन्योनाश्रिता को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है. मारने की क्रिया को अब आदेशात्मक रूप प्रदान किया गया. निशाने पर अबकी बार भी जानवर ही आया. लाभ-हानि, नफा-नुकसान के समीकरण के बाद उस जानवर को फसलों के लिए, किसानों के लिए घातक सिद्ध कर लिया गया. इस समीकरण के चलते अभी मारने की क्रिया को प्रमुखता दी गई. प्राकृतिक रूप से ये प्रक्रिया तब तक अमल में लाई जाएगी, जब तक ये न साबित हो जाये कि सम्बंधित जानवर की प्रजाति विलुप्तिकरण की कगार पर पहुँच गई है. इसके बाद बचाए जाने की, संरक्षित करने की प्रक्रिया आरम्भ की जाएगी. उस जानवर की प्रजाति बचेगी या नहीं, ये तो भविष्य बताएगा. अभी तो उसकी प्रजाति को मारने का आदेश है. आदेश का पालन पूर्ण प्रतिबद्धता से हो रहा है. काश कि बेटियों को गर्भ में न मारने के आदेश का पालन भी इतनी ही प्रतिबद्धता से हो पाता. अफ़सोस कि सभी प्रजातियों की किस्मत बाघ जैसी अच्छी नहीं होती. 

गुरुवार, 12 मई 2016

ठ से ठठेरा की जगह ठ से ठुल्ला पढ़ाने की कोशिश

आखिर ठुल्ला कहने पर इतना बवेला क्यों? किसी भी बात के कई पहलू हो सकते हैं. कुछ ऐसा ही इस शब्द में भी है, बस गौर करने की जरूरत है. ठुल्ला या कहें ठलुआ, बात घूम-फिर कर एक ही अर्थ देती है. अब इसकी आवश्यकता अगले व्यक्ति को क्यों आन पड़ी ये भी समझना होगा. अगले व्यक्ति ने ठुल्ला शब्द से हिन्दी वर्णमाला को संशोधित करने का पुनीत कार्य आरम्भ किया है. इसके द्वारा एक ऐसे शब्द को प्रतिस्थपित करने का प्रयास है जो अब समाज में दिखता ही नहीं. इसके बाद भी हिन्दी वर्णमाला में उसे नियमित रूप से पढ़ाया जा रहा है. जी हाँ, कई-कई पीढ़ियाँ हिन्दी पढ़ते-सीखते में ठ से ठठेरा ही पढ़ती रही. जिस पीढ़ी ने ठठेरा देखा उसने भी पढ़ा. जिस पीढ़ी ने ठठेरा सुना उसने भी पढ़ा. अब जिस पीढ़ी ने न ठठेरा सुना, न देखा वो भी ठ से ठठेरा पढ़ रही है. ये स्थिति तो शब्दों के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव करने जैसी है. आखिर ऐसे किसी शब्द की आवश्यकता ही क्या है जिसका परिचालन ही समाज में न हो रहा हो. कितनी बड़ी विडम्बना है कि समाज में कहीं ठठेरा दिख नहीं रहा इसके बाद भी पढ़ाया जा रहा है. आखिर भिश्ती नहीं दिखता सो पढ़ाया भी नहीं जा रहा. मसक नहीं दिखती सो उसे भी नहीं पढ़ाया जा रहा है. खेतों में रहट नहीं दिखाई देते इसलिए वे भी गायब हैं. भाषा में, शब्दों में ऐसे परिवर्तन होते रहने चाहिए. इससे शब्द-सम्पदा का विकास तो होता ही है, ज्ञान में भी समकालीनता आती है.

कुछ शब्द सामाजिक परिवर्तन के चलते अपने आप बदल गए. या कहें कि विकसित होकर आ गए. फटफटिया कब मोटरसाइकिल बनी और कब बाइक बनकर हमारे बीच दौड़ने लगी, पता ही नहीं चला. इसी तरह से तश्तरी गायब हो गई सिर्फ प्लेट बची. अम्मा गायब होकर मम्मी से मॉम हो गई. वैसे ये भी एक तरह का विकास है. इसमें कम से कम जो शब्द बोले जा रहे हैं, जिनके लिए बोले जा रहे हैं उनका कोई अस्तित्व तो है ही. ये कितना ख़राब है कि जिस शब्द के बारे में पढ़ रहे हैं वो अस्तित्व में ही नहीं है. उसका ओर-छोर ही नहीं है. ऐसे शब्दों का विलोपन करके नए-नए शब्दों को स्थापित करना चाहिए. ऐसे शब्दों को पढ़ना-पढ़ाना चाहिए जिनका कोई अस्तित्व हो. भाषा-वैज्ञानिकों को इस तरफ प्रयास करने चाहिए थे किन्तु नहीं किये.


एक व्यक्ति ने अपनी पूरी ताकत लगाकर ठ से ठठेरा के स्थान पर ठ से ठुल्ला को प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया है. ठुल्ला शब्द को ठलुआ अपभ्रंश मान सकते हैं अर्थात हिन्दी के क्रमिक विकास का अनुपालन करते हुए ही नए शब्द का निर्माण किया गया है. एक ऐसे शब्द को पुनर्जीवित किया गया है जिसका अस्तित्व समाज में मिलता है. इस शब्द-परिवर्तन पर उसका स्वागत होना चाहिए. यहाँ स्वागत के बजाय अदालत से नोटिस जारी हो रहे हैं. किसी की अस्मिता को ठेस पहुँच रही है. अब ठ से ठठेरा की जगह ठ से ठुल्ला पढ़ाया जाना चाहिए. इससे तमाम माता-पिता अपने बच्चों के उन सवालों की मार से बच सकेंगे जो ठठेरा को जानने के लिए उछालते थे. बच्चों को भी सहजता से ठ से ठुल्ला के बारे में बताया जा सकेगा, ठुल्ला के बारे में समझाया जा सकेगा. शाब्दिक सम्पदा के इस विस्तार को प्रोत्साहित करना चाहिए. आने वाले दिनों में हिन्दी वर्णमाला में ठ से ठठेरा की जगह ठ से ठुल्ला पढ़ने को मिले, यही कामना करते हैं. 

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

जूते की उछाल में छिपे सवाल भी उछल गए - व्यंग्य


जूता एक बार फिर उछला. जूते का निशाना एक बार फिर चूका. सवाल उठता है कि जूता अपने निशाने से क्यों भटक जाता है? सवाल ये भी कि या फिर जूते को लक्ष्य तक पहुँचाने वाले का मकसद सिर्फ जूता उछालना होता है? अब जूता उछला है तो लक्ष्य तक पहुँचना भी चाहिए. पहुँचता भी है मगर निरर्थक रूप से. न अपने लक्ष्य को भेदता है और न ही उछलने को सिद्ध करता है. वैसे जूते की उछाल राज्य स्तरीय होते-होते कब राष्ट्रीय से अंतर्राष्ट्रीय हो गई पता ही नहीं चला. इस वैश्विक छवि के बाद भी जूते की उछाल ने अपने मूल को नहीं छोड़ा. अपने राज्य स्तरीय स्वरूप को नष्ट नहीं होने दिया. वैसे जूते का उछलना बहुत कुछ कह देता है. 

प्रथम दृष्टया तो साफ समझ आता है कि आसपास कहीं चुनावी माहौल बन रहा है. एक बात ये भी हो सकती है कि जूते का उछलना सवालों का उछलना हो सकता है. इसके बाद भी हर बार बस जूता ही उछलता है, सवाल कहीं पीछे रह जाते हैं. सवालों के जवाबों को छोड़कर सब सामने आने लगता है. ये गलत है, लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हनन है. आखिर जूता उछालने वाले ने सिर्फ खबरों में आने के लिए तो जूता उछाला नहीं होगा? आखिर उसके जानबूझ कर निशाना चूकने या फिर धोखे से चूक जाने में भी कोई मामला छिपा होगा? इनको खबर बनाने के बजाय जूते को खबर बना दिया जाता है. और विडम्बना भी देखिये, उस जूते को खबर बना दिया जाता है जो अपने दूसरे साथी जूते से अलग हो गया. जो जूता अपने लक्ष्य से भटक गया. कम से कम एक बार उस निशानेबाज से भी जानकारी करनी चाहिए कि आखिर उसने जूते को उछालने का कृत्य क्यों किया? जो व्यक्ति उसके जूते का निशाना था वो किस लक्ष्य से भटका था? उछलने वाला जूता तुम्हारे अपने ही पैर का था या किसी और के पैर का था? 

जूते उछालबाज़ी की दुनिया में शायद ये सब निरर्थक सा लगे किन्तु अपने आपमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. आखिर यदि जो व्यक्ति निशाने पर था वो अपने लक्ष्य से भटका तो फिर निशानेबाज का निशाना क्यों चूका? यदि जूता अपने ही पैर का था तो फिर उस शिद्दत से क्यों नहीं उछला कि लक्ष्य से जा टकराता? यदि जूता उछालना महज प्रचार था तो फिर एक ही क्यों कई-कई जूते उछाले जा सकते थे? एक ही व्यक्ति पर क्यों कई-कई पर उछाले जा सकते थे? सिर्फ जूते ही क्यों? सिर्फ स्याही ही क्यों बहुत कुछ उछाला जा सकता था. चुनावी मौसम में ही जूते का उछलना क्यों? गौर से देखिये, तो ये सिर्फ जूता उछलने की क्रिया नहीं है वरन मानसिकता के उछलने की क्रिया है. लोकतान्त्रिक व्यवस्था के उछलकर गिरने की क्रिया है. जनतंत्र के जन से दूर होते जाने की प्रतिक्रिया है. काश कि अबकी जूता उछले तो निशाने पर लगे. काश कि अबकी जूता उछले तो सवालों को हल करता हुए उछले.

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

ब्याज पर बट्टा - व्यंग्य

‘माया महाठगिनी हम जानी’ के अमरघोष के बाद भी माया लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र सदैव बनी रही. इस मायामोह के चक्कर में लोग ज्यादा न फँसें, ज्यादा न बहकें इसके लिए समाज के ज्ञानी-ध्यानी बुजुर्गों ने ब्याज को हराम बताते हुए लोगों को इससे दूर रहने की सलाह दी. समाज ने इसे माना-स्वीकारा भी और एक लम्बे समय तक ब्याज के धन को अपनी-अपनी जेब से दूर रखा. परिवर्तन तो प्रकृति का सत्य है सो समाज में भी परिवर्तन दिखा. ज्ञानी बुजुर्ग लुप्त होते गए, ब्याज पाने की लालसा वाले जन प्रकट होते गए. ब्याज की रकम को वैधता प्रदान करने के लिए, उसके ऊपर से हराम की कमाई का काला ठप्पा हटाने का प्रयास किया गया. इस प्रयास में लोगों ने ‘मूल से अधिक सूद प्यारा होता है’ का नया नारा पेश किया. इस नारे को और भी व्यापक बनाने की नीयत ऊपर बैठे लोगों में भी दिखी. 

आखिर धन-लिप्सा तो उनके भीतर भी थी. सो जनता की चाहत और आकाओं की नीयत ने मिलकर एक नया रूप निर्माण किया. दीर्घ बचत, अल्प बचत, लघु बचत के नए-नए कलेवरों के माध्यम से ब्याज की रकम जेब के अन्दर करने का सर्व-स्वीकार्य कार्य नीचे से ऊपर तक किया गया. बुजुर्गों की नसीहत के अपराधबोध से निकल कर अब बचत के नाम पर ब्याज की रकम खूब अन्दर की जाने लगी. बचत की बचत, ब्याज का ब्याज, रकम पर रकम और कहीं से भी बिना मेहनत की कमाई का अपराधबोध भी नहीं. क्या खूब दिन थे, ‘पाँचों उँगलियाँ घी में और सर कड़ाही में’ था. 

तभी अचानक भूचाल सा आ गया. ज्ञानी-ध्यानी बुजुर्गों की आत्मा ने पुनर्जागरण किया. ब्याज दिए-लिए जाने में त्रुटिपूर्ण कृत्य दिखाई दिया. ऐसी आत्माओं ने तत्काल, विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए किसी भी रूप में जेब के अन्दर की जा रही ब्याज की कमाई पर अपना रोष प्रकट किया. प्राचीनता का अनुपालन करते हुए ब्याज को रोकने का उपक्रम शुरू किया. यद्यपि वे जनभावनाओं को समझते थे तथापि एकदम से कुल्हाड़ी न चलाते हुए महीन से कैंची चला दी. ऐसी कैंची, जिससे जेब भी न कटे और ब्याज की रकम भी पूरी न मिले. इधर लोग ब्याज की रकम से मौज मनाने के मूड में थे उधर बुजुर्गियत भरी आत्माओं ने विकास-विकास कहते हुए रंग में भंग कर दिया. 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

जय हो बाबा वेलेंटाइन की



वेलेंटाइन डे वाली सुहानी नाईट का आनंद अब ख्वाबों में लिया जा रहा था. एकाएक बज उठती मोबाइल की तेज घंटी ने रोमांसपूर्ण खुमारी में व्यवधान डाला. दूसरी तरफ से माधुर्य में लिपटी आवाज़ ‘क्यों जी, शादी कब करोगे?’ सुनकर दिमाग चकरा गया. देह के समस्त तंतु जागृत अवस्था में आ गए. प्रेम-प्यार से बीते एक सप्ताह की सुखद परिणति हो भी न पाई थी कि ये मोहतरमा शादी तक पहुँच गईं. कैसी वेलेंटाइन मिली, जो प्रेम का सुख भोगे बिना उसे शादी के जंजाल में मिटाना चाहती है. एक पल में विगत सप्ताह का सुहाना सफ़र आँखों के सामने घूम गया. गुलाब के लेने-देने से शुरू हुई प्रेम-कहानी चॉकलेट की मिठास, टैडी की कोमलता का एहसास कराने लगी. 

उसी एहसास में एकदम सोचा प्रेम-खुमारी में कहीं ‘प्रपोज डे’ पर शादी जैसा कोई वादा तो नहीं कर बैठे थे. फिर याद आया कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं किया था. सब कुछ बराबर याद है, यदि प्रेम में गोते लगाना याद था तो जेब का लगातार हल्का होते जाना भी याद था. और तो और ‘हग डे’ तक में, जहाँ कि सिर्फ गले लगना-लगाना था, उस दिन भी जेब ढीली हो गई थी. चूँकि साप्ताहिक प्रेम कहानी की बात थी, सो एक-एक दिन पर्स को लगातार हल्का करवाते हुए हमारी प्रेमयात्रा वेलेंटाइन डे के मुहाने ले जा रहे थे. एक कॉल पर जहाँ बीते सात दिनों का रोमांस याद आया वहीं भविष्य में रोमांस के फुर्र होने की भयावहता भी दिख गई थी. शादी, बच्चे, सब्जी-भाजी, रोज की झिक-झिक और भी न जाने क्या-क्या. 

‘क्या हुआ, कुछ बोलते क्यों नहीं’ जैसा थोड़ा तेज सा स्वर दूसरी तरफ से फिर उभरा. सामने वाली मैडम जी से क्या बोलते, कि अभी हम शादी के मूड में नहीं हैं, आज तो पोस्ट-वेलेंटाइन डे मनाने के मूड में हैं. समझ नहीं आ रहा था कि ये प्रेम में शादी कहाँ से बीच में आ गई. इस धर्मसंकट की स्थिति में फिर से बाबा वेलेंटाइन याद आये. याद आये उनके नाम पर बाज़ार द्वारा बनाये सात दिन और ये भी याद आया कि कहीं एक भी दिन शादी के लिए नहीं है. सीधा सा मतलब था कि वेलेंटाइन पर सबकुछ करो, बस शादी न करो. पूरी तरह से अपने को बाबा वेलेंटाइन की शरण में धकेलकर हमने ‘हैल्लो, हैल्लो, जोर से बोलो, आवाज़ नहीं आ रही, दोबारा मिलाओ’ जैसे छोटे-छोटे वाक्यों का सहारा लेते हुए मोबाइल स्विचऑफ किया. 

इसके बाद पहले तो मोबाइल कंपनी के आये दिन बनते-बिगड़ते नेटवर्क को धन्यवाद दिया और फिर बाबा वेलेंटाइन को धन्यवाद दिया, जिन्होंने प्रेम-रोमांस के लिए सात दिनों का निर्धारण बाज़ार के हाथों अवश्य करवा दिया किन्तु किसी भी रूप में शादी वाला दिन फिक्स न करवा कर न जाने कितनी प्रेम-गाथाओं को असमय सूखने से बचा लिया. जय हो बाबा वेलेंटाइन का जयकारा लगाकर हम फिर वेलेंटाइन की खुमारी में डूब गए.
 

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

भ्रूण लिंग बताना कन्या भ्रूण हत्या रोकने का उपाय नहीं

कन्या भ्रूण हत्या के समाधान हेतु केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने गर्भस्थ शिशु के लिंग की जाँच करने और बताने वाला बयान दिया. उनका कहना है कि प्रत्येक गर्भवती महिला का पंजीकरण करने और गर्भ के शिशु का लिंग बता देने से कन्या भ्रूण हत्या मामलों में कमी आएगी. पंजीकृत गर्भवती महिला की जाँच की जा सकेगी कि उसने बच्चे को जन्म दिया अथवा नहीं. यकीनन केन्द्रीय मंत्री ने ऐसा बयान किसी विवाद के लिए नहीं दिया होगा किन्तु ये भी सत्य है कि महज इससे कन्या भ्रूण हत्या रुकने वाली नहीं है. इससे इंकार नहीं किया का सकता कि यदि प्रत्येक गर्भवती महिला का पंजीकरण हो जाये तो उसके बाद सहजता से ज्ञात किया जा सकता है कि जन्म लेने वाला शिशु बालक है अथवा बालिका किन्तु इसके लिए गर्भस्थ शिशु का लिंग बताना किसी भी रूप में समस्या का हल नहीं है.

समाज में कन्या भ्रूण हत्या वंश-वृद्धि की संकल्पना, मोक्ष-प्राप्ति की अवधारणा, बेटों द्वारा मुखाग्नि देने की रूढ़िवादिता, इक्कीसवीं सदी में भी बेटों को बेटियों के अनुपात में वरीयता देने की मानसिकता के कारण हो रही है. इसी कारण लिंगानुपात में जबरदस्त अंतर दीखता है. छह वर्ष तक की बच्चियों की संख्या वर्ष 2011 की जनगणना में 927 (प्रति हजार पुरुषों पर) थी वो 2011 में घटकर 914 रह गई है. यहाँ हमें ये ध्यान रखना होगा कि यही बेटियाँ भविष्य की माताएँ हैं. बेटे की चाह में लोग पीसीएनडीटी अधिनियम के प्रावधानों का दुरूपयोग करते हुए गर्भस्थ शिशु की लिंग जाँच करवा रहे हैं, बेटियों की हत्या गर्भ में करवा रहे हैं तो इसकी गारंटी कौन लेगा कि बैठे-बिठाये कानूनी रूप से लिंग ज्ञात होने के बाद ऐसे लोग बालिका शिशु को गर्भ में समाप्त नहीं करेंगे? ऐसी आपराधिक प्रवृत्ति के लोग पीसीपीएनडीटी अधिनियम की आड़ लेकर समाज में कन्या भ्रूण हत्या का घिनौना कारोबार संचालित किये हुए हैं. पीसीपीएनडीटी अधिनियम में कुछ विशिष्ट उद्देश्यों यथा गुणसूत्रों की असमानता, आनुवांशिक, शारीरिक, लिंग सम्बन्धी बीमारियों, जन्मजात विकलांगता आदि को ज्ञात करने के लिए प्रसव पूर्व जाँच की अनुमति मिली है. इसके साथ-साथ मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट ऑफ़ प्रेगनेंसी (एमटीपी) 1971 में वर्णित प्रावधानों, जैसे किसी पंजीकृत चिकित्सक द्वारा निर्देशित होने पर, गर्भवती स्त्री की जान को खतरा होने पर, गर्भस्थ शिशु के विकलांग होने की आशंका पर, बलात्कार के कारण गर्भ ठहरने पर, पति-पत्नी द्वारा अपनाये गर्भ निरोधक उपायों के असफल होने पर गर्भपात करवाया जा सकता है. शरीर की आंतरिक बीमारियों की जानकारी के लिए बनाई गई अल्ट्रासाउंड मशीन तथा अधिनियम में वर्णित सकारात्मक प्रावधानों का दुरुपयोग समाज में कन्या भ्रूण हत्या के लिए किया जाने लगा.

ऐसे में केन्द्रीय मंत्री की सोच से कन्या भ्रूण हत्या रुकेगी एक कल्पोल कल्पना ही लगती है. जो लोग बेटियों को जन्म नहीं देना चाहते हैं वे मेडिकल टर्मिनेशन एक्ट ऑफ़ प्रेगनेंसी (एमटीपी) 1971 में वर्णित प्रावधानों का सहारा लेकर गर्भस्थ बालिका को समाप्त करवा देंगे. ऐसे लोग और ऐसे कार्यों में संलिप्त चिकित्सक आसानी से प्रमाणित कर देंगे कि गर्भवती स्त्री की जान को खतरा होने अथवा गर्भस्थ शिशु के विकलांग होने की आशंका के चलते गर्भपात करवाया गया है? इसके अलावा वर्तमान जीवनशैली, कार्यशैली, स्वास्थ्य सेवाओं की समुचित व्यवस्था न होने आदि से स्वतः गर्भपात (जिसे गर्भ-विफलता अर्थात मिसकैरिज कहा जाता है) भी हो जाता है. गर्भवती महिलाओं के खेतों में काम करने, कामकाजी महिलाओं को अवकाश न मिलने, गर्भावस्था के दौरान अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में आने-जाने, शारीरिक बनावट, अंदरूनी परेशानियों के चलते भी स्वतः गर्भपात हो जाता है. ऐसे में इसकी जाँच कौन करेगा कि सम्बंधित मामला गर्भ-विफलता का है अथवा कृत्रिम गर्भपात का? ऐसे में गर्भस्थ शिशु का लिंग ज्ञात हो जाने के बाद ये आशंका और प्रबल है कि गर्भवती महिलाओं को बेटी न जन्मने के लिए उन्हें बाध्य करते हुए औषधीय प्रयोग के द्वारा अथवा किसी अन्य विधि से उनका गर्भपात करवा दिया जाये. ऐसी कुप्रवृत्ति के लोग ऐसी घटनाओं में लिप्त चिकित्सकों से गर्भपात आनुवंशिक, असामान्य क्रोमोजोम, इम्यूनोलॉजिकल डिसऑर्डर, एनाटॉमिक, बैक्टीरिया-वायरस के इन्फेक्शन, एंडोक्राइन आदि के कारण होना साबित करवा सकते हैं.

वर्तमान में परिस्थितियां ऐसी हैं कि कानूनी उपायों से ज्यादा सामाजिक जागरूकता ही प्रभावी होगी. लोगों का अपनी सोच को बदलना ही ज्यादा उपयुक्त होगा. घर-परिवार के लोगों को समझाए जाने की आवश्यकता है, समाज की स्थापित महिलाओं को रोल-मॉडल बनाकर सामने लाने की आवश्यकता है. बेटियों के प्रति सकारात्मक सोच को बचपन से ही जगाने की आवश्यकता है. संवेदनशीलता बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसे नियमों, कानूनों आदि को प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक पाठ्यक्रम बनाये जाने की जरूरत है. लोगों को समझाना होगा कि चिकित्सा विज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि लगातार होते गर्भपात से महिला के गर्भाशय पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और इस बात की भी आशंका रहती है कि महिला भविष्य में गर्भधारण न कर सके. पुत्र की लालसा में बार-बार गर्भपात करवाते रहने से गर्भाशय के कैंसर अथवा अन्य गम्भीर बीमारियाँ होने से महिला भविष्य में माँ बनने की अपनी प्राकृतिक क्षमता भी खो देती है. परिणामतः वह आने वाले समय में परिवार के लिए न तो पुत्र ही पैदा कर पाती है और न ही पुत्री. इसके साथ-साथ हमारी सजगता से ऐसे अपराधों पर बहुत हद तक नियंत्रण लगाया जा सकता है. हम अपने आसपास की, पड़ोस की, मित्रों-रिश्तेदारों की गर्भवती महिलाओं की जानकारी रखें, उनके बच्चे के जन्मने की स्थिति को स्पष्ट रखें. यदि कोई महिला गर्भवती है तो उसको प्रसव होना ही है (मिसकैरिज न होने पर) इसमें चाहे बेटा हो या बेटी. इधर देखने में आया है कि मोबाइल मशीन के द्वारा निर्धारित सीमा का उल्लंघन करके भ्रूण लिंग की जाँच अवैध तरीके से की जा रही है. हम जागरूकता के साथ ऐसी किसी भी घटना पर, मशीन पर, अपने क्षेत्र में अवैध रूप से संचालित अल्ट्रासाउंड मशीन की पड़ताल भी करते रहें और कुछ भी संदिग्ध दिखाई देने पर प्रशासन को सूचित करें. इसी के साथ-साथ जन्मी बच्चियों के साथ होने वाले भेदभाव को भी रोकने हेतु हमें आगे आना होगा. उनके खान-पान, रहन-सहन, पहनने-ओढ़ने, शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य-चिकित्सा आदि की स्थितियों पर भी ध्यान देना होगा कि कहीं वे किसी तरह के भेदभाव का, दुर्व्यवहार का शिकार तो नहीं हो रही हैं।


जनसहयोग के साथ-साथ प्रशासन को सख्ती से कार्य करने की जरूरत है. सरकारी, गैर-सरकारी चिकित्सालयों में इस बात की व्यवस्था की जाये कि प्रत्येक गर्भवती का रिकॉर्ड बनाया जाये और उसे समय-समय पर प्रशासन को उपलब्ध करवाया जाये. नौ माह बाद प्रसव न होने पर उसकी जाँच हो और सम्पूर्ण तथ्यों, स्थितियों की पड़ताल की जाये. यदि किसी भी रूप में भ्रूण हत्या जैसा आपराधिक कृत्य सामने आता है तो परिवार-डॉक्टर को सख्त से सख्त सजा दी जानी चाहिए. ऐसे परिवारों को किसी भी सरकारी सुविधा का लाभ लेने से वंचित कर दिया जाये, चिकित्सक का लाइसेंस आजीवन के लिए रद्द कर दिया जाये, ऐसे सेंटर्स तत्काल प्रभाव से बंद करवा दिए जाएँ और दंड का प्रावधान भी साथ में रखा जाये. यदि इस तरह के कुछ छोटे-छोटे कदम उठाये जाएँ तो संभव है कि आने वाले समय में बेटियाँ भी समाज में खिलखिलाकर अपना भविष्य संवार सकती हैं.

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उक्त आलेख जन्संदेश टाइम्स, दिनांक - 05-02-2016 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया.

शनिवार, 30 जनवरी 2016

तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त

बचपन से साथ निभाती चली आई स्याही के कार्यों पर हमेशा से गर्व का अनुभव होता रहा है. स्याही जैसी बहुआयामी प्रतिभा को हमने न तो बचपन में नियंत्रित रखा और न ही कभी उसके बाद. कुछ लोगों का मानना है कि स्याही का काम सिर्फ और सिर्फ लेखन के लिए होता रहा है, अब वो भी गुजरे ज़माने की बात हो गई. हमने तो एक पल को भी ऐसा विचार नहीं किया. बचपन से ही स्याही के बहुआयामी व्यक्तित्व को पहचान कर उसको विभिन्न तरीके से अपने उपयोग में लाते रहे थे, आज भी ला रहे हैं. ऐसे में कोई स्याही के बारे में अनर्गल कुछ भी कह दे, गुजरे ज़माने का बता दे तो बहुत कोफ़्त होती है. इसके साथ-साथ एक अजब समस्या से भी सामना करना पड़ जाता है. जब भी स्याही लेने के लिए बाज़ार जाओ या फिर नया फाउंटेनपेन माँगो तो दुकानदार अजब भाव-भंगिमा के साथ ऐसे देखता है जैसे किसी दूसरे ग्रह का प्राणी देख लिया हो. ऐसे देखेगा जैसे ऐसी चीज माँग ली जो अब इस धरती पर उपलब्ध ही नहीं है. कई बार तो ऐसा देख-सुनकर अपराध-बोध जैसा, हीनता-बोध जैसा महसूस होने लगता है, मानो स्याही माँग कर खुद के पिछड़े होने का सबूत दे दिया हो.

बहरहाल, लोगों को स्याही पर हीनता का बोध क्यों न आता रहा हो मगर हमें तो उसके मल्टीडाइमेंशनल होने पर गर्व रहा है. जब भी इच्छा होती उसी स्याही से चित्रकारी करने लग जाते. कभी कागज़ पर, कभी दीवार पर तो कभी कपड़ों पर. इसी तरह जब मन किया तो उसी स्याही से होली का आनंद उठा लिया. सोते में घर-परिवार में भाई-बहिनों की दाढ़ी-मूँछें उगानी हों तो स्याही को याद कर लिया. इसके अलावा घर के कई कामों में भी स्याही की प्रतिभा का उपयोग कर लिया जाता, कभी निशान लगाने के काम, कभी कांच के बर्तनों में भरकर शो-पीस बनाए जाने के काम. हालाँकि अब तो मॉडर्न तरीके के बॉलपेन, रीफिल आने से स्याही की माँग में घनघोर गिरावट देखने को मिली है. अब तो बच्चे उस होली से वंचित रह जाते हैं जो उस प्रिय स्याही के बल पर कभी भी खेली जाने लगती थी.

इधर कुछ समय से भला हो उन नवोन्मेषी राजनैतिक परिवर्तकों का, जिन्होंने स्याही-प्रेमियों के मन में उपजती हीनभावना को भी दूर कर दिया. अब तो जब मर्जी होती है, वे लोग भी हमारे बचपने की तरह होली खेलने में लग जाते हैं. ये और बात है कि इनकी होली में स्याही के रंग का उतना तीखापन नहीं दिखता है जैसा कि हमारे बचपने की होली में होता था किन्तु चेहरे पर, दाढ़ी पर, गाल पर, हाथ पर स्याही के चंद छींटे ही अपनी निशानी को पर्याप्त पुख्ता बनाते हैं. इनकी इस फेंकमफाकी राजनीति से बाज़ार में स्याही का रुतबा एकदम बुलंद हो गया. हमें अपनी स्याही पर गर्व हो रहा है कि भले ही कोई राजनैतिक कारण रहा हो मगर उसने बड़ों-बड़ों को भी उसका साथ लेने को मजबूर कर दिया. गर्व इस कारण से भी हो रहा है कि अब स्याही मांगने पर दुकानदार हमें पिछड़ा नहीं कहेगा, हमें आदिकालीन सभ्यता का प्राणी नहीं समझेगा, हमारी बहुआयामी व्यक्तित्व स्याही को बिसरायेगा नहीं. उधर टीवी पर वे स्याही से रँगा चेहरा साफ़ करते दिखाए जा रहे हैं, इधर हमारा दिल स्याही के अनगिनत कार्यों को याद करते हुए मन ही मन गाना गुनगुनाने लगा कि तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त.


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ये व्यंग्य जन्संदेश टाइम्स, 30-01-2016 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है...

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

सूचना का अधिकार का उपयोग सार्थक और सकारात्मक तरीके से हो

सूचना का अधिकार का उपयोग सार्थक और सकारात्मक तरीके से हो

          इक्कीसवीं सदी के डेढ़ दशक गुजर जाने के बाद भी बहुतायत देशवासी अभी भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के सार्थकतापूर्ण पालन करने की मानसिकता को विकसित नहीं कर सके हैं. आज भी सुविधाओं, अधिकारों, नियमों का निरंकुश ढंग से उपयोग किया जाने लगता है. उपयोग की इसी स्वतंत्रता, अधिकारों की निरंकुश आज़ादी के चलते बहुधा अतिक्रमण भी कर लिया जाता है. आजकल ऐसा ही सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के साथ किया जा रहा है. सरकारी तंत्र से जानकारी लेने की, गोपनीयता के नाम पर छिपाकर रखी जानकारी को प्राप्त कर लेने की स्वतंत्रता का उपयोग सकारात्मक रूप से जितना होना चाहिए था उससे कहीं अधिक उसका उपयोग नकारात्मक रूप में किया गया. पीएमओ कार्यालय के आरटीआई विभाग के अधिकारियों के अनुसार वर्ष 2015 में लगभग तेरह हजार आरटीआई आवेदन प्राप्त हुए, जिनमें बहुतायत में ऐसे रहे जिनका पीएमओ से कोई लेना-देना भी नहीं था. इसके बाद भी वहाँ के आरटीआई विभाग को अधिनियम की बाध्यता के चलते उनका जवाब देने को मजबूर होना पड़ा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कब-कब रोजा-इफ्तार पार्टी में गए? उनका संविधान ज्ञान कितना, कैसा है? उनकी रसोई में कौन सा एलपीजी सिलेंडर प्रयोग होता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बायोडाटा, उनका फोटो, उनका मोबाइल नंबर तक आरटीआई आवेदन द्वारा माँगा गया. स्पष्ट है कि इस तरह की जानकारियों के लिए आरटीआई का प्रयोग किया जाना कहीं न कहीं इस सशक्त अधिनियम को कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम समझा जा सकता है.

कुछ इसी तरह की सूचनाओं की प्राप्ति के आवेदनों के चलते, इस अधिनियम के दुरुपयोग को देखते हुए हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने सूचनाओं की प्राप्ति के लिए संशोधन प्रस्तुत किये हैं. इसके अंतर्गत प्रदेश सरकार ने सूचना प्राप्त करने सम्बन्धी अनुरोध की शब्द-सीमा निर्धारित करते हुए पाँच सौ शब्द निर्धारित कर दी है. माँगी गई सूचना सम्बंधित लोक प्राधिकारी द्वारा रखे गए या उसके नियंत्रणाधीन अभिलेखों का एक भाग होनी चाहिए. इसके साथ-साथ माँगी गई सूचना में प्रश्न ‘क्यों’ जिसके माध्यम से किसी कार्य के किये जाने अथवा न किये जाने के औचित्य की माँग की गई हो, का उत्तर दिया जाना अंतर्ग्रस्त नहीं होना चाहिए; माँगी गई सूचना में काल्पनिक प्रश्न का उत्तर प्रदान करना अंतर्ग्रस्त नहीं होना चाहिए; माँगी गई सूचना इतनी विस्तृत नहीं होनी चाहिए कि उसके संकलन में संसाधनों का अननुपाती रूप से विचलन अंतर्ग्रस्त हो जाने के कारण सम्बंधित लोक प्राधिकारी की दक्षता प्रभावित हो जाये. इससे भी आगे जाते हुए प्रदेश सरकार ने सूचना प्राप्ति के लिए एक अधिकृत प्रारूप का निर्माण भी किया है, भविष्य में अब उसी प्रारूप में सूचना माँगना अनिवार्य किया गया है. कुछ वर्ष पूर्व इस तरह के संशोधन कर्नाटक, महाराष्ट्र सरकारों द्वारा किये जा चुके हैं.

          देखा जाये तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में स्वतन्त्रता के अधिकार का हवाला देते हुए इस गोपनीयता कानून को समाप्त करने की, इसमें व्यापक फेरबदल करने की वकालत की जाने लगी थी. देश के विभिन्न आयोगों, संस्थाओं और विभागों आदि की ओर से भी इस कानून में बदलाव की सिफारिश की गई. प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग 1968, भारतीय विधि आयोग 1971, भारतीय प्रेस परिषद् 1981, द्वितीय प्रेस आयोग 1982 आदि ने समय-समय पर गोपनीयता कानून में व्यापक संशोधन की बात को उठाया. वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्रसंघ की आमसभा में सन् 1946 में एक प्रस्ताव में कहा गया कि सूचना का अधिकार मनुष्य का बुनियादी अधिकार है तथा यह उन सभी स्वतन्त्रताओं की कसौटी है, जिन्हें संयुक्त राष्ट्रसंघ ने प्रतिष्ठित किया है. इसी तरह सन् 1948 में अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने घोषणा की कि जानकारी पाने की इच्छा रखना, उसे प्राप्त करना तथा किसी माध्यम द्वारा जानकारी एवं विचारों को फैलाना मनुष्य का मौलिक अधिकार है. इन समवेत प्रयासों का सकारात्मक परिणाम यह रहा कि हमारा देश सूचना का अधिकार लागू करने वाला दुनिया का 61वां देश बना. केन्द्रीय स्तर पर मार्च 2005 को एक प्रस्ताव संसद में पेश किया गया और उसी वर्ष 12 मई को राज्यसभा में इसे पारित करने के साथ ही 12 जून 2005 को राष्ट्रपति ने स्वीकृति दे दी.

सूचनाधिकार का उपयोग केवल किसानों, मजदूरों, राशनकार्ड, मस्टररोल, वेतन भुगतान तक ही सीमित नहीं रह गया था. जागरूक संस्थाओं, जनता ने इस अधिकार का प्रयोग करके शासन-प्रशासन के कार्यों में अनियमितताओं, कमियों, भ्रष्टाचार को उजागर किया. सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली में भ्रष्टाचार के उजागर होने के साथ ही मंत्रालयों के कार्यों में अनियमितताओं का मिलना, मंत्रियों द्वारा की जा रही विसंगतियों का पाया जाना भी प्रमुख रहा है. इन सफलताओं के बाद भी अधिनियम की विगत एक दशक की यात्रा में केन्द्रीय सरकार द्वारा तीन बार संशोधन के प्रयास करना अपनी तरह की कहानी कहता है. ये और बात है कि आरटीआई कार्यकर्ताओं के विरोध और अन्य कारणोंवश केन्द्रीय सत्ता द्वारा अधिनियम में संशोधन नहीं किये जा सके हैं किन्तु जिस तरह से आये दिन आरटीआई के दुरुपयोग किये जाने की घटनाएँ सामने आ रही हैं वो अपने आपमें चिंता का विषय है. बहुतायत में ऐसे मामले प्रकाश में आये हैं जिनसे ज्ञात हुआ कि कथित तौर पर आरटीआई कार्यकर्ताओं द्वारा सूचनाएँ मांगे जाने के नाम पर आवेदन करने के बाद सम्बंधित विभाग से, अधिकारियों से लेन-देन करके मामले को दबा दिया गया. ऐसे मामलों और सरकारी भ्रष्टाचार के लगातार उजागर होते जाने के चलते आरटीआई सरकार के गले की फाँस बनता जा रहा है. ऐसे में सरकारी तंत्र द्वारा अधिनयम की विसंगतियों के नाम उसे कमजोर करने के अवसर तलाश रही है और अधिनियम का दुरुपयोग करने वाले बेतुकी, अतार्किक, असंगत सूचनाओं की माँग करके सरकार को संशोधन करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाते जा रहे हैं.

सत्य तो यह है कि सूचना का अधिकार एक ऐसा वरदान है जिसके पूर्ण रूप से सफल होने के लिए हम सभी को संगठित होने की आवश्यकता है. सामाजिक संगठनों को, जागरूक नागरिकों को इस ओर सकारात्मक, सार्थक कार्य करने की आवश्यकता है. सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 भारतीय नागरिकों के हाथों में व्यापक अधिकारों को सौंपता है. यदि देश की कार्यपालिका के पास शासकीय गोपनीयता कानून है, विधायिका के पास संसदीय विशेषाधिकार है, न्यायपालिका के पास न्यायालय की अवमानना सम्बन्धी कानून है तो भारतीय नागरिकों के पास कारगर और अचूक अधिकार सूचना का अधिकार है. इस अधिकार को बचाए-बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि आरटीआई से जुड़े लोग इसके सदुपयोग को लेकर, इसकी सार्थकता को लेकर, इसकी सकारात्मकता को लेकर भी सजग रहें अन्यथा वो दिन दूर नहीं जबकि सरकार इसकी विसंगतियों को दूर करने के नाम पर आम आदमी के अधिकार को कमजोर कर देगी. 



उक्त आलेख दिनांक 19.01.2016 के जन्संदेश टाइम्स में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.