माँ अपने दोनों बच्चों का लगातार भूख से रोना नहीं देख सकी। एक को उठा कर अपने सूख चुके स्तन से लगा लिया, किंतु हड्डियों से चिपक चुके माँ के मांस से ममत्व की धार न बह सकी, क्षुधा शांत न हो सकी। भूख की व्याकुलता से परेशान बच्चे रोते ही रहे। भूखे बच्चों को भोजन देने में असमर्थ माँ ने अंततः कुछ देने का विचार बनाया। सामर्थ्य जुटा कर चूल्हे की लकडियों में आग लगा कर उस पर पतीली चढा दी और पानी दल कर चम्मच से चलाने लगी। एक धोखा देने के बाद बच्चों को एक और धोखा; भूख को मिटाने के लिए महज धोखा। खौलते पानी के उठते धुएं से बालमन कुछ तसल्ली खाने लगा। धोखे के भोजन में तसल्ली का स्वाद; फ़िर भी बच्चे रो-रो कर थक गए। माँ एक हाथ से पतीली के खौलते पानी को चम्मच से चलाती रही और दूसरे हाथ से गोद में लुढ़क चुके दोनों बच्चों को थपकी देती रही। धीरे-धीरे दोनों बच्चे गहरी निन्द्रा की आगोश में चले गए किंतु माँ का चम्मच चलाना जारी रहा। इस लालच से कि.......शायद पतीली की आवाज़ बच्चों को अचेतन में ही भोजन का स्वाद दिलाती रहे; वह एक धोखा ही खिलाती रही और बच्चे एक और रात ऐसे ही भूखे पेट चैन से सोते रहे।
(स्पंदन "बुन्देलखण्ड विशेष" में प्रकाशित, कुमारेन्द्र द्वारा लिखित)
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