बुधवार, 16 जुलाई 2008

धुंध में एक किरण

कहानी का एक भाग आपने अभी तक पढ़ा, अब आगे..............

घडी की तरफ़ देख कर डॉक्टर साहिबा ने दोनों को तीन बजे का समय दिया और हिदायत दी-"देखो, कुछ नियमों के कारण यह नहीं बताया जा सकता कि पेट में लड़का है या लड़की........." बात समाप्त होने के पहले ही पति-पत्नी के मुंह से एक साथ निकला,"फ़िर।" "कुछ नहीं, जो रिपोर्ट तुम लोगों को मिलेगी उसी से तुम लोग समझ लेना. यदि लिफाफे का रंग हरा हो तो लड़का और यदि लाल हो तो समझना लड़की, ठीक. और हाँ, यहाँ किसी से चर्चा न करना कि इस काम के लिए आए हो." डॉक्टर ने अपना पक्ष साफ रखने की दृष्टि से दोनों को समझाया. दोनों बिना कुछ कहे डॉक्टर की अन्य हिदायतों का पालन करते हुए बहार बैठ कर तीन बजे का इंतजार करने लगे.

कुछ देर तक रामनरेश और पार्वती खामोशी का दामन थामे बैठे रहे फ़िर बड़े धीमे स्वर में पार्वती ने पूछा-"यदि मोंडी भी तो...?" रामनरेश ने कोई जवाब नहीं दिया, बस खामोशी से पार्वती को देखता रहा। वह ख़ुद नहीं सोच पा रहा था कि यदि लड़की हुई तो क्या करेगा? ऐसा नहीं है कि वह अपनी दोनों बेटियों को चाहता नहीं है, पर मन में दबी लड़का पाने की लालसा, माँ की मरने से पहले नाती का मुंह देखने की इच्छा, वंश वृद्धि की भारतीय सामाजिक सोच के आगे शायद वह भी नतमस्तक हो गया है.

"बाद में देखहैं कि का करनें है?" कह कर रामनरेश ने पार्वती को किसी और सवाल का मौका नहीं दिया। विचारों की श्रृंखला मन-मष्तिष्क को खंगाले ड़ाल रही थी. टी वी पर लड़कियों की सफलता की कहानी कहते कार्यक्रम, गाँव में संस्थानों द्वारा बेटियों के समर्थन में किए जाते नाटकों, कार्यक्रमों के चित्र उसके दिमाग में बन-बिगड़ रहे थे. सामाजिक अपराध, कानूनी अपराध, सजा, जुरमाना आदि शब्दावली परेशान करने के साथ-साथ उसे डरा भी रही थी. पार्वती को होने वाले नुकसान, किसी अमंगल से वह भीतर ही भीतर कांप जाता. पार्वती का मन भी शांत नहीं था. अपने पेट में पल रहे बच्चे का भविष्य मशीन द्वारा तय होते देख रही थी. कभी उसे लगता कि पेट में पल रहा बच्चा रो रहा है, कभी लगता कि उसकी दोनों बेटियाँ फ़िर उसकी कोख में आ गईं हैं और वह अपने हाथों से उनका गला घोंट रही है. घबरा कर वह अपना हाथ पेट पर फिराने लगती है. दोनों चुपचाप. खामोशी से मन ही मन गाँव के, घर के तमाम देवी-देवताओं का स्मरण करते मना रहे थे कि पेट में लड़का ही हो ताकि किसी तरह के अपराध से दोनों को गुजरना न पड़े. ऊहापोह में, विचारों के सागर में डूबते-उतराते, उनदोनों ने घड़ी में तीन से भी अधिक का समय देखा तो रामनरेश ने उठा कर टहलना शुरू कर दिया. थोडी देर में एक औरत ने आकर पार्वती को पुकारा. "हूँ" कह कर पार्वती खडी हो गई, रामनरेश भी पास में आ गया. उस औरत ने रामनरेश को वहीँ रुकने को कहा और पार्वती को लेकर हॉल के दूसरे किनारे बने कमरे में ले गई.

आज कहानी का इतना भाग, कुछ भाग कल............तब तक नमस्कार.

2 टिप्‍पणियां:

Noida Press Club ने कहा…

दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

KK Yadava ने कहा…

Badi khubsurati se likh rahe hain ap, jari rakhen...Badhai !!