मंगलवार, 3 मार्च 2009

आज का युवा

शाम होते ही होने लगते हैं जमा,
कुछ युवा
सड़क के किनारे बनी
चाय व पान की दुकान पर
क्योंकि वे सड़क के दूसरे छोर पर
बने मकानों के
सुंदर मुखड़ों के दर्शनार्थ
यहाँ आते हैं,
और इस प्रकार
अपनी अतृप्त आशाओं, इच्छाओं को
अपनी आँखों के सहारे मिटाते हैं।
एक नियम की भाँति हर शाम
यहाँ जमा होने का क्रम।
अपने अधगले विचारों का प्रदर्शन,
इसके साथ ही
उड़ने लगते हैं धुँए के गुबार,
लगने लगते हैं कहकशे
बिना बात बार-बार।
उन्हें नहीं मालूम होता है
इतिहास अपने देश का,
भविष्य अपने वर्तमान का,
पर...............
वे जानते हैं, रखते हैं
सामने वालों के
एक-एक पल का हिसाब।
सुबह उठने तलक से सोने तक का हिसाब,
कालेज आने जाने से लेकर
बाजार हाट तक का समाचार।
कभी सामने देख कर बस एक ही झलक,
संवारने लगते हैं
अपने बाल,
गले में बँधे रूमाल,
और रंग-बिरंगी पोशाकों के पीछे से
जाहिर करते हैं
अपने होने की बात।
रहती है कोशिश उनकी
अपने बेढंगे हावभाव के द्वारा
सामने दिखते कुछ विपरीत ध्रुवों को
आकर्षित करने की।
अपनी इस विकृत छवि के सहारे,
उनसे मेलजोल बढ़ाने की।
पर इस क्रियाकलाप में
यह भूल जाते हैं कि
कहीं दूर सड़क के किनारे
बना है......
उनका भी घर.......
उन्हीं की तरह के कुछ रंगीन युवा
लगा रहे होंगे
उसका चक्कर।

18 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

वाह !! यथार्थ का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है आपने...अंतिम लाइन पञ्च लाइन है....यह यदि सब दिमाग में रखेंगे,तो समाज में बड़ी शांति रहा करेगी.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत ही अच्छी रचना .......

गिरीश बिल्लोरे ने कहा…

Vah Sahee Chitr

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह

आर.आर.अवस्थी ने कहा…

zindagi se judi rachna. bahut sundar.

Prem Farrukhabadi ने कहा…

पर इस क्रियाकलाप में
यह भूल जाते हैं कि
कहीं दूर सड़क के किनारे
बना है......
उनका भी घर.......
उन्हीं की तरह के कुछ रंगीन युवा
लगा रहे होंगे
उसका चक्कर।

आइना दिखा रही आपकी रचना . बधाई

पी.सी.गोदियाल ने कहा…

बहुत खूब डॉक्टर साहब !
वो कहावत है न कि दूसरे के घरो पर पत्थर फेंकने वाले अक्सर ये भूल जाया करते है कि उनके भी खुद के घर शीशे के ही है !

श्याम सखा 'श्याम' ने कहा…

शोहदों को सामने ला खड़ा किया डा० साहिब ऐसे लग रहा है कि दृष्य सामने ही दिख रहा है
आजकल जेनेवा मे हूं ३ महीने के लिये
मौसम स्त्री पुरूष बच्चे सभी खूबसूरत मगर जो भारतीय चित्र आपने खींचा वह नदारद,शान्त इतना कि२० दिन में कार के हार्न की आवाज भी नहीं सुनी जबकि रिहाइश मेन हाइवे पर है
बाज़ार घूमते भी कोई हार्न नहीं,पार्क मे घर के सामने वाले पार्क में दिन भर एक दो हजार से ज्यादा बच्चे उनकी माएं या बेबी सिट्ट्र या दादा दादी नाना नानी होते हैं वहां भी ब्च्चों की खिल्खिलाह्ट के अलावा कोई शोर नहीं गज़ब की शान्ति
श्याम सखा
संभव हो तो वर्ड वेरिफ़िकेशन हटाएं

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

yatharth/
rachna ka ant bahut rochak va nasihat dene vala he/
bahut khoob/

Babli ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ की जाए कम है!

sandhyagupta ने कहा…

Satik chitran kiya hai aapne.Badhai.

नन्हीं लेखिका - Rashmi Swaroop ने कहा…

वाह सर, कमाल की कविता !
धन्यवाद.
रश्मि.

Harsh ने कहा…

bahut sundar......

Harsh ने कहा…

achchi rachna padane ke liye shukria..............

hindustani ने कहा…

बहूत अच्छी रचना. कृपया मेरे ब्लॉग पर पधारे.

Harsh ने कहा…

bahut sundar

सुशीला पुरी ने कहा…

kumarendr ji ! kya aapne hi ''kathakram'' me ek lekh stri vimarsh par likha tha ???

शरद कोकास ने कहा…

ऐसा अक्सर होता है जब मुझे भी ऐसे लोगों को देख कर खीझ होती है लेकिन फिर मै उन लोगों के बीच घुस जाता हूँ और उनसे सम्वाद करता हूँ । आश्चर्य मुझे कई कहानियाँ वहाँ मिल जाती है । और वे लोग भी उतने बुरे नही निकलते जितना हम सोचते हैं । उनके मनोभावों को समझने की ज़रूरत है ।