शनिवार, 25 सितंबर 2010

ग़ज़ल -- अभिलाषा -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल --- अभिलाषा
=============



दूर अँधियारे में दीपक जलाना चाहता हूँ।
पास से अपने अँधेरे मिटाना चाहता हूँ।।

जिन्दगी की राह में आती हैं मुश्किलें।
हर एक मुश्किल आसान बनाना चाहता हूँ।।

खाकर ठोकर राह में गिरते बहुत हैं।
गिरने वालों को उठाना चाहता हूँ।।

दोस्तों ने दोस्ती के मायने हैं बदले।
रूठे हर दिल में दोस्ती जगाना चाहता हूँ।।

हैं दिलों के बीच जो नफरत की दीवारें।
उन सभी दीवारों को गिराना चाहता हूँ।।

खाक हो जायेगा जिसमें कल जमाना।
आज मैं वह आग बुझाना चाहता हूँ।।

हिंसा, अत्याचार से उजड़ा है ये चमन।
उजड़े गुलशन को फिर बसाना चाहता हूँ।।

अमन, चैन और प्यार का हो मौसम सुहाना।
सूनी आँखों में सपना सजाना चाहता हूँ।।

सारी बुराई ले जाये जो खुद में समेटे।
ऐसा एक तूफान चलाना चाहता हूँ।।

6 टिप्‍पणियां:

ओशो रजनीश ने कहा…

अच्छी पंक्तिया लिखी है ........

यहाँ भी आये और अपनी बात कहे :-
क्यों बाँट रहे है ये छोटे शब्द समाज को ...?

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत शानदार गजल कही है, साहब...

अक्षय कटोच *** AKSHAY KATOCH ने कहा…

gazal achchhi kahi tumne. badhai

बेनामी ने कहा…

मेरे भाई आपको रोका किसने है ???

:)

M VERMA ने कहा…

शानदार गज़ल और सुन्दर कामना

Udan Tashtari ने कहा…

शानदार!