कविता == भावबोध
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मैं
भाव-बोध में
यूं अकेला चलता गया,
एक दरिया
साथ मेरे
आत्म-बोध का बहता गया।
रास्तों के मोड़ पर
चाहा नहीं रुकना कभी,
वो सामने आकर
मेरे सफर को
यूं ही बाधित करता गया।
सोचता हूं
कौन...कब...कैसे....
ये शब्द नहीं
अपने अस्तित्व की
प्रतिच्छाया दिखी,
जिसकी अंधियारी पकड़ से
मैं किस कदर बचता गया।
भागता मैं,
दौड़ता मैं,
बस यूं ही कुछ
सोचता मैं,
छोड़कर पीछे समय को
फिर समय का इंतजार,
बचने की कोशिश में सदा
फिर-फिर यूं ही घिरता गया।
भाव-बोध गहरा गया,
चीखते सन्नाटे मिले,
आत्म-बोध की संगीति का
दामन पकड़ चलते रहे,
छोड़कर पीछे कहीं
अपने को,
अपने आपसे,
खुद को पाने के लिए
मैं
कदम-कदम बढ़ता गया।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
6 टिप्पणियां:
जब आत्मबोध का दरिया साथ हो तो चलने में कहाँ बाधा ...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ..
bahut sundar rachna sir ji,
Rakesh Kumar
bahut sundar rachna sir ji,
Rakesh Kumar
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 28 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
आत्मबोध हो तो फिर जीवन एक सहज सरिता सा चलता रहता है, न कोई राग न द्वेष, बस समतल . बहुत सुन्दर रचना.
रेखा श्रीवास्तव
रेखा श्रीवास्तव जी ने बहुत सही कहा है
कविता अथाह गहराई लिए हुए है
बहुत दिन बाद आपके ब्लॉग तक आने का मौका मिला
आपको पढ़कर..यक़ीनन मन खुश हुआ
बंधाई स्वीकारें
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