ग़ज़ल -- धूप-छाँव
चारों ओर इंसान के जिन्दगी का अजब घेरा है।
चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है।।
लगा था जो कोशिश में जिन्दगी आसान बनाने में।
अब उसी को पल-पल मौत माँगते देखा है।।
जिन्दगी उसको आज करीब से छूकर निकली।
मौत के साथ खेलना तो उसका पेशा है।।
क्या पता था राहे-मंजिल इतनी कठिन होगी।
है घना अँधियारा और दूर बहुत सबेरा है।।
शाम घिरते ही भय के भूत उड़ते हैं छतों पर।
घोंसले में माँ ने बच्चों को अपने में समेटा है।।
किसी आवाज किसी दस्तक पर नहीं कोई हलचल।
लगता है सभी को किसी अनहोनी का अंदेशा है।।
मुस्कराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आँखें।
सूनी सी आँखों में एक दरिया छिपा रखा है।।
सुबह की रोशनी, रात की चाँदनी का पता नहीं।
जर्रे-जर्रे पर एक खौफनाक मुलम्मा चढ़ा है।।
अमन, चैन, प्रेम, स्नेह बातें हैं अब बीते कल की।
दहशतजदा माहौल से आज काल भी घबराया है।।
रिसते जख्म, सिसकते अश्क शोले बनेंगे एक दिन।
हर घूँट के साथ लोगों ने एक अंगारा पिया है।।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
4 टिप्पणियां:
मुस्कराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आँखें।
सूनी सी आँखों में एक दरिया छिपा रखा है।।
खुबसूरत शेर बधाई
खुबसूरत
चारों ओर इंसान के जिन्दगी का अजब घेरा है।
चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है ।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.... आभार
बहुत अच्छा लिखा है, बधाई. आजकल साहित्य पर ज्यादा ही मेहरबान हैं क्या बात है?
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