मंगलवार, 28 सितंबर 2010

ग़ज़ल -- फितरत -- कुमारेन्द्र

ग़ज़ल -- फितरत




अपने शीशमहल से औरों पर पत्थर फेंकते हैं।
छिपा कालिख अपनी औरों पर कीचड़ फेंकते हैं।।

हाथ हैं सने उनके किसी गरीब के खून से।
भलाई की आड़ में लहू वो ही चूसते हैं।।

दूसरों को जिन्दा देखें उनसे होता यह नहीं।
मुँह से लोगों के वो अकसर निवाले छीनते हैं।।

दरिया का पानी उनके लिए सामान है पूजा का।
खेत वो अपने सारे मगर खून से ही सींचते हैं।।

है भरी उनके दिल में बुराई लोगों के लिए।
हरेक शख्स को शक की निगाह से देखते हैं।।

महफिलों में आयें-जायें उनकी फितरत ही नहीं।
खुशनुमा हर शाम को गमगीन बनाना सोचते हैं।।

सह रहे हैं खामोश रहकर उनके सारे सितम।
खामोशी के बाद के तूफान की राह देखते हैं।।

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चित्र गूगल छवियों से साभार

2 टिप्‍पणियां:

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

मन कर रहा है कि कहूं क्या बात कही है? पर यही तो यथार्थ है.

वाणी गीत ने कहा…

जिनके अपने मकान शीशे के वे पत्थर फेंकते हैं ...
अपनी अपनी फितरत है लोगों की भी ...!