जमाने का चलन -- ग़ज़ल
अपने दर्द को हँस कर छिपा रहे हैं।
आँखों से फिर भी आँसू आ रहे हैं।।
जिनसे निभाया न गया दोस्ती को।
वही अब हमसे दुश्मनी निभा रहे हैं।।
हाथ छलनी किये तराशने में जिन्हें।
वो पत्थर के खुदा आँखें दिखा रहे हैं।।
जोश दिल में है जमाना बदलने का।
तभी आँधियों में चिराग जला रहे हैं।।
मिला नहीं सकते जो नजरें हकीकत में।
अपने ख्वाबों में वो हमें मिटा रहे हैं।।
नहीं सुकून उन्हें हमारी खुशियों से।
प्यार के नाम पर जहर पिला रहे हैं।।
आए जो भी दिल के करीब हमारे।
जख्म पर जख्म ही दिये जा रहे हैं।।
छोड़ कर मुश्किलों में चले गये मगर।
अपने को हमारा हमसफर बता रहे हैं।।
क्या कहें जमाने के इस चलन को।
मौत से डरने वाले जीना सिखा रहे हैं।।
चित्र गूगल छवियों से साभार
4 टिप्पणियां:
sundar, badhi.
rakesh kumar
sundar, badhi.
rakesh kumar
शायद कुछ गलती अपनी ही तरफ से हो,
हम ही जिंदगी को खांमखां सर चढ़ा रहे है,
आगे जो इतराए हमारे सामने जिन्दगी,
हम भी फिर अपनी वाली पे आ रहे है,
अब जो दिखाए वो हमको ठेंगा,
हम भी उसे बीच की उंगली बता रहे है ...
लिखते रहिये ...
एक अच्छी रचना.
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