मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

कहाँ से चले थे, कहाँ आ गए हैं --- [कविता -- कुमारेन्द्र]

पड़े थे खण्डहर में
पत्थर की मानिन्द
उठाकर हमने सजाया है,
हाथ छलनी किये अपने मगर
देवता उनको बनाया है।
पत्थर के ये तराशे बुत
हम को ही आँखें दिखा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

बदन पर लिपटी है कालिख
सफेदी तो बस दिखावा है,
भूखे को रोटी,
हर हाथ को काम
इनका ये प्रिय नारा है।
भरने को पेट अपना ये
मुँह से रोटी छिना रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।

सियासत का बाजार
रहे गर्म
कोशिश में लगे रहते हैं,
राम-रहीम के नाम पर
उजाड़े हैं जो
उन घरों को गिनते रहते हैं।
नौनिहालों की लाशों पर गुजर कर
ये अपनी कुर्सी बचा रहे हैं,
कहाँ से चले थे कहाँ आ गये हैं।




चित्र गूगल छवियों से साभार

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