कविता --- पहचान के साथ ही...
अपराध करने के बाद भी
अपराध-बोध का
तनिक भी भान नहीं,
नहीं एहसास कि
वह अपने हाथों से
मिटा चुका है एक सृष्टि को,
वो हाथ जो
झुला सकते थे झूला,
दे सकते थे थपकी,
सिखा सकते थे चलना,
जमाने के साथ बढ़ना,
उन्हीं हाथों ने
सुला दिया मौत की नींद,
मिटा दिये सपने,
अवरुद्ध कर दिया विकास,
बिना उसकी आंखें खुले,
बिना उसके संसार देखे,
बिना अपना परिवार जाने,
समाप्त हो गया उसका अस्तित्व,
समाप्त हो गया एक जीवन,
मिट गई एक मुस्कान
क्योंकि
समाज में आने के पूर्व ही
समाज के कथित ठेकेदार
कर चुके थे उसकी पहचान।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
3 टिप्पणियां:
यही दुर्भाग्य है..
impressive poem .
ब्लॉगजगत में पहली बार एक ऐसा "साझा मंच" जो हिन्दुओ को निष्ठापूर्वक अपने धर्म को पालन करने की प्रेरणा देता है. बाबर और लादेन के समर्थक मुसलमानों का बहिष्कार करता है, धर्मनिरपेक्ष {कायर } हिन्दुओ के अन्दर मर चुके हिंदुत्व को आवाज़ देकर जगाना चाहता है. जो भगवान राम का आदर्श मानता है तो श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र भी उठा सकता है.
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