सोमवार, 24 जनवरी 2011

नारी की बदलती छवि को दर्शाता आलेख -- कुमारेन्द्र

परिवर्तन की दिशा : नारी की बदलती छवि

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परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है और इस सत्य का उद्घाटन समाज और उसके अंगों-अपांगों पर समय-समय पर होता रहता है। समाज का ही एक अंग होने के कारण साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। हिन्दी साहित्य ने अपने आर्विभाव से अद्यतन परिवर्तन के विविध चरणों को एकदम नजदीक से देखा और महसूस किया है। इन्हीं विविध चरणों को हम हिन्दी साहित्य में काल विभाजन की दृष्टि से स्वीकार करते हैं।

आदिकाल से लेकर अद्यानुतन चलती आ रही साहित्यिक परम्पराओं में युगकारी परिवर्तन देखने को मिले। इनमें सम्बन्धित युग की प्रवृत्तियाँ-परिस्थितियाँ स्पष्ट रूप से साहित्य को प्रभावित करती रही हैं। प्रत्येक युग की प्रवृत्तियाँ भी तत्कालीन युग के परिवर्तन को इंगित करती रहीं हैं और स्वयं को युगीन बोध के अनुसार परिवर्तित भी करती रही हैं।

आधुनिक काल के साहित्य पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि इस कालखण्ड में परिवर्तन की दिशाएँ विविध एवं तीव्रतम रहीं हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन के युग में उत्पन्न हुई साहित्यिक एवं सामाजिक चेतना ने परिवर्तन की दिशा निर्धारित की। इस युग के साहित्य ने पूर्व साहित्य के इतर मानवीय संवेदनाओं को इंगित करने वाली परम्परा पर विशेष बल दिया। मानवीय संवेदनाओं और युगीन बोध ने साहित्य को बँधी-बँधाई परिपाटी से परिवर्तित कर एक नई दिशा प्रदान की।

मनोरंजन, ऐयारी, जासूसी साहित्य सर्जना से इतर मानवीय संवेदनाओं और क्रिया-कलापों को केन्द्र में रखकर साहित्य-रचना ही जा रही थी। तत्कालीन युग-बोध को दर्शाने के साथ-साथ स्त्री को भी साहित्य के केन्द्र में रखा जाने लगा था। अब स्त्री को प्यार की जागीर, उसे दासत्व जैसी स्थिति में देख साहित्यकारों को भी पीड़ा का एहसास हो रहा था। नारी अब मात्र बिलासिता और नख-शिख सौन्दर्य की वस्तु नहीं रह गई थी। साहित्य के द्वारा स्त्रियों की दशा का चित्रण कर उनके समाधान का आधार भी निर्मित किया जा रहा था। राजा राममोहन राय, महर्षि कर्वे, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती जैसे समाज-सुधारकों के प्रयासों के परिणामस्वरूप लाला श्रीनिवास दास, श्रद्धानन्द किल्लौरी, बालकृष्ण भट्ट, किशोरीनसन गोस्वामी, भारतेन्दु हरिश्चन्द आदि जैसे साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा नारी-शिक्षा, नारी समस्या उन्मूलन जैसे विषयों को सामने ला रहे थे। इस युग में सामाजिक उपन्यासों के द्वारा जुआ, शराब, वेश्या-नृत्य, चाटुकारिता आदि बुराइयों का पर्दाफाश कर समाज को सही राह पर चलने की दिशा दी जा रही थी।

स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्रियों की सशक्त भूमिका ने साहित्य में भी स्त्रियों की भूमिका को परिवर्तित किया। नारी-शिक्षा को लेकर रचे जा रहे ग्रन्थों से परिवर्तित होकर साहित्य की दिशा नारी के बंधनों को तोड़ने की दिशा में बढ़ गई। द्विवेदी युग में राष्ट्रवादी कवयित्री राजरानी देवी ने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के साथ-साथ स्त्री स्वतन्त्रता की भी आवाज उठाई।

राजरानी देवी ने स्त्री को किसी भी प्रकार के बंधनों में न बँधकर स्वतन्त्र बनने का संदेश दिया। वे स्त्रियों का आहवान भी करती हैं-
‘सोच लो, संसार के कांतार में,
बद्ध होकर यदि जिए तो क्या जिए?
कर्म के स्वच्छन्द, सुखमय क्षेत्र में,
किंकिणी के साथ भी तलवार हो।’

इसी युग में नारी स्वयं भी लेखन के द्वारा अपनी समस्याओं और उनके समाधान को खोजती नजर आई। बंग महिला (राजेन्द्र बाला घोषा) की कहानी ‘दुलाईवाली’ को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी स्वीकारना महिला सशक्तीकरण की आधारभूमि तैयार करना ही था। इस कहानी में स्त्रीचेतना और स्त्री सरोकार को एक स्त्री की दृष्टि से ही दिखा कर स्त्री की भूमिका को प्रतीकात्मक ढंग से सशक्त रूप में दर्शाया गया था। बंग महिला द्वारा साहित्य लेखन को इस कारण से भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस समय गोपालदास गहमरी और देवकीनन्दन खत्री जैसे स्थापित पुरुष साहित्यकार साहित्य-सर्जना कर रहे थे वहाँ बंग महिला ने नारी-सुधार जैसे विषय को केन्द्र बना कर लिखी कहानी से स्त्री चेतना और सशक्तीकरण की दिशा तय की।

नारी-शक्ति लगातार साहित्य-सर्जना की ओर प्रवृत्त हो रही थी। यशोदा देवी, प्रियंवदा देवी, शारदा देवी जैसी लेखिकाओं ने महिला शक्ति को, अस्तित्व को स्वर प्रदान किया। समय परिवर्तित होता रहा, प्रवृत्तियाँ लगातार बदलती रहीं और इसी परिवर्तन के साथ-साथ स्त्री चेतना के स्वरों में भी परिवर्तन होते रहे। सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ देने के आहवान, बंधनों से मुक्ति के प्रयासों को मुखरता महादेवी वर्मा के आने से मिली। छायावादी सात्विक नारी प्रेम की भावना से इतर महादेवी वर्मा ने नारी-स्वर को ओज देकर ‘स्त्री-विमर्श’ की स्थापना हिन्दी साहित्य में की। प्रसाद की नारी की उज्ज्वल, पावन छवि के साथ-साथ जो सामाजिक स्थिति बनी इस छवि की दीनता और असहायता की स्थिति को निराला ने ‘विधवा’ तथा ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी रचनाओं के द्वारा दर्शाया। इन्हीं के समकालीन पन्त नारी को भोग का साधन अथवा वासना तृप्ति का साधन मात्र न स्वीकार कर उसे भी एक मानवीय स्वरूप प्रदान करते दिखे।

महादेवी वर्मा ने नारी की इन परम्परागत छवियों से अलग सशक्त चरित्र, जीवट व्यक्तित्व एवं स्वतन्त्र अस्तित्व छवि का निर्माण किया। महादेवी वर्मा ने परिवार और समाज के बंधनों में सिर्फ नारी के बँधने का विरोध किया। परिवार और समाज के इन बंधनों का विरोध करती हुईं वे ‘पथ के साथी’ में कहती भी हैं- ‘‘समाज और परिवार व्यक्ति को बंधन में बाँधार रखते हैं। ....ये बंधन व्यक्तित्व के विकास में सहायता करने के बदले बाधा पहुँचाते लगते हैं। ये बंधन कितने ही अच्छे उछ्देश्य से क्यों न नियत किये गये हों, हैं बंधन ही और जहाँ बंधन है वहाँ असंतोष तथा क्रांति है।’’ महादेवी वर्मा इसी क्रांति की ज्वाला ‘शृंखला की कड़ियाँ’ कृति के द्वारा तत्कालीन नारियों के मघ्य प्रज्ज्वलित करतीं हैं।

लगातार होते साहित्यिक परिवर्तनों ने नारी के व्यक्तित्व को स्वतन्त्रता प्रदान की। इस स्वतन्त्रता ने स्त्री को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ-साथ सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक स्वतन्त्रता प्रदान की। नारी की स्वतन्त्रता मुखर होकर साहित्य में नवीन दिशाओं का निर्माण करती दिखी। सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, आराधना योग्य देवी की स्वीकार्य छवि से इतर वह उच्छृंखल छवि का निर्माण करने लगी। परम्पराओं और मूल्यों के बंधनों को तोड़कर वह ‘बोल्ड’ लेखन ओैर ‘बोल्ड’ चरित्र प्रदर्शित करने लगी। मानसिक-शारीरिक-यौनिक स्वतन्त्रता ने यद्यपि नारी छवि को परम्परागत भारतीय नारी छवि से अलग पहचान दी साथ ही साथ इस छवि को आरोपित भी किया। इन सबके बाद भी वह अपनी बेलाग, बेलौस, स्वच्छन्द छवि से साहित्य में नवीन प्रवृतियों और दिशाओं को जन्मने लगी।

नया कालखण्ड, नया युगबोध और स्त्री-चरित्र को लेकर स्थापित होती नई परिवर्तनकारी अवस्थाओं ने स्त्री-चेतना को स्वच्छन्द यौनिक अवस्था में परिवर्तित कर दिया। अब नारी साहित्य के द्वारा सोचती है कि पुरुष वेश्यालय कब खुलेंगे? उसके नारी पात्र एक साथ कई पुरुषों की शारीरिक शक्ति का परीक्षण करने लगे। अपनी विशिष्ट दैहिक संरचना की स्वीकारोक्ति से अपने अंगों-उपांगों के चित्रण और उनकी सौन्दर्यानुभूति को स्वयं प्रदर्शित करने लगी। माँग के सिन्दूर, सिर के आँचल, पैरों की पायल-बिछिया, व्रतों-त्योहार का बहिष्कार सा कर स्वतन्त्र नारी ने स्वतन्त्र अस्तित्व की अवधारणा निर्मित की। साहित्य सर्जना करती नारी, उसके नारी-पात्र स्वतन्त्र यौन सम्बन्ध्ाों को बनाने में, सेक्स पार्टनर बदलने में, विवाहेत्तर अथवा विवाहपूर्व शारीरिक सम्बन्धों को बनाने में, अनब्याही माँ बनने में, अविवाहित जीवन व्यतीत करने में किसी तरह का अपराध-बोध नहीं स्वीकारते हैं। स्वीकारें भी क्यों, आखिर साहित्य की परिवर्तित होती दशाओं और दिशाओं ने स्त्री को स्वतन्त्र मानवीय पहचान प्रदान की है।

नारी की परिवर्तित छवि से, उसकी स्वतन्त्र, स्वच्छन्द, उच्छृंखल मानसिक सोच से सामाजिक संरचना, पारिवारिक संरचना, सामाजिक सरोकारों, जीवन-मूल्यों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह अलग से चिन्तन का विषय है। परिवर्तन की दृष्टि से नारी की परम्परागत छवि का विखण्डित होना रूढ़ियों, सड़ी-गली मान्यताओं, पुरुषजन्य विकृत सोच को परिवर्तित करता है। यह कहीं न कहीं स्वस्थ समाज के निर्माण का कार्य भी करता है।

3 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत अच्छा आलेख, बहुत अच्छा..

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत अच्छा आलेख, बहुत अच्छा..

रचना ने कहा…

स्वच्छन्द, उच्छृंखल मानसिक सोच

absolutely wrong choice of words