जो ऊपर जायेगा वो नीचे भी आएगा, जो कहीं चढ़ा है वो वहाँ से उतरेगा,
ये प्रकृति का नियम है. इधर देखने में आ रहा है कि प्रकृति के इस नियम ने अपने आपको
माहौल के अनुसार ढाल लिया है. अब देखिये न, कई-कई वस्तुओं के दाम एक-एक करके
लगातार अपने आपको ऊपर ले जा रहे हैं किन्तु नीचे आने का नाम ही नहीं ले रहे हैं. दाल
ने अपने रूप को विकराल करना शुरू किया तो फिर थामा ही नहीं. देखादेखी अब टमाटर
गुस्से के मारे लाल होकर लगातार दाल के समकक्ष खड़ा होने का मन बनाने लगा है.
हालाँकि बीच-बीच में प्याज ने उठने की कोशिश की किन्तु उसने प्रकृति के नियम का
पालन करते हुए वापस आने में ही भलाई समझी. दाल, टमाटर की बढ़ती कीमतों के न घटने
वाले स्वरूप से जैसे-तैसे समझौता करके मान लिया गया कि ये वापस अपने रूप में लौटने
वाले नहीं हैं. मन को संतोषम परम सुखम की घुट्टी पिलाकर इनको इसी वर्तमान स्वरूप
में ग्रहण करना शुरू कर लिया गया.
अभी देह को मंहगाई के झटकों से कुछ राहत मिलने का एहसास
होने ही वाला था कि कुछ और जगह से रूप विस्तार की खबरें आनी शुरू हो गईं. देश को
स्वच्छ करने के नाम पर रेलवे ने नागरिकों की जेबें साफ़ करने का मंतव्य स्पष्ट
किया. देश को स्वच्छ रखने की जिम्मेवारी रेलवे ने अपने यात्रियों के सिर मढ़ दी. अब
यात्रा किराये के बढ़ते स्वरूप को तो वापसी करनी ही नहीं है भले ही प्रकृति का नियम
चाहे जो कुछ बना रहे. प्रकृति से लगातार इस तरह की छेड़छाड़ करने वाले किसी भी रूप
में समाज का भला नहीं कर सकते.
इस बात की भी सम्भावना है कि या तो प्राकृतिक नियम को खरीद
लिया गया है या फिर वो भी जन-विरोधी हो गई है. देखा जाये तो ये भी एक तरह की भक्ति
है और शायद इसी भक्ति में प्रकृति का ये नियम अपनी सहिष्णुता खो बैठा है. वैसे इस
असहिष्णुता के माहौल में, जबकि सब कुछ जन-विरोधी होता दिख रहा है, एकमात्र शराब ही
ऐसी सहायक सामग्री है जो प्रकृति के नियम का अक्षरशः पालन कर रही है. पूरे सुरूर
में चढ़ती है तो उसी सुरूर में उतर भी जाती है.
1 टिप्पणी:
सुंदर प्रस्तुति...
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