आज खोज
रहे थे कोई और काग़ज़
मिल गये
मगर गुम हुए
कई पुराने
काग़ज़,
ख़त निकला
इक तेरा
और संग
निकला
इक ख़त
मेरा भी,
प्रेषित
पत्र की छाया में लिपटा
एक अप्रेषित
ख़त,
जो लिखा
तो गया शिद्दत से
पर तुमने
पढ़ा न कभी दिल से.
जाने कितनी
बार सुबह से,
पढ़ डाले
वो सभी
प्रेषित-अप्रेषित
पत्र,
आँखें बंद
कर उसी शिद्दत से
जिस शिद्दत
से लिखे थे कभी.
उन काग़ज़ों
की छुअन मात्र से
दिखाई देने
लगते हैं
शब्द-शब्द
सारे,
क्योंकि
एक-एक शब्द अंकित है
बहुत पहले
से
दिल के
दस्तावेज़ में.
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर रचना।
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