शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

घर, इंसान का लुप्त होना : कविता

कभी हुआ करता था

इक मकान में

इक घर कोई,

उस घर में रहते थे

इंसान कई.

 

घर कहीं लुप्त हो गया है,

अब एक मकान में

बन गए हैं मकान कई.

 

इंसान कहीं गुम हो गए हैं,

अब एक इंसान में

बन गए हैं मकान कई.


अब कहीं घर नहीं है,

अब कहीं इंसान नहीं है,

अब सिर्फ मकान हैं

क्योंकि इंसान ही मकान है.

 

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कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र

17.12.2021

 

1 टिप्पणी:

भानु प्रताप सिंह चंदेल ने कहा…

समाज की वास्तविकता दिखाई देती है एवं वेदना भी