मंगलवार, 12 जुलाई 2011

खोखलापन

हम नित हर पल
खुले बाजार की ओर
जा रहे हैं।
तभी तो खुलेआम
अपनी सभ्यता में
खुलापन ला रहे हैं।
पहले एक चैनल से काम चलाते थे,
अब चैनलों की बाढ़ ला रहे हैं।
लगातार देखते
ढँकी-मुँदी अपनी सभ्यता को,
हम बोर हो गये थे,
इसी कारण से
पश्चिमी सभ्यता द्वारा
अपनी संस्कृति को
निर्वस्त्र किये जा रहे हैं।
देखने की लालसा
जो दबी थी सदियों से
मानव मन में,
उसी फूहड़ता को
आधुनिकता की आड़ में
घर के अंदर ला रहे हैं।
लगाकर विदेशी वैशाखियाँ
खुद को खिलाड़ी माने हैं,
पर आधुनिकता के चक्कर में
खुद को
खोखला किये जा रहे हैं।

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

स्वर्ग-नर्क के बँटवारे की समस्या -- व्यंग्य


महाराज कुछ चिन्ता की मुद्रा में बैठे थे। सिर हाथ के हवाले था और हाथ कोहनी के सहारे पैर पर टिका था। दूसरे हाथ से सिर को रह-रह कर सहलाने का उपक्रम भी किया जा रहा था। तभी महाराज के एकान्त और चिन्तनीय अवस्था में ऋषि कुमार ने अपनी पसंदीदा ‘नारायण, नारायण’ की रिंगटोन को गाते हुए प्रवेश किया।

ऋषि कुमार के आगमन पर महाराज ने ज्यादा गौर नहीं फरमाया। अपने चेहरे का कोण थोड़ा सा घुमा कर ऋषि कुमार के चेहरे पर मोड़ा और पूर्ववत अपनी पुरानी मुद्रा में लौट आये। ऋषि कुमार कुछ समझ ही नहीं सके कि ये हुआ क्या? अपने माथे पर उभर आई सिलवटों को महाराज के माथे की सिलवटों से से मिलाने का प्रयास करते हुए अपने मोबाइल पर बज रहे गीत को बन्द कर परेशानी के भावों को अपने स्वर में घोल कर पूछा-‘‘क्या हुआ महाराज? किसी चिन्ता में हैं अथवा चिन्तन कर रहे हैं?

महाराज ने अपने सिर को हाथ की पकड़ से मुक्त किया और फिर दोनों हाथों की उँगलियाँ बालों में फिरा कर बालों को बिना कंघे के सवारने का उपक्रम किया। खड़े होकर महाराज ने फिल्मी अंदाज में कमरे का चक्कर लगा कर स्वयं को खिड़की के सामने खड़ा कर दिया। ऋषि कुमार द्वारा परेशानी को पूछने के अंदाज ने महाराज को दार्शनिक बना दिया-‘‘अब काहे का चिन्तन ऋषि कुमार? चिन्तन तो इस व्यवस्था ने समाप्त ही कर दिया है। अब तो चिन्ता ही चिन्ता रह गई है।’’

ऋषि कुमार महाराज के दर्शन को सुनकर भाव-विभोर से हो गये। आँखें नम हो गईं और आवाज भी लरजने लगी। वे समझ नहीं सके कि ऐसा क्या हो गया कि महाराज चिन्तन को छोड़ कर चिन्ता वाली बात कर रहे हैं? अपनी परेशानी को सवाल का चोला ओढ़ा कर महाराज की ओर उछाल दिया। महाराज ने तुरन्त ही उसका निदान करते हुए कहा-‘‘कुछ नहीं ऋषि कुमार, हम तो लोगों के तौर-तरीकों, नई-नई तकनीकों के कारण परेशान हैं। समझो तो हैरानी और न समझो तो परेशानी। अब बताओ कि ऐसे में चिन्तन कैसे हो?

ऋषि कुमार समझ गये कि महाराज की चिन्ता बहुत व्यापक स्तर की नहीं है। ऋषि कुमार के ऊपर आकर बैठ चुका चिन्ता का भूत अब उतर चुका था। वे एकदम से रिलेक्स महसूस करने लगे और बेफिक्र अंदाज में महाराज के पास तक आकर थोड़ा गर्वीले अंदाज में बोले-‘‘अरे महाराज! हम जैसे टेक्नोलोजी मैन के होते आपको परेशान होना पड़े तो लानत है मुझ पर।’’ महाराज ने ऋषि कुमार के चेहरे को ताका फिर इधर-उधर ताकाझाँकी करके बापस खिड़की के बाहर देखने लगे। महाराज के बाहर देखने के अंदाज को देख ऋषि कुमार ने भी अपनी खोपड़ी खिड़की के बाहर निकाल दी।

अच्छी खासी ऊँचाई वाली इस इमारत की सबसे ऊपर की मंजिल की विशाल खिड़की से महाराज अपने दोनो साम्राज्य-स्वर्ग और नर्क-पर निगाह डाल लेते हैं। ऋषि कुमार को लगा कि समस्या कुछ इसी दृश्यावलोकन की है। अपनी जिज्ञासा को प्रकट किया तो महाराज ने नकारात्मक ढंग से अपनी खोपड़ी को हिला दिया।

‘‘कहीं स्वर्ग, नर्क के समस्त वासियों के क्रिया-कलापों के लिए लगाये गये क्लोज-सर्किट कैमरों में कोई समस्या तो नहीं आ गई?’’ ऋषि कुमार ने अपनी एक और चिन्ता को प्रकट किया। महाराज के न कहते ही ऋषि कुमार ने इत्मीनान की साँस ली। सब कुछ सही होना ऋषि कुमार की कालाबाजारी को सामने नहीं आने देता है। ‘‘फिर क्या बात है महाराज, बताइये तो? आपकी परेशानी मुझसे देखी नहीं जा रही।’’ ऋषि कुमार ने बड़े ही अपनत्व से महाराज की ओर चिन्ता को उछाल दिया।

महाराज ऋषि कुमार की ओर घूमे और बोले-‘‘बाहर देख रहे हो कितनी भीड़ आने लगी है अब मृत्युलोक से। मनुष्य ने तकनीक का विकास जितनी तेजी से किया उतनी तेजी से मृत्यु को भी प्राप्त किया। अब दो-चार, दो-चार की संख्या में यहाँ आना नहीं होता; सैकड़ों-सैकड़ों की तादाद एक बार में आ जाती है। कभी ट्रेन एक्सीडेंट, कभी हवाई जहाज दुर्घटना, कभी बाढ़, कभी भू-स्खलन, कभी कुछ तो कभी कुछ........उफ!!! कारगुजारियाँ करे इंसान और परेशान होते फिरें हम।’’

ऋषि कुमार हड़बड़ा गये कि महाराज के चिन्तन को हो क्या गया? इंसान की मृत्यु पर इतना मनन, गम्भीर चिन्तन? अपनी जिज्ञासा को महाराज के सामने प्रकट किया तो महाराज ने समस्या मृत्यु को नहीं बताया। महाराज के सामने समस्या थी स्वर्ग तथा नर्क के बँटवारे की। ऋषि कुमार ने अपनी पेटेंट करवाई धुन ‘नारायण, नारायण’ का उवाच किया और महाराज से कहा कि इसमें चिन्ता की क्या बात है, हमेशा ही अच्छे और बुरे कार्यों के आधार पर स्वर्ग-नर्क का निर्धारण होता रहा है; अब क्या समस्या आन पड़ी?

महाराज ने अपने पत्ते खोल कर स्पष्ट किया कि ‘महाराजाधिराज ने युगों के अनुसार कार्यों का लेखा-जोखा तैयार कर रखा है। चूँकि भ्रष्टाचार, आतंक, झूठ, मक्कारी, हिंसा, अत्याचार, डकैती, बलात्कार, अपराध, रिश्वतखोरी, अपहरण आदि-आदि कलियुग के प्रतिमान हैं, इस दृष्टि से जो भी इनका पालन करेगा, जो भी इन कार्यों को पूर्ण करेगा वही सच्चरित्र वाला, पुण्यात्मा वाला होगा शेष सभी पापी कहलायेंगे, बुरी आत्मा वाले कहलायेंगे............’

‘‘.......तो महाराज, फिर चिन्ता कैसी? जो पुण्यात्मा हो उसे स्वर्ग और जो पापात्मा हो उसे नर्क में भेज दें, सिम्पल सी बात।’’ ऋषि कुमार ने महाराज के शब्दों के बीच अपने शब्दों को घुसेड़ा। अपनी बात को कटते देख महाराज ने भृकुटि तानी और इतने पर ही ऋषि कुमार की दयनीय होती दशा देख थोड़ा नम्र स्वर में बोले-‘‘कितनी बार कहा है कि बीच में मत टोका करो, पर नहीं। यदि स्वर्ग-नर्क का निर्धारण इतना आसान होता तो समस्या ही क्या थी।’’

ऋषि कुमार को अपनी गलती का एहसास हुआ और अबकी वे बिना बात काटे महाराज की बात सुनने को आतुर दिखे। महाराज ने उनसे बीच में न टोकने का वचन लेकर ही बात को आगे बढ़ाने के लिए मुँह खोला-‘‘समस्या यह है कि धरती से जो भी आता है वह भ्रष्टाचार, आतंक, बलात्कार, रिश्वतखोरी, मक्कारी, अत्याचार आदि गुणों में से किसी न किसी गुण से परिपूर्ण होता है। ऐसे में महाराजाधिराज के बनाये विधान के अनुसार उसे स्वर्ग में भेजा जाना चाहिए किन्तु स्वर्ग की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाये रखने के लिए ऐसे लोगों में अन्य दूसरे गुणों-दया, ममता, करुणा, अहिंसा, धर्म आदि-को खोज कर उन्हें नर्क में भेज दिया जाता है।’’ तभी महाराज ने देखा कि ऋषि कुमार अपने मोबाइल के की-पैड पर उँगलियाँ नचाने में मगन हैं। ‘‘क्या बात है ऋषि कुमार, हमारी बातें सुन कर बोर होने लगे?’’ ‘‘नहीं, नहीं महाराज, ऐसा नहीं है। हम तो मोबाइल स्विच आफ कर रहे थे ताकि आपकी बातों के बीच किसी तरह का व्यवधान न पड़े।’’ ऋषि कुमार अपनी हरकत के पकड़ जाने पर एकदम से हड़बड़ा गये।

महाराज ने ऋषि कुमार की ओर से पूरी संतुष्टि के बाद फिर से मुँह खोला-‘‘पहले स्थिति तो कुछ नियंत्रण में थी किन्तु जबसे धरती से राजनीतिक व्यक्तियों का आना शुरू हुआ है तबसे समस्या विकट रूप धारण करती जा रही है। इन नेताओं में तो किसी दूसरे गुण को खोजना भूसे में सुई खोजने से भी कठिन है। इस कारण स्वर्ग की व्यवस्था भी दिनोंदिन लचर होती जा रही है। सब मिलकर आये दिन किसी न किसी बात पर अनशन, धरना, हड़ताल आदि करने लगते हैं। किसी दिन ज्ञापन देने निकल पड़ते हैं। अब यही सब मिल कर हमारे अधीनस्थों को चुनाव के लिए, लाल बत्ती के लिए उकसा रहे हैं।’’ महाराज ने दो पल का विराम लिया और कोने में रखे फ्रिज में से ठंडी बोतल निकाल कर मुँह में लगा ली। गला पर्याप्त ढंग से ठंडा करने के बाद उन्होंने ऋषि कुमार की ओर देखा। ऋषि कुमार ने पानी के लिए मना कर आगे जानना चाहा।

महाराज धीरे-धीरे चलकर ऋषि कुमार के पास तक आये और उनके कंधे पर अपने हाथ रखकर समस्या का समाधान ढूँढने को कहा-‘‘कोई ऐसा उपाय बताओ ऋषि कुमार जिससे इन सबको स्वर्ग की बजाय नर्क में भेजा जा सके और यहाँ के लिए बनाया महाराजाधिराज का विधान भी भंग न हो।’’

ऋषि कुमार महाराज की समस्या को सुनकर चकरा गये। महाराज की आज्ञा लेकर पास पड़ी आराम कुर्सी पर पसर गये। दो-चार मिनट ऋषि कुमार संज्ञाशून्य से पड़े रहने के बाद उन्होंने आँखें खोलकर महाराज की ओर देखा। महाराज को चुप देख ऋषि कुमार आराम से उठे और बोले-‘‘महाराज धरती के नेताओं की समस्या तो बड़ी ही विकट है। उनसे तो वहाँ के मनुष्यों द्वारा बनाये विधान के द्वारा भी पार नहीं पाया जा सका है। बेहतर होगा कि मुझे कुछ दिनों के लिए कार्य से लम्बा अवकाश दिया जाये जिससे कि विकराल होती इस समस्या का स्थायी समाधान खोजा जा सके। तब तक एकमात्र हल यही है कि धरती पर नेताओं को हाथ भी न लगाया जाये। बहुत ही आवश्यक हो तो उनके स्थान पर आम आदमी को ही उठाया जाता रहा जाये।’’ इतना कहकर ऋषि कुमार महाराज की आज्ञा से बाहर निकले और अपनी मनपसंद रिंगटोन ‘नारायण, नारायण’ गाते हुए वहाँ से सिर पर पैर रखकर भागते दिखाई दिये।

रविवार, 22 मई 2011

अगले जनम मोहे हिन्दू न कीजो -- व्यंग्य

सुबह-सुबह आँख खुली तो कमरे का नजारा बदला हुआ लगा। जहाँ सोया था जगह वो नहीं लगी, पलंग भी वो नहीं था, आसपास का वातावरण भी वो नहीं था। चौंक कर एकदम उठे और जोर की आवाज लगाई। एक हसीन सी कन्या ने प्रवेश किया, समझ नहीं आया कि घर में इतनी सुन्दर कन्या कहाँ से आ गई। उसके हाथ में कुछ पेय पदार्थ सा था जो उसने मुझे थमा दिया। बिना कुछ पूछे, बिना कुछ जाने सम्मोहित सा उसे पीने लगे। मन की, तन की खुमारी एकदम से मिट गई।

अब थोड़ा सा खुद को सँभालकर उससे सवाल किया कि ये मैं कहाँ हूँ? उसने बताया कि ये मृत्युलोक नहीं है, ये तो पारलौकिक जगत है, जिसे कुछ लोग स्वर्ग और नरक के नाम से जानते हैं। हमारे एक और सवाल पर जवाब आया कि समूचे जगत में समानता-बंधुत्व-भाईचारा को देखते हुए स्वर्ग-नरक का भेद समाप्त कर दिया गया है। अब यहाँ सभी को इसी तरह की व्यवस्था प्रदान की गई है, हाँ उसके कार्यों और यहाँ के चाल-चलन को देखकर उसकी सुविधाओं में कमी-बढ़ोत्तरी होती जाती है।

अब मेरे चौंकने की तीव्रता और बढ़ गई, समझ नहीं आया कि बिना मरे हम यहाँ आ कैसे गये? दिमाग पर थोड़ा सा जोर डाला तो पता चला कि 21 मई की शाम को प्रलय आनी थी पर नहीं आई थी। उसके बाद रात को पूरी प्रसन्नता के साथ पी-खाकर सोये थे, जश्न मनाते हुए....फिर मृत्यु? उसी कन्या ने जैसे दिमाग को पढ़कर समाधान किया-‘‘तुम्हारे देश में प्रलय कुछ घंटों देरी से आई थी। रात को सोने पर तुम हमेशा के लिए सोते रह गये।’’ मेरे पूछने पर कि क्या सब कुछ तबाह हो गया, उसका उत्तर हाँ में आया।

इसके बाद उसने उठने का इशारा किया और कमरे से बाहर निकल गई। मैं भी बिना किसी भय के, बिना किसी मोह के कमरे से बाहर निकल आया। अब मोह किसका, सभी तो यहीं कहीं आसपास ही होंगे। कमरे के बाहर का वातावरण मनोहारी था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी, जैसी भारत में कभी चला करती होगी। बड़ा ही सुन्दर सा अनुभव हो रहा था, लगा कि काफी पहले ही प्रलय आ जानी चाहिए थी। चलो भला हो इस ईसाई धर्म का जिसने 21 मई को ही प्रलय बुला दी। अब अपनी जिन्दगी के हसीन पल यहीं कटेंगे।

टहलते-टहलते दूर तक निकल आये तो देखा कि एक मदर टाइप की लेडी आ रही हैं। पास आईं तो देखा सचमुच में मदर ही थी, सन्त मदर। वही सन्त मदर जिनकी फोटो के रखने से मृत्युलोक में व्यक्तियों के ट्यूमर और अन्य दूसरी बीमारियाँ पूर्णतः ठीक हो गईं थीं। हमने उनको नमन करके कहा-‘‘माता, आपकी फोटो का चमत्कार और वरदान तो हमें प्राप्त नहीं हो सका किन्तु आपके धर्म का प्रभाव हमने देख लिया। हमारा नमन स्वीकारें माता।’’

ये लो हमसे लगता है कि कोई गलती हो गई थी, भयंकर वाली गलती। उन सन्त माता ने चिल्ला कर हमें डाँटा-‘‘चुप रहो बदतमीज, माता तुम्हारे हिन्दू धर्म के भिखारी ही बोलते हैं भीख माँगते में। मैं तो मदर हूँ, जगत मदर। मैं तो मैं, मेरी फोटो भी चमत्कार करती है। है कोई तुम्हारे धर्म में ऐसा चमत्कारी सन्त, महात्मा, साध्वी?’’ और वह चुपचाप वहाँ हमें अकेला छोड़कर निकल पड़ी।

हम चुप, किंकर्तव्यविमूढ़, समझ में नहीं आ रहा था कि ये हमारे मुँह पर तमाचा मार गईं या फिर हमें सच्चाई दिखा गईं। हमारे हिन्दू धर्म में तो कोई ऐसा नहीं है जिसने फोटो के दम पर चमत्कार कर दिये हों और उन्हें समाज ने सहर्ष स्वीकारा भी हो। और देखो तो हमारे बाबाओं, महात्माओं को....लम्बी सी दाढ़ी रखा लेंगे.....लम्बा सा बेढब चोला पहन लेंगे और करने लगे धर्म की बातें। अरे! कहीं इस तरह से होते हैं चमत्कार। अब देखो इस धर्म के प्रचारकों को क्या कमाल है पोशाक में, कोट भी है....लम्बा सा लकदक गाउन भी है। इनके धर्मस्थल भी देखो...बैठने की सुन्दर व्यवस्था, साफ-सफाई और एक हमारे धर्म में, धर्मस्थलों में घुस जाओ तो बैठने की कौन कहे, खड़े होने तक का जुगाड़ नहीं। चारों तरफ पता नहीं क्या-क्या बुदबुदाने का शोर, इस पर भी मन न माना तो लगे घंटा-घड़ियाल-शंख फूँकने। उफ! क्या नौटंकी है हिन्दू धर्म में।

मदर की बातों से मन खिन्न हो उठा। बाबाओं, महात्माओं, साध्वियों को खोजने लगा। जिधर देखो उधर वही बुड्ढे खूसट टाइप के, जिनको देखकर लगता है कि अब इन्होंने महिलाओं की इज्जत लूटी, अभी किसी बच्चे का अपहरण किया। हाँ इधर व्यावसायिकता के दौर में कुछ स्मार्ट बाबाओं का आगमन हुआ किन्तु वे भी कोई चमत्कार न दिखला सके। और साध्वियाँ......थोड़ा सोचना पड़ गया तभी एक नाम आया तो वहाँ की व्यवस्था के सुख को भोगने के लालच में नाम भी जुबान पे नहीं लाये, पता नहीं किस सुविधा में कमी कर दी जाये। एक साध्वी आई भी तो बम फोड़कर चली गई जेल में, चमत्कार दिखा देती फिर कुछ भी कर देती...कम से हिन्दू धर्म का नाम तो हो जाता।

अब तो अपने हिन्दू होने पर जलालत का एहसास होने लगा। हिन्दू है ही क्या, गोधरा में ट्रेन में जलाने के बाद भी हादसे का शिकार बताये जाने वाला; अक्षरधाम मन्दिर में हमले के बाद भी खामोश रहने वाला; अपने आराध्य राम के जन्मस्थल की स्वीकार्यता के लिए अदालत का मुँह ताकने वाला; बाबर-औरंगजेब की संतानों के साथ तालमेल बैठा कर चलने वाला; लगातार होते जा रहे धर्म परिवर्तन के बाद भी सर्व-धर्म-समभाव का भजन गाने वाला....। छी...छी...छी...मैं हूँ क्या...एक हिन्दू...जिसने सिवाय भेदभाव के, कट्टरता, वैमनष्य फैलाने के कुछ नहीं किया।

चलते-चलते सोचा-विचारी हो रही थी कि उस जगत के सर्वशक्तिमान का फरमान चारों ओर गूँजने लगा कि जल्द ही पृथ्वीलोक को बसाया जाना है। सभी को वहाँ जाना जरूरी है, हाँ इतनी छूट है कि अपने-अपने विकल्प दे दें कि किस देश में पैदा किया जाये........। हमने आगे के फरमान को नहीं सुना और दौड़कर सर्वशक्तिमान के दरवार में पहुँच गये। देखा वहाँ महाराज की बजाय महारानियों का जमावड़ा था। कोई इंग्लैण्ड से, कोई अमेरिका से, कोई श्रीलंका से, कोई पाकिस्तान से, कोई दिल्ली से, कोई उत्तर प्रदेश से, कोई तमिलनाडु से, कोई पश्चिम बंगाल से। हमें लगा कि भारत का बहुमत है अपना ही देश माँग लिया जाये पर तभी दिमाग में धार्मिक लहर जोर मार गई। हमने चिल्ला कर कहा-‘‘महारानियो जो भी देश देना हो दे देना पर अगले जनम मोहे हिन्दू धर्म में पैदा न करना। इस धर्म में सिवाय ढोंग के, नाटक के, छल-प्रपंच के, भेदभाव के कुछ नहीं होता....हमें हिन्दू धर्म के अलावा किसी भी धर्म में पैदा कर देना। चाहे ईसाई धर्म में जिसने प्रलय की घोषणा कर उसको सच्चाई में बदल दिया चाहे मुस्लिम धर्म में जिसकी धार्मिक कट्टरता के कारण कभी भी फाँसी की सजा नहीं मिल सकती चाहे.....।’’

‘‘बस...चुपचाप रहो हिन्दू...ये तुम्हारा मन्दिर नहीं, तुम्हारा समाज नहीं, तुम्हारा देश नहीं कि कुछ भी बकवास करते फिरो। यहाँ सब नियम से, समय से होता है। समय आया, नियम बना तो प्रलय आ गई, समय आ जाता, नियम बन जाता तो फाँसी भी हो जाती।’’ महारानियों की कड़क आवाज का गूँजना था कि कई सारे दिग्गी टाइप सिपहसालार खड़े हो गये। हमने मौन लगा जाना ही बेहतर समझा। होंठ बन्द, जुबान खामोश किन्तु मन फिर भी कह रहा था कि अगले जनम मोहे हिन्दू न कीजो।


शुक्रवार, 13 मई 2011

असंवेदनशीलता -- लघुकथा

रास्ते पर भागमभाग मची हुई थी। सभी लोग एक प्रकार की हड़बड़ी सी दिखाते हुए एक ही दिशा में भागे चले जा रहे थे। यह समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो गया है कि बाजार में इस तरह की अफरातफरी का माहौल बना हुआ है।

दो-एक को रोक कर पूछने की कोशिश की पर कोई न ही रुका और न ही किसी ने रुकने का मन दिखाया। चूँकि मुझे जाना भी उसी ओर था जहाँ से लोग भागमभाग की स्थिति में चले आ रहे थे। मन में एक डर सा पैदा हुआ कि कहीं कुछ ऐसा घटित न हो गया हो जिससे उस ओर जाना घातक हो जाये।

कई लोगों को रोकने की कोशिश में अन्ततः अपने एक परिचित दिखाई दिये। वे मेरे एक-दो बार पुकारने के बाद रुके तो पर ऐसे जैसे कि किसी अतिशय जल्दबाजी में हैं और हम उनका समय नष्ट कर रहे हैं। जब मैंने इस भागदौड़ का संदर्भ जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि उस तरफ सड़क पर एक दुर्घटना हो गई है, एक युवक घायलावस्था में सड़क पर पड़ा है। उसके साथ की युवती उसके लिए मदद को पुकार रही है और कोई पुलिस के लफड़े में नहीं पड़ना चाहता, इस कारण से....।

इस भागमभाग का पूरा अर्थ समझ में आ गया था। अब मैं भी उस तरफ जाने के बारे में सोच-विचार करने लगा था।

शनिवार, 7 मई 2011

माँ आज भी दुखी है -- लघुकथा -- कुमारेन्द्र

मां परेशान थी क्योंकि उसके सामने अपने बेटे को पालने का संकट था। पति था नहीं, स्वयं अकेली और साथ में नन्हीं सी जान। किसी तरह परेशानियां सहकर, दुःख उठाकर अपने बेटे को पाला-पोसा।

मां अब भी दुःखी थी, परेशान थी क्योंकि अब वो अपने बेटे की पढ़ाई तथा रोजगार को लेकर चिन्तित थी। कहीं कोई सिफारिश नहीं, कहीं कोई पहचान नहीं। किसी तरह रात-दिन एक करके उसने बेटे को पढ़ाया और नौकरी के लायक बनाया।

मां की चिन्ता अभी भी कम नहीं हुई थी अब वो चिन्ता में थी अपने बेटे के विवाह के लिए। वह अभी भी अकेली थी, कोई रिश्तेदार नहीं, कोई संगी-साथी नहीं। किसी तरह से अपने नौकरीशुदा बेटे के लिए सुन्दर, सुघढ़ सी बहू ला पाई।

मां का दुःख अब पहले से अधिक बढ़ गया था। मां अब पहले से अधिक परेशान रहने लगी थी। मां की चिन्ता अब पहले से कहीं अधिक घनी हो गई थी। अब घर में बहू थी पर उसका बेटा अब उसका नहीं था।

मां का दुःख अभी भी उसका स्वयं का था। मां की परेशानी अभी भी उसकी स्वयं की थी। मां की चिन्ता अभी भी उसकी स्वयं की थी। नहीं था तो उसका बेटा ही अपना नहीं था।

चित्र गूगल छवियों से साभार

सोमवार, 24 जनवरी 2011

नारी की बदलती छवि को दर्शाता आलेख -- कुमारेन्द्र

परिवर्तन की दिशा : नारी की बदलती छवि

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परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है और इस सत्य का उद्घाटन समाज और उसके अंगों-अपांगों पर समय-समय पर होता रहता है। समाज का ही एक अंग होने के कारण साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। हिन्दी साहित्य ने अपने आर्विभाव से अद्यतन परिवर्तन के विविध चरणों को एकदम नजदीक से देखा और महसूस किया है। इन्हीं विविध चरणों को हम हिन्दी साहित्य में काल विभाजन की दृष्टि से स्वीकार करते हैं।

आदिकाल से लेकर अद्यानुतन चलती आ रही साहित्यिक परम्पराओं में युगकारी परिवर्तन देखने को मिले। इनमें सम्बन्धित युग की प्रवृत्तियाँ-परिस्थितियाँ स्पष्ट रूप से साहित्य को प्रभावित करती रही हैं। प्रत्येक युग की प्रवृत्तियाँ भी तत्कालीन युग के परिवर्तन को इंगित करती रहीं हैं और स्वयं को युगीन बोध के अनुसार परिवर्तित भी करती रही हैं।

आधुनिक काल के साहित्य पर दृष्टिपात करें तो स्पष्ट होता है कि इस कालखण्ड में परिवर्तन की दिशाएँ विविध एवं तीव्रतम रहीं हैं। स्वतन्त्रता आन्दोलन के युग में उत्पन्न हुई साहित्यिक एवं सामाजिक चेतना ने परिवर्तन की दिशा निर्धारित की। इस युग के साहित्य ने पूर्व साहित्य के इतर मानवीय संवेदनाओं को इंगित करने वाली परम्परा पर विशेष बल दिया। मानवीय संवेदनाओं और युगीन बोध ने साहित्य को बँधी-बँधाई परिपाटी से परिवर्तित कर एक नई दिशा प्रदान की।

मनोरंजन, ऐयारी, जासूसी साहित्य सर्जना से इतर मानवीय संवेदनाओं और क्रिया-कलापों को केन्द्र में रखकर साहित्य-रचना ही जा रही थी। तत्कालीन युग-बोध को दर्शाने के साथ-साथ स्त्री को भी साहित्य के केन्द्र में रखा जाने लगा था। अब स्त्री को प्यार की जागीर, उसे दासत्व जैसी स्थिति में देख साहित्यकारों को भी पीड़ा का एहसास हो रहा था। नारी अब मात्र बिलासिता और नख-शिख सौन्दर्य की वस्तु नहीं रह गई थी। साहित्य के द्वारा स्त्रियों की दशा का चित्रण कर उनके समाधान का आधार भी निर्मित किया जा रहा था। राजा राममोहन राय, महर्षि कर्वे, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती जैसे समाज-सुधारकों के प्रयासों के परिणामस्वरूप लाला श्रीनिवास दास, श्रद्धानन्द किल्लौरी, बालकृष्ण भट्ट, किशोरीनसन गोस्वामी, भारतेन्दु हरिश्चन्द आदि जैसे साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा नारी-शिक्षा, नारी समस्या उन्मूलन जैसे विषयों को सामने ला रहे थे। इस युग में सामाजिक उपन्यासों के द्वारा जुआ, शराब, वेश्या-नृत्य, चाटुकारिता आदि बुराइयों का पर्दाफाश कर समाज को सही राह पर चलने की दिशा दी जा रही थी।

स्वाधीनता आन्दोलन में स्त्रियों की सशक्त भूमिका ने साहित्य में भी स्त्रियों की भूमिका को परिवर्तित किया। नारी-शिक्षा को लेकर रचे जा रहे ग्रन्थों से परिवर्तित होकर साहित्य की दिशा नारी के बंधनों को तोड़ने की दिशा में बढ़ गई। द्विवेदी युग में राष्ट्रवादी कवयित्री राजरानी देवी ने राष्ट्र की स्वतन्त्रता के साथ-साथ स्त्री स्वतन्त्रता की भी आवाज उठाई।

राजरानी देवी ने स्त्री को किसी भी प्रकार के बंधनों में न बँधकर स्वतन्त्र बनने का संदेश दिया। वे स्त्रियों का आहवान भी करती हैं-
‘सोच लो, संसार के कांतार में,
बद्ध होकर यदि जिए तो क्या जिए?
कर्म के स्वच्छन्द, सुखमय क्षेत्र में,
किंकिणी के साथ भी तलवार हो।’

इसी युग में नारी स्वयं भी लेखन के द्वारा अपनी समस्याओं और उनके समाधान को खोजती नजर आई। बंग महिला (राजेन्द्र बाला घोषा) की कहानी ‘दुलाईवाली’ को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी स्वीकारना महिला सशक्तीकरण की आधारभूमि तैयार करना ही था। इस कहानी में स्त्रीचेतना और स्त्री सरोकार को एक स्त्री की दृष्टि से ही दिखा कर स्त्री की भूमिका को प्रतीकात्मक ढंग से सशक्त रूप में दर्शाया गया था। बंग महिला द्वारा साहित्य लेखन को इस कारण से भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि इस समय गोपालदास गहमरी और देवकीनन्दन खत्री जैसे स्थापित पुरुष साहित्यकार साहित्य-सर्जना कर रहे थे वहाँ बंग महिला ने नारी-सुधार जैसे विषय को केन्द्र बना कर लिखी कहानी से स्त्री चेतना और सशक्तीकरण की दिशा तय की।

नारी-शक्ति लगातार साहित्य-सर्जना की ओर प्रवृत्त हो रही थी। यशोदा देवी, प्रियंवदा देवी, शारदा देवी जैसी लेखिकाओं ने महिला शक्ति को, अस्तित्व को स्वर प्रदान किया। समय परिवर्तित होता रहा, प्रवृत्तियाँ लगातार बदलती रहीं और इसी परिवर्तन के साथ-साथ स्त्री चेतना के स्वरों में भी परिवर्तन होते रहे। सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ देने के आहवान, बंधनों से मुक्ति के प्रयासों को मुखरता महादेवी वर्मा के आने से मिली। छायावादी सात्विक नारी प्रेम की भावना से इतर महादेवी वर्मा ने नारी-स्वर को ओज देकर ‘स्त्री-विमर्श’ की स्थापना हिन्दी साहित्य में की। प्रसाद की नारी की उज्ज्वल, पावन छवि के साथ-साथ जो सामाजिक स्थिति बनी इस छवि की दीनता और असहायता की स्थिति को निराला ने ‘विधवा’ तथा ‘तोड़ती पत्थर’ जैसी रचनाओं के द्वारा दर्शाया। इन्हीं के समकालीन पन्त नारी को भोग का साधन अथवा वासना तृप्ति का साधन मात्र न स्वीकार कर उसे भी एक मानवीय स्वरूप प्रदान करते दिखे।

महादेवी वर्मा ने नारी की इन परम्परागत छवियों से अलग सशक्त चरित्र, जीवट व्यक्तित्व एवं स्वतन्त्र अस्तित्व छवि का निर्माण किया। महादेवी वर्मा ने परिवार और समाज के बंधनों में सिर्फ नारी के बँधने का विरोध किया। परिवार और समाज के इन बंधनों का विरोध करती हुईं वे ‘पथ के साथी’ में कहती भी हैं- ‘‘समाज और परिवार व्यक्ति को बंधन में बाँधार रखते हैं। ....ये बंधन व्यक्तित्व के विकास में सहायता करने के बदले बाधा पहुँचाते लगते हैं। ये बंधन कितने ही अच्छे उछ्देश्य से क्यों न नियत किये गये हों, हैं बंधन ही और जहाँ बंधन है वहाँ असंतोष तथा क्रांति है।’’ महादेवी वर्मा इसी क्रांति की ज्वाला ‘शृंखला की कड़ियाँ’ कृति के द्वारा तत्कालीन नारियों के मघ्य प्रज्ज्वलित करतीं हैं।

लगातार होते साहित्यिक परिवर्तनों ने नारी के व्यक्तित्व को स्वतन्त्रता प्रदान की। इस स्वतन्त्रता ने स्त्री को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ-साथ सामाजिक-पारिवारिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक स्वतन्त्रता प्रदान की। नारी की स्वतन्त्रता मुखर होकर साहित्य में नवीन दिशाओं का निर्माण करती दिखी। सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति, आराधना योग्य देवी की स्वीकार्य छवि से इतर वह उच्छृंखल छवि का निर्माण करने लगी। परम्पराओं और मूल्यों के बंधनों को तोड़कर वह ‘बोल्ड’ लेखन ओैर ‘बोल्ड’ चरित्र प्रदर्शित करने लगी। मानसिक-शारीरिक-यौनिक स्वतन्त्रता ने यद्यपि नारी छवि को परम्परागत भारतीय नारी छवि से अलग पहचान दी साथ ही साथ इस छवि को आरोपित भी किया। इन सबके बाद भी वह अपनी बेलाग, बेलौस, स्वच्छन्द छवि से साहित्य में नवीन प्रवृतियों और दिशाओं को जन्मने लगी।

नया कालखण्ड, नया युगबोध और स्त्री-चरित्र को लेकर स्थापित होती नई परिवर्तनकारी अवस्थाओं ने स्त्री-चेतना को स्वच्छन्द यौनिक अवस्था में परिवर्तित कर दिया। अब नारी साहित्य के द्वारा सोचती है कि पुरुष वेश्यालय कब खुलेंगे? उसके नारी पात्र एक साथ कई पुरुषों की शारीरिक शक्ति का परीक्षण करने लगे। अपनी विशिष्ट दैहिक संरचना की स्वीकारोक्ति से अपने अंगों-उपांगों के चित्रण और उनकी सौन्दर्यानुभूति को स्वयं प्रदर्शित करने लगी। माँग के सिन्दूर, सिर के आँचल, पैरों की पायल-बिछिया, व्रतों-त्योहार का बहिष्कार सा कर स्वतन्त्र नारी ने स्वतन्त्र अस्तित्व की अवधारणा निर्मित की। साहित्य सर्जना करती नारी, उसके नारी-पात्र स्वतन्त्र यौन सम्बन्ध्ाों को बनाने में, सेक्स पार्टनर बदलने में, विवाहेत्तर अथवा विवाहपूर्व शारीरिक सम्बन्धों को बनाने में, अनब्याही माँ बनने में, अविवाहित जीवन व्यतीत करने में किसी तरह का अपराध-बोध नहीं स्वीकारते हैं। स्वीकारें भी क्यों, आखिर साहित्य की परिवर्तित होती दशाओं और दिशाओं ने स्त्री को स्वतन्त्र मानवीय पहचान प्रदान की है।

नारी की परिवर्तित छवि से, उसकी स्वतन्त्र, स्वच्छन्द, उच्छृंखल मानसिक सोच से सामाजिक संरचना, पारिवारिक संरचना, सामाजिक सरोकारों, जीवन-मूल्यों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह अलग से चिन्तन का विषय है। परिवर्तन की दृष्टि से नारी की परम्परागत छवि का विखण्डित होना रूढ़ियों, सड़ी-गली मान्यताओं, पुरुषजन्य विकृत सोच को परिवर्तित करता है। यह कहीं न कहीं स्वस्थ समाज के निर्माण का कार्य भी करता है।

रविवार, 9 जनवरी 2011

भोजपुरी लोकगीतों का माधुर्य -- आलेख

भोजपुरी लोकगीतों का माधुर्य
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‘लोक’ शब्द अपने आप में ही विशालता का अनुभव कराता है। वर्तमान में ‘लोक’ को अंग्रेजी के ‘फोक’ से जोड़कर उसके अर्थ को संकुचित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारतीय संस्कृति में लोक को हमेशा से ही विशेष स्थान प्राप्त रहा है। इसको त्रिलोक -पृथ्वी, आकाश, पाताल- के रूप में देखा और समझा जा सकता है।

‘लोक’ की महत्ता और सौन्दर्य का परिपाक लोकगीतों में आसानी से होता है। देश की संस्कृति में लोकजीवन का विशेष महत्व रहा है और इसी महत्ता के चलते लोकगीतों ने भी विशेष भाव प्राप्त किया है। देश का कोई भी भू-भाग रहा हो, कोई भी सांस्कृतिक विरासत रही हो, कोई भी भाषा, धर्म, जाति रहे हों, लोकगीतों ने सभी को परे रखकर अपने माधुर्य से समूचे देश का मन मोहा है।

भोजपुरी लोकगीतों में भी कुछ ऐसा ही माधुर्य दिखलाई और सुनाई देता है जो इस भाषा के गैर-जानकारों को भी मंत्र-मुग्ध करता है। इन लोकगीतों में जीवन के किसी एक पक्ष की नहीं वरन् समूची मानस परम्परा की अनुभूति होती दिखाई देती है। लोकगीत मानव-मन की सरल और सहज अभिव्यक्ति होते हैं और यही सहजता, सरलता आमजन को प्रभावित किये बिना नहीं रहती है।

यह सत्य है कि किसी भी देश की, समाज की सभ्यता और संस्कृति से परिचय वहाँ की भाषा से होती है किन्तु इसमें भी कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि लोकगीतों के माध्यम से भी किसी क्षेत्र की, समाज की, भाषा की संस्कृति को देखा-परखा जा सकता है। भोजपुरी को आमतौर पर एक क्षेत्र विशेष की, एक अंचल विशेष की भाषा कहा जाता है। इसे लोकभाषा के रूप में भी पहचान प्राप्त है। इसके बाद भी इस भाषा का विस्तार देश के प्रत्येक राज्य में होने के साथ-साथ विदेशों तक में है। इसके पीछे शायद इस भाषा का माधुर्य और लालित्यपूर्ण होना रहा है। प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने कहा भी है-‘‘भोजपुरी सशक्त लोकभाषा है तथा उसमें भारत की धरती की उर्वरता और उसके आकाश की व्यापकता एक साथ मिल जाते हैं।’’

इसी धरती और आकाश की एकात्मकता पैदा करने की शक्ति भोजपुरी लोकगीतों में है। वाचिक परम्परा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होकर आते लोकगीतों के संरक्षण-संवर्द्धन का कार्य लोक-परम्पराओं के द्वारा होता रहता है। आम जीवन में होने वाले कार्यों, धार्मिक अनुष्ठानों, वैवाहिक संस्कारों आदि में लोकगीतों का गायन होता रहता है। लोकवाणी के रूप में ख्यात लोकगीतों को लोकसंस्कृति और लोकला के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। लोकगीतों से व्यक्ति का रागात्मक सम्बन्ध होने के साथ-साथ संस्कारगत् सम्बन्ध भी होता है। यही कारण है कि भाषा-शैली, बोली, गायन की भिन्नता होने के बाद भी लोकगीत प्रत्येक व्यक्ति को झूमने पर मजबूर कर देते हैं।

भोजपुरी लोकगीतों में लोकजीवन, संस्कारों मात्र की झाँकी ही नहीं दिखती अपितु उसमें राष्ट्रीय चेतना, नारी स्वाभिमान, आम जन-जीवन के दृश्य, धार्मिक अनुष्ठान आदि के साथ-साथ सामाजिक संदेश भी दिखाई देते हैं। मानव-मन की संवेदनशीलता और उसकी कल्पना की उड़ान धरती से लेकर आकाश की ऊँचाइयों तक जा सकती है। परम्पराओं का उद्वेग उनमें हो सकता है, मानवीय क्रियाकलापों का प्रतिबिम्ब भी दृष्टिगोचर हो सकता है। इन लोकगीतों ने विशुद्ध रूप में मानवीय मन को, क्रियाकलापों को अपने में संजोया है।


राष्ट्रीय चेतना

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भोजपुरी लोक-साहित्य राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत है और इसकी प्रतिच्छाया लोकगीतों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। अंग्रेजी शासन की यातना और बर्बरता से सभी का हृदय द्रवित हो उठता था। इस क्रूर शासन के विरुद्ध संघर्ष करने वालों में सभी वर्गों के लोग शामिल थे। क्या निर्धन, क्या धनवान, निरक्षर, साक्षर, मजदूर, किसान, छात्र, नौकरीपेशा आदि-आदि सभी किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत देश-प्रेम की लहर में बह रहे थे। इस राष्ट्रीय चेतना का संचार करने में लोकगीतों की महती भूमिका कही जा सकती है। इन लोकगीतों में आमजन का दुख स्पष्ट दिखलाई देता है-

‘अपने देष के करनवा जेकि जूझि गइले ना।
केतने माई के ललनवा हाय, मरि गइले ना।।’

राष्ट्रीय चेतना का उत्स इसी को कहा जायेगा कि पुरुष और युवा ही इस आन्दोलन में सक्रियता से नहीं जुड़ा रहा था। महात्मा गाँधी का जनोत्थान और जन जागरण सभी के मध्य फैल चुका था, परिणामतः घर की महिलाएँ भी इस आन्दोलन में स्वयं को पीछे नहीं रखना चाहतीं थीं। गाँधीजी की चरखा क्रांति ने कैसे महिलाओं को जागरूक किया, इसकी एक बानगी भर है यहाँ-

‘चरखा कातो मानो गाँधीजी की बतिया।
विपतिया कट जइहै ननदी।
करे तू सूत जौन तइयार ले जाये स्वदेषी भंडार।
बेच के पइसा लेके खायें दुनों बखतिया।’

स्वतन्त्रता आन्दोलन में स्त्रियों का महती योगदान रहा है। उन्होंने न केवल अपने पतियों को इस अभियान से जोड़ा था वरन् पूरे परिवार के साथ मिलकर स्वाभिमान के साथ इस आजादी के यज्ञ में आहुति दी थी। नारी ने आजादी की लड़ाई को अपने स्वाभिमान से जोड़कर अपनी सक्रियता से स्वराज पाने की लालसा रखी थी-

‘अब हम कातबि चरखवा पिया जानि जा हो विदेसवा।
हम कातबि चरखा तुहूं लावइ मिलिहें एही से सुरजवा।’

राष्ट्रीय चेतना का विकास इस स्तर तक रहा कि महिलाओं ने विवाह गीतों तक को राष्ट्रीय चेतना से जोड़ कर लोकगीतों का गायन कर डाला। लोकगीतों के संरक्षण और संवर्द्धन में महिलाबों का बहुत बड़ा योगदान होता है। इन्हीं के कंठों से निकल कर लोकगीत जनमानस के बीच अपनी उपस्थिति दजै करवाते हैं। विवाह के विविध संस्कारों में राष्ट्रीय चेतनायुक्त लोकगीतों का माधुर्य आज भी दिखाई देता है। इसी तरह भोजपुरी के क्रांतिकारी बाबू रघुवीर नारायण सिंह का ‘बटोहिया गीत’ आज भी अपनी हनक और धमक के साथ मौजूद है और लोकगीतों की राष्ट्रीय भावना को प्रखरता प्रदान करता है-

‘सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से, मोरे प्रान बसे हिम-खोह रे बटोहिया।
एक द्वार घेरे राम हिम-कोतवलवा से, तीन द्वार सिंधु घहरावे रे बटोहिया।
जाहु-जाहु भैया रे बटोही हिन्द देखि आउ, जहवाँ कहुँकि कोइलि बोले रे बटोहिया।

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द्रुम वट पीपल कदम्ब निम्ब आम वृक्ष, केतकी गुलाब फूल-फूले रे बटोहिया।
सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसवा से, मोरे प्रान बसे गंगा धार रे बटोहिया।’

राष्ट्रीय चेतना का ओज और जोश लोकगीतों में आसानी से दिखाई देता है। इनकी वीरता और क्रांतिकारी कदम किसी से भी छिपे नहीं हैं। जॉर्ज ग्रियर्सन ने भोजपुरी लोगों की प्रशंसा करते हुए लिखा है, भोजुपरी वाले साहसी कार्य करने हेतु उत्सुक रहते थे। जिस प्राकर आयरलैण्ड के लोग छड़ी के शौकीन हैं, उसी प्रकार हृष्ट-पुष्ट भोजपुरी लोग अपने घर से दूर अपने हाथों में लाठी लिए खेतों में काम करते हैं। लोक-संस्कृति में एक आम धारणा है चलन में है कि हिदुस्तान का यश-वैभव, वीरता-ओज, सम्मान बढ़ाने का काम बंगालियों ने अपनी कलम से किया है तो वीर भोजपुरियों ने अपने डण्डे से। भोजपुरी लोकगीतों में आज भी इस क्षेत्र की वीरता और अक्खड़पन के दृश्य आसानी से देखने-सुनने को मिल जाते हैं-

‘भागलपुर का भगेलुआ, कहल गाँव का ठग्ग।
जो पावै भोजपुरिया, तोडै दोनों का रग्ग।।’

इसी तरह अक्खड़ता को कुछ इस अंदाज में भी व्यक्त किया जाता है-

जे हमरा का जानी, ओकरा जान देइ देबि,
बाकिर जे आँख देखाई, ओकरा आँख निकालि लेबि।’


जन-जीवन की अभिव्यक्ति

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जन सामान्य हमेशा से सफल जीवन के लिए संघर्ष करता रहा है। इस संघर्ष में उसने कभी विजय प्राप्त की है तो कभी उसको हताशा हाथ लगी है। ऐसी संघर्ष की स्थितियाँ हर व्यक्ति के जीवन में आतीं रहीं हैं। इन स्थितियों, परिस्थितियों से आम आदमी दो-चार हुआ है तो उसकी अभिव्यक्ति उसने लोकगीतों में भी की है। लोकगीतों के माध्यम से व्यक्ति ने अपने हर्ष-उल्लास को दर्शाया है तो अपनी समस्याओं और विपदाओं को भी आवाज बनाकर सभी के सामने प्रस्तुत किया है। भोजपुरी लोकगीतों में यह विशेषता देखने को मिलती है कि राष्ट्रीय चेतना के स्वर दिखे हैं तो धार्मिक अनुष्ठान, पर्व आदि का उल्लास भी दिखा है। इसके साथ-साथ यहाँ के लोकगीतों में जन सामान्य की कठिनाइयाँ भी दिखाईं दीं हैं।

किसानों की समस्या हो, अलित जीवन की समस्या हो, सामंती व्यवस्था का विरोध हो, महिलाओं की करुष कथा हो सभी को लोकगीतों में स्थान दिया गया है। एक किसान की विपत्ति और दुख को स्वर देते यहाँ के लोकगीत दिखते हैं-

‘अपना जंगरवा के खाले जे कमइया
सगरे जगतिया के बाड़े जे सहइया
धरती के पुतवा के बजर करेजवा
कि सहि जाले विपत्ति अपार।’

दलितों के दुख और कष्ट को भी लोकगीतों के माध्यम से बखूबी स्वर दिया गया है। लोक से जुड़े होने के कारण लोकगीतों में आम जन की आवाज सुनाई देनी सम्भव भी है। भले ही समाज के सामने दलितों को स्वर न मिला हो किन्तु लोकगीतों ने उनके स्वर को अपना गायन देकर समूचे समाज के सामने प्रदर्शित किया है-

‘हमनीं के राति दिन दुखबा भोगत बानी,
हमनीं के साहेबे से मिनती सुनाइबि।

x x x x x


पनहीं से पिटि हाथ गोड़ तुरि देलै,
हमनी के एतनी काहे के हलकानी।।’


नारी चित्रण

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लोकगीत मानव-मन की सहज और सरल अभिव्यक्ति होते हैं। इनमें सुख-दुख, हास्य-करुणा, हर्ष-उल्लास आदि आसानी से देखने को मिलते हैं। लोकगीतों के सौन्दर्यमयी चित्रण में महिलाओं का विशेष योगदान रहा है। नारी चित्रण को इस कारण से भी लोकगीतों में स्थान दिया गया है। नारी को भारत देश में पावन और सर्वोच्च स्थान प्रदान है। इसी के चलते उसका स्वाभिमानी स्वरूप हो अथवा उसका प्रेममयी रूप, सभी का चित्रण लोकगीतों में आसानी से देखने को मिलता है। सहनशीलता की प्रतिमूर्ति मानी गई नारी के स्वाभिमान पर जब भी चोट लगी है उसने उसका प्रतिकार किया है।

भोजपुरी लोकगीतों में नारी स्वाभिमान का चित्र राम-सीता के रूप में दिखाने का प्रयास किया जाता रहा है। राम-सीता के रूप को आधार बनाकर लोकगीतों में राम के द्वारा निष्कासन को सीता द्वारा क्षमा न किया जाना, राम के सामने न आना, आत्मसम्मान के लिए स्वयं को विसर्जित कर देने जैसी भावनाओं से यहाँ के लोकगीत सजे-सँवरे दिखाई देते हैं।

इसे एक उदाहरण के रूप में कुछ इस तरह से देखा जा सकता है-

‘अइसने पुरुखवा के मुँह नाही देखबों, मिनिराम देले वनवास रे।
फटि जइती धरती अलोप होइ जइती, अब ना देखबि संसार रे।।’

इस करुणा के अलावा नारी का माता रूप भी करुणामयी माना जाता रहा है। एक माता के लिए यह बहुत ही कष्टकारी होता है कि उसके बच्चे मजदूरी करते रहें, उनका शोषण होता रहे, बिना पढ़े-लिखे ही रह जायें। ऐसे में एक माँ का कष्टों भरा दिल अपने बच्चों के लिए सिसक उठता है-

‘हमसे ना होई बनिहरिया ऐ मालिक। हमसे ना होई.....
अपना लरकवा के इसकूल भेजाइला।
हमरा लइकवा से भँइस चरवाइला।
बन माँगे जाइका ज खंखरी तउलाइला।
ओह पर कम का पसेरिया ए मालिक। हमसे ना होई....’

नारी मन अपने सभी सगे-सम्बन्धियों का भला चाहती है। संवेदनशीलता उसमें कूट-कूट कर भरी होती है। इसी संवेदनशीलता को नारी प्रकृति में भी आरोपित करती दिखती है। बादलों की फुहार हो अथवा मौसम की गर्माहट, सावन के झूलों का झूलना हो अथवा फाग के रंगों में मन का मचलना, सभी में नारी मन ने लोकगीतों की रचना कर अपनी खुशी को प्रदर्शित किया है। आकाश में छाते जा रहे काले-काले बादलों को देखकर एक महिला अपनी सहेली से उसकी बहार देखने के लिए बगीचे में चलने की जिद करती है। सावन की बारिश महिलाओं को हमेशा से लुभाती रही है। इसी कारण से बारिश शुरू हो नहीं पाई है और सखियाँ बगीचे में जाने का अवसर खोजने लगीं हैं-

‘चिड़िया चली चल बगइचा
देखत सावन की बहार
देखत फूली को बहार
सावन में फूले बेइला चमेली
भादों में कचनार
चिड़िया चली चल बगइचा।’

ऐसे मौसम में महिलाएँ अपने प्रियतम को अपने साथ ही चाहतीं हैं। भोजपुरी लोकगीतों में संयोग और वियोग के सुंदर दृश्यों का समावेश किया गया है। बाग-बगीचों में झूलों के हिंडोले, अपने प्रिय से मिलने की आस, किसी के प्रियतम का पास न होने पर उस नारी का दुख आदि को लोकगीतों में स्वर दिया गया है। वर्षा होने पर भी पति का न आना पत्नी को परेशान करता है और उसके वियोग के इस भाव को लोकगीतों में कुछ इस तरह से व्यक्त किया गया है-

‘बादर बरसे बिजुरी चमके, जियरा ललचे मोर सखिया।
सैंया घरे ना अइलैं, पानी बरसन लाग मोर सखिया।।’

महिलाओं की अपने प्रिय से विरह की स्थिति के साथ-साथ अपने किसी प्रियजन से भी बिछोह की स्थिति को भोजपुरी लोकगीतों में दर्शाया गया है। भाई-बहिन के आपसी स्नेह और किसी विशेष अवसर पर किसी एक की कमी दूसरे को रुला देती है। ऐसे ही एक बहिन अपनी बेटी की शादी के समय अपने भाई का इंतजार करती है और भाई के न आने पर दुखी भी हो जाती है। इस दुख में वह रोते-रोते कहती है-

‘ढरि-ढरि बरसे पुतरिया
दुवरिया पर कब अइब बिरना।
ताना मारी सगरो जवरिया
दुवरिया कब अइब बिरना।।’


सामाजिक संदेश
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भोजपुरी लोकगीतों में इसके अतिरिक्त हमें सामाजिक संदेश भी दिखाई देते हैं। इन सामाजिक संदेशों में विशेष रूप से पर्यावरण संरक्षण के प्रति जोर दिया गया है। वृक्षों को विविध कार्यों से जोड़कर उसको पूज्य बना देने की भारतीय संस्कृति का अनुपालन इन लोकगीतों में होता भली-भाँति दिखता है। पेड़ों के महत्व को ध्यान में रखते हुए कहीं उसके द्वारा पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है तो कहीं उसके द्वारा लक्ष्मी की आराधना की जाती है। पेड़-पौधों में तुलसी की उपयोगिता को पहचान कर उसके विवाह की परम्परा यहाँ के अंचल में पाई जाती है। इस विवाह का मुख्य उद्देश्य तुलसी की उपयोगिता को देखते हुए उसे घर-घर तक प्रतिष्ठित करना है।

इसी तरह अन्य दूसरे वृक्षों में किसी न किसी देवता का वास दिखाकर उसको महत्वपूर्ण बना दिया है। पीपल में लक्ष्मी जी का वास बताकर विभिन्न लोकगीतों के माध्यम से पीपल की आराधना, पूजा करते दिखाया गया है-

‘पीपल सींचन मैं गई, अपने कुल की लाज।
पीपल सींचा कहि मिले, एक पंथ दो काज।।’

पीपल के अतिरिक्त अनार, नीबू, जामुन, महुआ आदि का सुरक्षा और पर्यावरण की दृष्टि से भी लोकगीतों में समावेश किया गया है। विभिन्न लोकगीतों में इन वृक्षों के नामों का उल्लेख साबित करता है कि यहाँ का जनमानस वृक्षों की सुरक्षा के प्रति, पर्यावरण के प्रति कितना सचेत है-

‘टूटी फूटी बँसवा सं निकली महारानी,
हो कि बेइलिया तरे ना,
कल्ली अपनो बसेड़ वा,
हो बेइलिया तरे ना।’

लोकसंस्कृति में हमेशा से पर्यावरण को महत्व दिया जाता रहा है। इसी कारण से भोजपुरी लोकगीतों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का भाव दिखाई देता है। मनुष्य और वृक्षों का अपसी तालमेल, वृक्षों में देवताओं का वास, वृक्षों के द्वारा मनोकामना पूर्ण होने की परम्परा का पालन आदि सभी कुछ पेड़-पौधों के प्रति प्रेम को दर्शाता है।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भोजपुरी लोकजीवन में विशालता और विशदता देखने को मिलती है। लोक-संस्कृति के इस स्वरूप को लोकगीतो के माध्यम से आसानी से देखा-सुना जा सकता है। सामाजिक जीवन का चित्रण हो, पारिवारिक प्रेम-स्नेह का चित्रण हो अथवा आपसी सम्बन्धों-रिश्तों की चुहल सभी को यहाँ के लोकगीतों में विशेष रूप से दर्शाया गया है। लोक का सम्बन्ध चूँकि आम जन से रहा है इस कारण आमजन से सम्बन्धि विविध पक्षों का उद्घाटन भी इन लोकगीतों में होता दिखता है। लोक की सर्वहितकारी भावना, सर्वजन सुखाय की भावना लोकगीतों में प्रचुरता से देखने को मिलती है। हृदय की अनुभूतियों को वातावरण और परिस्थितियों से तादाम्य स्थापित कर जनमानस के बीच फैलाने का कार्य लोकगीतों में आसानी से हुआ है। इस प्रयास में भोजपुरी लोकगीत भी किसी से कमतर नहीं दिखते हैं। इन लोकगीतों का लालित्य और माधुर्य ही है जो सभी को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। अपने गायन पर झूमने पर मजबूर करता है।