ओ मौत! तुझे बिन बुलाये
आना न था,
गर आना था तो इतना शोर
मचाना न था.
माना कि गिर गया था सम्बल का
स्तम्भ एक,
आधार विश्वास का कुछ-कुछ
गया था दरक,
बिछाई थी बिसात क्रूर काल ने
अपने हाथों से,
कोशिश थी मात देने की उसकी
अपनी चालों से,
वक्त से बिना लड़े इस तरह हार
जाना न था,
ओ मौत! तुझे बिन बुलाये
आना न था.
क्षितिज पर छाई थी निस्तब्धता
और ख़ामोशी,
सिसकियाँ भयावह सन्नाटों में
धड़कनों-साँसों की,
जीवन-डोर का छूटना और
पकड़ना बार-बार,
अंधकार में डूबती आँखें खोजती
रौशनी का द्वार,
ज़िन्दगी को चमकने के पहले
बुझाना न था,
ओ मौत! तुझे बिन बुलाये
आना न था,
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कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र22.04.2025
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