मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

ओ मौत! तुझे बिन बुलाये आना न था

ओ मौत! तुझे बिन बुलाये  

आना न था,

गर आना था तो इतना शोर

मचाना न था.

 

माना कि गिर गया था सम्बल का

स्तम्भ एक,

आधार विश्वास का कुछ-कुछ

गया था दरक,

बिछाई थी बिसात क्रूर काल ने

अपने हाथों से,

कोशिश थी मात देने की उसकी

अपनी चालों से,

वक्त से बिना लड़े इस तरह हार

जाना न था,

ओ मौत! तुझे बिन बुलाये

आना न था.

 

क्षितिज पर छाई थी निस्तब्धता

और ख़ामोशी,

सिसकियाँ भयावह सन्नाटों में

धड़कनों-साँसों की,

जीवन-डोर का छूटना और

पकड़ना बार-बार,

अंधकार में डूबती आँखें खोजती

रौशनी का द्वार,

ज़िन्दगी को चमकने के पहले

बुझाना न था,

ओ मौत! तुझे बिन बुलाये

आना न था,


+
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
22.04.2025

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