शनिवार, 31 मई 2008

मन का रोंदन किसने जाना।

स्पंदन के प्रधान संपादक डॉ० ब्रजेश कुमार जी की कविता
जग ने देखी वह मुक्त हंसी, मन का रोंदन किसने जाना।
किसने समझा हर धड़कन में, सौ-सौ संसार पला होगा।।
मुस्का कर जग ने छीना,
सुख सपनों का संसार मेरा।
दो टूक खिलौने के लेकर,
सीखा दुल्राना प्यार तेरा।
सबने देखी मुख की शोभा, अन्तर का तम किसने जाना।
किसने समझा हर ज्वाला में, सौ-सौ विश्वास जला होगा॥
चाहा था हम हंस लें जी भर,
कलियों को आँचल में भर लें।
सपने मुस्का कर खिल जायें,
आकाश को बढकर के छू लें।
सबने देखी वह क्षितिज रेख, बिछुदन का दुःख किसने जाना।
किसने समझा हर चितवन में, सौ-सौ वरदान डाला होगा॥
जो टकरा कर तट से लौटे,
वह मेरे मन की चाह नहीं।
भवरों में पड़ कर खो जाए,
वह मेरी अपनी आह नहीं।
सबने देखी लहरें चंचल, तल का पत्थर किसने जाना।
किसने समझा हर ठोकर में, सौ-सौ पग प्राण चला होगा॥

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