नंगत्व की विभिन्न प्रजातियाँ
कुमारेन्द्र
किशोरीमहेन्द्र
+++++++++++++++++
परिधानयुक्त समाज में
परिधान-मुक्तता अपने आपमें एक आन्दोलन सरीखा है. आदि मानव ने जितनी मेहनत के बाद
कपड़ों, वस्त्रों का निर्माण करके मनुष्य को परिधानयुक्त बनाया, मानव ने उतनी ही
सहजता से स्वयं को वस्त्र-विहीन करने का कदम उठाया. इस वस्त्र-विहीनता को भी
विभिन्न तरीके से, विभिन्न विद्वतजनों ने, विभिन्न परिभाषाओं में आबद्ध किया है. पूर्णतः
वस्त्र-विहीन विचरण करने वालों को जानवर की संज्ञा से सुशोभित किया गया. इस वर्ग
में ऐसे जीव को रखा गया जिसने परिधानों के बंधन को कभी स्वीकार ही नहीं किया.
पूर्ण प्राकृतिक परिवेश में विचरता यह जीव जब कभी मनुष्य के दांव-पेंच का शिकार हो
बंधन-युक्त हो जाता है, तो यदा-कदा मौसम की मार से बचने के लिए मनुष्य रूप में
विचरते पशु के द्वारा अल्प-परिधान बंधन में बाँध दिया जाता है. इसी प्रकार से एक
अन्य प्रजाति, जो वस्त्र-युक्त होते हुए भी गाहे-बगाहे वस्त्र-मुक्त, वस्त्र-विहीन
होने की कोशिश करती है. कलाकारों की श्रेणी में विचरण करता यह नग्न प्राणी कभी
स्वयं वस्त्र-मुक्त होता है तो कभी किसी और को वस्त्र-विहीन करता है. एक स्थिति
में यह खुद को मॉडल के रूप में प्रदर्शित करता है तो दूसरे रूप में यह पेंट, ब्रश,
कैनवास की रंगीनियों के मध्य चित्रकार की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है. इन्हीं के
बीच कभी-कभी एक ऐसी भी प्रजाति देखने को मिल जाती है जो परिधानों से सुसज्जित होने
के बाद भी परिधान-विहीन दिखाई देती है. इस प्रजाति के लिए परिधानों का होना, न
होना एक समान भाव में होता है. इसके परिधान कभी अपने आप ढलक जाते हैं, तो कभी-कभी
इनके उठने-बैठने से इनको परिधान-विहीन बना देते हैं. ये अत्यंत उच्च श्रेणी की
प्रजाति होती है जो पेज थ्री पर शोभायमान होती है और इसके लिए परिधानों के साथ
परिधान-विहीन दिखना स्टेटस सिम्बल माना जाता है. ऐसा न हो पाने, न पर पाने वाली
प्रजाति अक्सर फूहड़ कहलाती है.
.
वस्त्र-विहीनता की
इन स्थितियों को सभ्यता का मुलम्मा चढ़ाकर नग्न, अर्द्ध-नग्न, टॉपलेस आदि-आदि के नामों
से पुकारा-पहचाना जाता है, वहीं आम, अनौपचारिक बातचीत में ये सभी वस्त्र-विहीन
प्रजातियाँ ‘नंगे’ ही कहे जाते हैं. कई बार लगता है कि इन परिधान-संपन्न
प्रजातियों को जो वस्त्र-विहीन होने को आतुर रहती हैं, वे चाहे स्त्री हों या
पुरुष, प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है. समाज का बहुत-बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो
समूची देह को वस्त्रों के बंधन में किये रहता है. प्राकृतिक आबो-हवा से दूर रखना
भी देह के साथ ज्यादती ही है और किसी भी देश का कानून किसी की भी देह के साथ
ज्यादती करने की अनुमति नहीं देता है. इसके अलावा ये लोग कहीं न कहीं अपनी-अपनी
जड़ों की ओर लौट रहे हैं, इस कारण से भी इनका स्वागत होना चाहिए. आखिर हम सभी लोग
चाहते हैं, मानते हैं कि इंसान आधुनिक होते जाने के चलते अपनी जड़ों से कटता जा रहा
है, ये तमाम प्रजातियाँ प्रयासरत हैं कि भले ही पागलपन के नाम पर, भले ही मॉडलिंग
के नाम पर, भले ही चित्रकारी के नाम पर, भले ही कलाकारी के नाम पर, भले ही
कलात्मकता के नाम पर वस्त्र-विहीन ही क्यों न होना पड़े किन्तु अपनी जड़ों से समाज
के बहुसंख्यक वर्ग को जोड़ने का कार्य किया जायेगा, लोगों को वस्त्र-मुक्ति आन्दोलन
की ओर अग्रसर किया जायेगा. परिधान के बंधनों से परिधान-मुक्तता की ओर चलता,
आधुनिकता से अपनी जड़ों की ओर लौटता इनका आन्दोलन सफलता की राह अग्रसर है आखिर
इन्हीं जैसे चंद लोग संस्कृति, सभ्यता का नित्य ही बलात्कार कर पाशविकता को जन्म
दे रहे हैं; आग के गोलों, बमों के धमाकों के द्वारा बस्तियों को गुफाओं-कंदराओं
में बदल रहे हैं; इंसानों को मार-मार कर कबीलाई मानसिकता का परिचय दे रहे हैं. काश!
परिधान इनको बंधन का नहीं अलंकरण का पर्याय समझ आता?
. © कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें