गणतंत्र विकास हेतु प्रत्येक नागरिक
रहे जागरूक
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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हमारा स्वतंत्र देश भारत, विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक
राष्ट्रों में शामिल इस देश को की अद्भुत संरचना है। पंद्रह अगस्त को स्वतंत्रता
के पश्चात् इस देश में गणतांत्रिक प्रक्रिया की आधारशिला भी रखी गई। ये अपने आपमें
एक विशिष्ट अवसर कहा जा सकता है जबकि वर्षों की गुलामी से आज़ादी पाने के साथ ही
देश-विभाजन का दंश, दंगों के घाव को पाने के बाद भी देश ने अपना संविधान, अपना
गणतंत्र विकसित किया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान
को लागू किया गया और माना गया कि भारत एक गणतांत्रिक देश है। देश में भारत
के संविधान को लागू किए जाने के पूर्व भी 26 जनवरी का अपना
महत्त्व था। 31 दिसंबर सन् 1929 को लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित किया
गया, जिसमें इस बात की घोषणा की गई कि यदि अंग्रेजी सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन
स्टेटस) प्रदान नहीं करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। जैसा कि
अंदेशा था कि अंग्रेजी सरकार कुछ नहीं करेगी, वाकई उसने कुछ नहीं किया. तब
कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए अपना सक्रिय आंदोलन शुरू
कर दिया। इसी लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगे झंडे को भी फहराया गया और
सर्वसम्मति से ये भी फैसला लिया गया कि प्रतिवर्ष 26 जनवरी को
पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन सभी स्वतंत्रता सेनानी पूर्ण
स्वराज का प्रचार करेंगे। इस तरह 26 जनवरी अघोषित रूप से
भारत का स्वतंत्रता दिवस बन गया था। उस दिन से 1947 में
स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप
में मनाया जाता रहा। कालांतर में जब इस तिथि को संविधान लागू किया गया तो 26
जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
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गणतंत्र शब्द का आशय एक ऐसी व्यवस्था से लगाई जा सकती है जहाँ
सबके लिए सामान रूप से व्यवस्थाएं कार्य करती हैं; जहाँ राज्य सञ्चालन होने के बाद
भी एक सर्वोच्च संस्था कार्य करती है। वर्तमान में इसी गणतंत्र को लोकतंत्र के नाम
से भी समझा जा सकता है। यहाँ हम गणतंत्र की सैद्धांतिक व्याख्या करने के स्थान पर
उसके व्यावहारिक पक्षों का आकलन करें तो पाएंगे कि आज़ादी के बाद के वर्षों में
हमने गणतांत्रिक व्यवस्था का दुरूपयोग ही अधिक किया है। जहाँ एक और गणतंत्र का
पालन करने में राज्य-संघ का अपना अलग रवैया रहा है वहीं आम नागरिकों ने भी गणतंत्र
की आत्मा के साथ छल किया है। यहाँ दोनों पक्षों के कार्यों का आकलन करना भी समीचीन
है क्योंकि न तो राज्यों-संघ अकेले से गणतंत्र का सञ्चालन सुगमता से होने वाला है
और न ही सिर्फ नागरिकों के जिम्मे इसको सहजता से चलाया जा सकता है। यदि
केंद्र-राज्य को एक संस्था के रूप में और नागरिकों को भी एक स्वतंत्र संस्था के
रूप में मन लिया जाये तो देखने में आया है कि दोनों संस्थाओं ने अपनी-अपनी
भूमिकाओं के साथ न्याय नहीं किया और कहीं न कहीं गणतंत्र की मूल भावना को चोट
पहुँचाई है।
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यदि राजनैतिक दलों या कहें कि केंद्र-राज्य सञ्चालन करने वाले
दलों, सदन में बैठने वाले दलों, उनके प्रतिनिधियों के कार्यों की चर्चा की जाये तो
कहीं न कहीं ये लोग कालिख लगे नजर आते हैं। देश हित सर्वोपरि के स्थान पर इनके
द्वारा स्वार्थमय राजनीति की जाने लगी। तुष्टिकरण की नीति, किसी भी रूप से सत्ता
प्राप्त हो की नीति इनके लिए प्रभावी भूमिका निभाने लगी और इसी का दुष्परिणाम ये
हुआ कि देश की संसद को भी शर्मसार होना पड़ा तो कई-कई राज्यों के सदन भी इन जन-प्रतिनिधियों
के आपसी झगड़ों के शर्मनाक कृत्यों के गवाह बने। संविधान का निर्माण करने वाले
विद्वानों को कभी इस बात का अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि देश की संसद में कभी
संख्याबल के लिए जोड़-तोड़ की, खरीद-फरोख्त की राजनीति की जाने लगेगी; उन्होंने कभी
इस पर भी विचार नहीं किया होगा कि देश के राजनेता, राजनैतिक दल कभी सत्ता के लालच
में किसी निर्दलीय को भी राज्य का मुख्यमंत्री बना देंगे। इस देश में राजनैतिक
रोटियां सेंकने के लिए वो-वो सब हुआ जो संविधान रचने वालों ने स्वप्न में भी नहीं
सोचा होगा। देश की संसद में ऐसा प्रधानमंत्री भी आया जो सदन में नहीं आ सका; संसद
में ऐसे व्यक्ति के हाथों में सत्ता दी गई जिसके पास समूचे सदन की संख्या का दसवां
हिस्सा तक नहीं था; संसद में ही रिश्वत काण्ड के खुलासे के लिए नोटों को उछाला
गया; जहाँ प्रधानमंत्री को रिश्वत के लिए कटघरे में खड़ा किया गया; जहाँ एक समय ऐसा
भी आया जबकि देश का प्रधानमंत्री उसी सदन का निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं था। ये सारी
स्थितियां वे रहीं जिन पर कभी गर्व नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा स्वार्थपरक,
तुष्टिकरण की राजनीति ने देश को कैसे-कैसे दिन, कैसी-कैसी घटनाएँ दिखाई कहना कठिन
है, समझना उससे भी अधिक कठिन है।
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गणतंत्र को मजाक समझने की स्थिति में मात्र राजनेता ही आगे
नहीं रहे वरन आम नागरिकों ने भी संविधान का, गणतंत्र का मखौल बनाया है। अधिकार
पाने की होड़ लगातार नागरिकों में दिखाई दी किन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति एक तरह
की नकारात्मकता देखने को मिली। यही कारण रहा कि आम इंसान के मन में न तो देश की
संसद के प्रति सम्मान रहा, न राजनीति के प्रति, न राजनीतिज्ञों के प्रति। विडम्बना
तो इस बात की है कि महज राष्ट्रीय पर्वों पर देशभक्ति गीतों के गाने बजाने;
देशभक्ति के नाम पर सड़कों पर बेतरतीब बाइक चलाने, हुडदंग करने; आज़ादी के नाम पर
खुद को दूसरे पर कब्ज़ा जमा लेने की मानसिकता रखने; सरकारी संपत्ति को बर्बाद करने
की वस्तु मानने; रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि को समाज की वास्तविकता स्वीकार्य मानने को
ही वास्तविक गणतंत्र समझा जाने लगा। महिलाओं के साथ अपराध, पारिवारिक हिंसा,
लूटमार, हत्या, जबरन कब्ज़ा करने की मानसिकता, अपहरण आदि ऐसी स्थितियां हैं जो
कदापि गणतंत्र के अनुकूल नहीं कही जा सकती हैं। स्वतंत्रता का दुरूपयोग करके, अपने
को सर्वोच्च सिद्ध करने की मानसिकता ने गणतांत्रिक व्यवस्था का रूप विकृत कर दिया
है। राजनीति की निराशा आम आदमी के जीवन में दिखाई देने लगी है, ये कदापि उचित
स्थिति नहीं कही जाएगी।
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निराशा के बनते चतुर्मुखी माहौल को ऐसा नहीं है कि सुधारा न
जा सके, किन्तु इसके लिए बजाय दोषारोपण के समवेत रूप से कार्य करने की आवश्यकता है।
राजनीति में सुधार के लिए ये अपरिहार्य है कि राजनेता स्वच्छ छवि के आयें, दागी,
अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का बहिष्कार किया जाये, धर्म-जाति-क्षेत्र की राजनीति
से ऊपर उठकर जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाये; मतदान को महज अवकाश समझने की बजाय
उसको अपना कर्तव्य समझना चाहिए और लोकतंत्र की सशक्तता के लिए आगे आना चाहिए। यदि
प्रत्येक व्यक्ति मतदान को अपना कर्तव्य समझकर इसका पालन करे और स्वच्छ छवि के
लोगों को निर्वाचित करने का कार्य करे तो भविष्य में स्वतः ही सदन दागी
जनप्रतिनिधियों से रहित होगा। कुछ इसी तरह की जागरूकता नागरिकों को भी अपने
व्यवहार में लानी होगी क्योंकि किसी भी देश का निर्माण वहाँ के नागरिकों से ही
होता है। हम सभी को ये समझना होगा कि हमारी स्वतंत्रता हमारी अभिव्यक्ति के लिए
है, हमारे स्वतंत्र जीवन-निर्वहन के लिए, स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक कृत्य करने
के लिए है, अपनी रुचि के अनुसार कार्य एवं कार्यक्षेत्र चुनने के लिए है न कि किसी
दूसरे की स्वतंत्रता-अधिकार के हनन के लिए। अपने किसी भी कार्य को करवाने के लिए अनुचित
साधनों का प्रयोग करना; किसी दूसरे को लाभान्वित करने का लालच देकर कोई भी कार्य
संपन्न करवाना; लालच देकर किसी को भी अपने अधीन करने की मानसिकता रखना आदि का यदि
प्रत्येक इंसान त्याग कर ले तो समाज से लालच, रिश्वत, भ्रष्टाचार स्वतः ही समाप्त
हो जायेगा।
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हमें ये ध्यान रखना होगा कि देश की, हमारी आज़ादी कोई एक-दो
दिन का, एक-दो लोगों का प्रयास नहीं है अपितु ये कई-कई वर्षों की, कई-कई शहीदों की
तपस्या का सुखद परिणाम है। इसे सुरक्षित रखना, इसको संवर्धित करना हम नागरिकों का
कर्तव्य है। अपनी भावी पीढ़ी को हम वर्तमान स्वतंत्रता के लिए किये गए प्रयासों से
परिचित करवाएं; इस आज़ादी के लिए किये गए बलिदान का उनको स्मरण करवाएं; इंसान से
इंसान का भाईचारे का रिश्ता उनको समझाएं; सामुदायिकता-सहयोग की भावना को विकसित
करने का मन्त्र उनको सिखाएं; रोजगार के स्थान पर जनोपयोगी शिक्षा देने का कार्य
करें तो ऐसा कतई संभव नहीं कि हमारा लोकतंत्र अक्षुण्य न रहे। देश की महान
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को, गणतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, सुरक्षित
रखने के लिए हम सभी नागरिकों को सजग, सचेत, चैतन्य होना चाहिए और इसे अनिवार्य रूप
से अपना कर्तव्य समझना चाहिए।
+++++++++++उक्त आलेख त्रैमासिक पत्रिका 'अदबनामा' के जनवरी-मार्च 2015 के अंक में प्रकाशित क्या गया है.
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