एक तरफ सरकारी स्तर पर
शैक्षिक उन्नयन की नीतियां बनाई जाती हैं, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा नित
ही कोई न कोई नियम निकाल कर उच्च शिक्षा गुणवत्ता लाये जाने के प्रयास किये जाते
हैं दूसरी तरफ खुद उसी के द्वारा उच्च शिक्षा के साथ खिलवाड़ किया जाता है. यदि गंभीरता
से देखा जाये तो किसी भी क्षेत्र में शोध का अपना महत्त्व है और अध्यापन का अपना
महत्त्व है. इन दोनों को आपस में मिलाकर किसी भी तरह से भला नहीं किया जा सकता है.
उच्च शिक्षा की बात की जाये तो यहाँ जैसे एक तरह की अनिवार्यता कर दी गई है कि जो
अध्यापन के लिए आया है, उसे शोध कार्य भी करना है. इस सोच के चलते ही यूजीसी की
तरफ से, सरकार की तरफ से, विश्वविद्यालयों की तरफ से लगातार उत्कृष्ट शोधकार्यों
के लिए प्रयास किये जाते रहे हैं किन्तु उन पर वास्तविक रूप से अमल नहीं किया जाता
रहा है. ऐसा लगता है जैसे इन संस्थाओं का वास्तविक उद्देश्य किसी भी रूप में
व्यक्ति को पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान करवा देना है, शोधकार्य की प्रमाणिकता, उसकी
मौलिकता, स्तरीयता को जांचे-परखे बिना स्वीकृति प्रदान कर देना मात्र रह गया है.
यदि ऐसा न होता तो आज भी तमाम विश्वविद्यालयों से पी-एच०डी० के नाम पर कूड़ा-करकट
समाज में न आया होता; यदि ऐसा न हो रहा होता तो शैक्षिक क्षेत्र में मौलिक
शोधकार्यों का अभाव न दिख रहा होता; यदि ऐसा न हो रहा होता तो अध्यापन कार्य में
रत बहुतायत लोगों को इधर-उधर से जोड़-तोड़ कर अपना शोधकार्य पूरा न करना पड़ रहा
होता; यदि ऐसा न हो रहा होता तो अनेकानेक प्राध्यापकों को जुगाड़ तकनीक का सहारा
लेकर अपने स्कोर को समृद्ध न किया जा रहा होता. अध्यापन कार्य में सहजता,
सर्वोत्तम कार्य करने वाले व्यक्ति को यदि शोधकार्य में असहजता, असुविधा महसूस
होती है तो क्या आवश्यक है कि उसे भी शोधकार्य के लिए जबरन धकेला जाये? ठीक इसी
तरह का व्यवहार उस व्यक्ति से भी किया जाता है जो स्वयं को शोधकार्य के लिए
उपयुक्त पाता है, अपनी सोच का, अपनी मौलिकता का शोधकार्य में गुणवत्तापूर्ण उपयोग
कर सकता है. ऐसी स्थिति में सोचा जा सकता है कि कोई अपनी भूमिका के साथ न्याय कैसे
कर सकता है?
.
इसके साथ-साथ प्राध्यापकों के
कैरियर के लिए गुणांकों की अनिवार्यता ने इस स्थिति को और भी विकृत कर दिया है.
इसके चलते जहाँ एक तरफ रिसर्च जर्नल्स की बाढ़ सी आ गई है, राष्ट्रीय के क्या कहने
अब तो अंतर्राष्ट्रीय जर्नल बाज़ार में थोक के भाव से दिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ
इसने बौद्धिकता को भी बाज़ार बना दिया है. चंद रुपयों की कीमत पर शोध-पत्र प्रकाशित
किये जा रहे हैं; सेमिनार, गोष्ठी आदि के प्रमाण-पत्र बांटे जा रहे हैं; घर में
प्रकाशन खोलकर, पुस्तकों से सामग्री की चोरी कर, उसमें जरा सा हेर-फेर करके अपने
नाम से अंधाधुंध प्रकाशन किया जा रहा है. रातों-रात अध्यापन कार्य में संलिप्त
रहने वाले तमाम प्राध्यापक सैकड़ों पुस्तकें छपवाकर साहित्यकार बन गए, कॉपी, कट,
पेस्ट की तकनीक को अपनाकर न जाने कितने प्राध्यापक हजारों-हजार लेखों के रचयिता बन
गए, रत्ती भर शोधकार्य न करवाने के बाद भी न जाने कितने विद्यार्थियों को अपने
निर्देशन में पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान करवा चुके हैं. ऐसे विलक्षण प्रतिभा के
धनी बहुतायत लोगों के चलते उच्च शिक्षा में शोध के नाम पर, अध्यापन के नाम पर
लगातार गिरावट आ रही है.
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ऐसा नहीं है कि आयोग को,
सरकार को या फिर विश्विद्यालयों को इसकी भनक न हो किन्तु वैश्विक स्तर पर इन उच्च
शिक्षा संस्थानों में शोध-कार्यों की, अध्यापन की उत्कृष्टता दर्शाने के लिए कागजी
घोड़े दौड़ाये जा रहे हैं. इन कागजी घोड़ों की दौड़ में निजी शैक्षणिक संस्थानों, ने शामिल होकर उच्च शिक्षा का रहा-सहा कचूमर
निकाल कर रख दिया है. ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज़
पर इनके द्वारा शिक्षा व्यवस्था को संचालित किया जा रहा है. गाँव-गाँव, खेतों के
मध्य खड़ी होती इमारतें, तमाम सारे पाठ्यक्रमों का सञ्चालन, हजारों-हजार विद्यार्थियों
का प्रवेश किन्तु अध्यापकों के नाम पर जबरदस्त शून्यता. स्थिति की भयावहता, उच्च
शिक्षा के मखौल का इससे ज्वलंत उदाहरण क्या होगा कि महाविद्यालय में किसी विषय में
अनुमोदन किसी और व्यक्ति का है, उसके स्थान पर महाविद्यालय में पाया कोई और
व्यक्ति जा रहा है. विश्वविद्यालय स्तर से अनुमोदित व्यक्ति न केवल एक महाविद्यालय
में ही नहीं वरन कई-कई दूसरे विश्वविद्यालयों के महाविद्यालयों में अनुमोदित है.
बेरोजगारी की मार के बाद स्थिति यहीं तक आकर रूकती तो भी शायद गनीमत कही जा सकती
थी. स्थिति की भयावहता को ऐसे समझा जा सकता है कि कई-कई अध्यापक तो इस तरह के
अनुमोदित कर दिए गए हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है. किसी के शैक्षणिक
प्रमाण-पत्रों की फोटोकॉपी के साथ छेड़छाड़, किसी की फोटो के साथ एडिटिंग, किसी
दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति और फिर बाकी का काम लेन-देन के माध्यम से यथास्थिति को
प्राप्त हो जाता है. बिना योग्यता सूची प्रवेश की सहजता, कक्षाओं में न आने की
स्वतंत्रता, नक़ल-युक्त परीक्षाओं की व्यवस्था, उड़नदस्ता द्वारा पकड़े जाने पर
विश्वविद्यालय से निर्दोष साबित करवाए जाने की सुविधा... सोचिये ऐसे में किस नियम
से, किस विधान से, कौन सी सरकार, कौन सा आयोग उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार
कर देगा?
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स्थिति अत्यंत विकराल है,
शिक्षा के साथ घनघोर मजाक हो रहा है और ऐसा महज उच्च शिक्षा क्षेत्र में ही नहीं
अपितु शिक्षा के आरंभिक बिन्दु से ही हो रहा है. शिक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करने का
दुष्परिणाम है कि जहाँ किसी समय हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था गौरव का विषय हुआ
करती थी आज हम विश्व के सैकड़ों सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में भी शामिल होने से वंचित
रह जा रहे हैं. ऐसी व्यवस्था के लिए किसी एक को दोष देना उचित नहीं है. एक तरफ
सरकारें हैं जिनके पास कोई जमीनी नीति नहीं है, एक तरफ आयोग है जिसके पास
क्रियान्वयन के कोई ठोस बिन्दु नहीं हैं, एक तरफ राज्य सरकारें हैं जो किसी भी
नीति पर केन्द्र सरकारों से दुश्मनी निकालती रहती हैं, एक तरफ विश्वविद्यालय हैं
जिनके पास नीति-निर्देशक नहीं हैं, एक तरफ महाविद्यालय हैं जिनके पास नियंत्रण
नहीं है. ऐसे में उच्च शिक्षा में गुणवत्तापूर्ण विकास होगा, कहना मुश्किल है; ऐसे
में शोधकार्यों में वैश्विक पहचान मिलेगी, सोचना भी हास्यास्पद है; ऐसे में
अध्यापन कार्यों के द्वारा ज्ञान का प्रसार होगा कपोलकल्पना है; ऐसे में विद्यार्थियों
द्वारा शिक्षा व्यवस्था के प्रति विश्वास जागेगा भविष्य के साथ खिलवाड़ करना है.
जिस तरह से नीतियों के अभाव में, गुणवत्ता के अभाव में, अध्यापन के अभाव में उच्च
शिक्षा में गिरावट आई है; छात्रसंघ चुनावों के चलते विद्यार्थी अनुशासनहीन हुआ है,
उससे उच्च शिक्षा का भविष्य काला दिखाई दे रहा है, संकटग्रस्त दिखाई दे रहा है. अब
आवश्यकता वातानुकूलित कमरों में बैठकर नीतियां बनाने मात्र से नहीं वरन नीतियों का
व्यावहारिक क्रियान्वयन करवाने से कोई सार्थक, सकारात्मक हल निकलेगा.
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उक्त आलेख जनसंदेश टाइम्स दिनांक 19-08-2015 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.
http://www.jansandeshtimes.net/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Kanpur/Kanpur/19-08-2015&spgmPic=7
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