मंगलवार, 15 सितंबर 2015

शाब्दिक विकृति से बचने की आवश्यकता है


भूमंडलीकरण के इस दौर में संचार-साधनों ने अपनी उपयोगिता को सिद्ध किया है. सूचना युग होने के कारण से संचार माध्यमों की महत्ता जनसम्पर्क के लिए और बढ़ जाती है. जनसंचार क्रांति के इस दौर में जहाँ संचार-माध्यमों ने विकास किया है वहीं ये भी माना जा रहा है कि हिन्दी ने भी उत्तरोत्तर अपना विकास किया है. अंग्रेजी को आज भले ही विश्वव्यापी संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार किया जा रहा हो किन्तु इसके साथ-साथ हिन्दी ने भी वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाई है. बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिन्दीभाषियों के मध्य अपने उत्पादों के लिए व्यापक बाज़ार देखने के बाद हिन्दी को महत्त्व देना आरम्भ किया है. उन्होंने अपने यहाँ के कर्मचारियों, अधिकारियों को हिन्दी सीखने के निर्देश दिए साथ ही ऐसी कंपनियों के विज्ञापन हिन्दी में देखे जा सकते हैं. सबसे बड़ी बात ये है कि ऐसा सिर्फ भारत में नहीं वरन विदेशों में भी हो रहा है. 

बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हिन्दी-प्रेम के बाद इंटरनेट ने भी हिन्दी को विकसित होने के पर्याप्त अवसर प्रदान किये. सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों के द्वारा हिन्दीभाषियों ने अपनी भाषा में अपनी विचाराभिव्यक्ति करके हिन्दी को समृद्ध करने का कार्य किया. आस-पड़ोस की घटना हो या फिर प्रादेशिक-राष्ट्रीय स्तर की कोई खबर, सोशल मीडिया के कारण वो तुरंत हमारे-आपके बीच उपस्थित होती है और वो भी हमारी अपनी भाषा में. इसके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य को लेकर भी समृद्धता देखने को मिली है. शब्द-भंडार में वृद्धि हुई है, रचनाओं की बहुलता देखने को मिली है, दुर्लभ रचनाओं ने परदे के पीछे से निकल कर इंटरनेट पर अपना स्थान बनाया है. हिन्दी न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिष्ठित हुई है.

इस प्रतिष्ठा के बाद भी कभी-कभी लगता है कि जनसंचार माध्यमों ने हिन्दी के साथ दोहरा रवैया अपनाया हुआ है. एक तरफ हिन्दी के विकास को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा हिन्दी को लेकर सकारात्मकता दिखाई जाती है; मीडिया में बड़े-बड़े आयोजन हिन्दी को लेकर किये जाते हैं; सितम्बर माह आते ही हिन्दी भाषा की याद सभी को सताने लगती है किन्तु वास्तविकता में एहसास होता है कि यही माध्यम हिन्दी को दोयम दर्जे का बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं. हिन्दी के साथ नकारात्मक रवैया अपनाने में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ-साथ प्रिंट मीडिया भी शामिल है. जिस तेजी से भूमंडलीकरण ने, वैश्वीकरण ने अपने पैर पसारे हैं, जिस तेजी से औद्योगिकीकरण ने आम आदमी में सहज उपस्थिति बना ली है, जिस तरह से आधुनिकता ने समाज में अपनी स्वीकार्यता बना ली है उसमें अपेक्षा की जाती है कि आम आदमी भी तकनीकी रूप से समृद्ध हो. इसका सीधा सा तात्पर्य उपकरणों के प्रयोग के साथ-साथ भाषाई जड़ता से मुक्ति पाने से भी लगाया जाता है. देखने में आया है कि तकनीकी रूप से मानव ने समृद्ध होकर उपकरणों पर अपनी निर्भरता बहुत अधिक बना ली है वहीं नई युवा पीढ़ी ने भाषाई जड़ता को तोड़ते हुए भाषा के सभी बने-बनाये मानदंडों को ध्वस्त कर दिया है, हालाँकि ऐसा अंग्रेजी भाषा के साथ बहुतायत में हो रहा है जहाँ कि इसका उपयोग मोबाइल सन्देश में, सोशल मीडिया के अन्य दूसरे माध्यमों में किया जा रहा है. हिन्दी में ये आज़ादख्याल युवा विखंडन की स्थिति को पैदा नहीं कर सके हैं, ये अलग बात है कि इनका रुझान बजाय हिन्दी भाषा के अंग्रेजी भाषा की तरफ बढ़ा है. हिन्दी में इस तरह की नकारात्मक स्थिति को, भाषाई विखंडन, भाषाई विद्रूपता की स्थिति को हिन्दी माध्यमों के संचार-साधनों ने बढ़ाया है.

जनसंचार माध्यमों में चाहे प्रिंट मीडिया रहा हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों में हिन्दी भाषा के प्रति उपेक्षा का भाव बना हुआ है. यद्यपि ये देखने में अवश्य आ रहा है कि इनके द्वारा हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है; कार्यक्रम, समाचार, विज्ञापन आदि हिन्दी भाषा में दिखाए-प्रकाशित किये जा रहे हैं तथापि उनकी भाषा में ही विसंगति उत्पन्न करके हिन्दी भाषा की उपेक्षा सी की जा रही है. हिन्दी-भाषी समाचार-पत्रों में, समाचार चैनलों में हिन्दी के स्थान पर जबरन अंग्रेजी के शब्दों को ठूंस कर, वाक्य संरचना विकृत करके, वाक्य-विन्यास बिगाड़ कर, वर्तनी की अशुद्धियों के द्वारा, भाव-बोध, क्रिया-बोध को अशुद्ध रूप में प्रस्तुत करके हिन्दी भाषाई अवमूल्यन का बोध कराया जा रहा है. चंद उदाहरण से इसे सहजता से समझा जा सकता है.

यूनिवर्सिटी के वी०सी० हटाये गए. (विश्वविद्यालय के स्थान पर यूनिवर्सिटी और कुलपति के स्थान पर वी०सी० का प्रयोग). एस०सी०/एस०टी० विद्यार्थियों को एडमीशन के लिए निशुल्क फॉर्म वितरण. (अनुसूचित जाति/जनजाति के स्थान पर एस०सी०/एस०टी० का, प्रवेश के स्थान पर एडमीशन तथा आवेदन-पत्र के स्थान पर फॉर्म का प्रयोग किया जाना). तालाब में लाश तैरती पाई गई. (यहाँ क्रियात्मक त्रुटि है, लाश बेजान है जो सकर्मक क्रिया नहीं कर सकती, जबकि तैरना सकर्मक क्रिया है.). मजिस्ट्रेट द्वारा भगाई गई लड़की का बयान दर्ज किया गया. (यहाँ क्रम विपर्यय और अंग्रेजी शब्द का प्रयोग है, शुद्ध वाक्य भगाई गई लड़की का बयान न्यायाधीश द्वारा दर्ज किया गया होना चाहिए). महिला लेखिकाओं ने गोष्ठी में विचार व्यक्त किये. (लेखिकाओं होने के बाद महिला की आवश्यकता नहीं रह जाती है). अनेकों नागरिकों ने जन-धन योजना में खाता खुलवाया. (अनेक अपने आपमें बहुवचन है और उसका बहुवचन बनाना शाब्दिक विकृति ही कही जाएगी). गंगा खतरे के निशान से ऊपर. (यहाँ शब्द लोप है, गंगा नदी का प्रयोग होना चाहिए था)

उज्ज्वल के स्थान पर उज्जवल, संन्यासी के स्थान पर सन्यासी, तत्त्व के स्थान पर तत्व, पूजनीय के स्थान पर पूज्यनीय आदि का प्रयोग किया जाना बहुतायत में हो रहा है, जो सर्वथा गलत है. अनुस्वार और अनुनासिका लगाने में किसी तरह का भेद नहीं किया जा रहा है. अनुनासिका के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग सहजता से होते देखा जा रहा है. इसके अलावा वर्तनी की अशुद्धियाँ, शाब्दिक अशुद्धियाँ बहुतायत में देखने को मिलती हैं. यद्यपि लोगों द्वारा इन गलतियों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है तथापि भाषाई दृष्टि से ऐसा होना गलत और निंदनीय है.

भाषाई सम्पन्नता का अर्थ यह नहीं है कि शब्दों का प्रयोग किसी भी रूप में होने लगे, भले ही वे बहुतायत में प्रयुक्त हो रहे हों. भाषाई समृद्धता का अर्थ भाषा के, शब्दों के उचित क्रियान्वयन से है. यदि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो कहीं न कहीं भाषाई रूप से अपनी विपन्नता को प्रकट कर रहे हैं. इसके पीछे हमारा अपनी भाषा से दूर होते जाना है. यही कारण है कि आज हम हिन्दी में बातचीत करते समय हर दो-तीन शब्दों के बाद अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करते हैं. हिन्दी भाषा का, हिन्दी शब्दों का प्रयोग करना फूहड़ता नहीं है; विदेशी भाषा के शब्दों का प्रयोग करना हमारी मानसिक विकृति को नहीं दर्शाता है बशर्ते कि हम भाषा का, शब्दों का सही ढंग से प्रयोग कर रहे हों. जनसंचार माध्यमों, विशेष रूप से प्रिंट माध्यमों को इस बात को समझना होगा कि हम आज भी आधुनिकता के इस दौर में किसी भी प्रकाशित कागज को माँ सरस्वती के रूप में देखते हैं; उस पर पैर लग जाने पर उसे सम्मान से माथे पर लगाते हैं, ऐसे में उनकी जिम्मेवारी बनती है कि वे भाषाई शुद्धता का विशेष ख्याल रखें. उन्हें समझना होगा कि यदि आज वे इस तरह की भाषाई विकृति पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करेंगे तो वे भविष्य की एक पीढ़ी को न केवल भाषाई विकास से अछूता कर रहे हैं बल्कि कहीं न कहीं उनमें हिन्दी भाषाई विपन्नता भी पैदा कर रहे हैं.
 


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