शुक्रवार, 17 जून 2016

संरक्षित करने के लिए पहले मारना जरूरी है

मारना और बचाना अन्योनाश्रित क्रियाएँ हैं. यदि किसी को बचाना है तो उसको मारना जरूरी है. बिना मारे बचाने जैसा कदम उठाया भी नहीं जा सकता है. ये क्रियाएँ विनाश और विकास की तरह हैं. विध्वंस और निर्माण के समतुल्य हैं. दो अलग-अलग प्रकृति की क्रियाओं का एकदूसरे से सम्बद्ध होना आश्चर्य का विषय नहीं है. अनादिकाल में स्वयं भगवान ने युद्धभूमि में उपदेशों के द्वारा अपने सखा-शिष्य को समझाया था कि निर्माण के लिए विध्वंस आवश्यक है. विकास की प्रक्रिया के लिए विनाश अनिवार्य है. मारना और बचाना भी ठीक इसी तरह की अन्योनाश्रित व्यवस्था है. आश्चर्य देखिये कि मारने-बचाने जैसी व्यवस्था को राजा से बोधिसत्व की ओर गए भगवान ने भी सिद्ध किया था. उन्होंने केवल शाब्दिक कृत्य से नहीं वरन एक पक्षी के द्वारा मारने-बचाने की क्रिया की अन्योनाश्रितता को प्राप्त किया था.

उनके बाद से समय-समय पर मारने-बचाने की अवधारणा पर कार्य किये जाते रहे. हर बार जानवरों को ही निशाना बनाया जाता रहा. ये उपक्रम तब तक चलता जब तक कि उसकी प्रजाति विलुप्त होने की कगार पर न पहुँच जाती. ज्यों ही प्रजाति विलुप्तिकरण का एहसास होता त्यों ही उसके बचाए जाने के प्रयासों का द्वार खोल दिया जाता. मारने की प्रक्रिया के बाद बचाए जाने की प्रक्रिया स्वतः आरम्भ कर दी जाती. गौरैया बचाई जाने लगी. बाघ बचाए जाने लगे. हिरन संरक्षित किये जाने लगे. गिद्ध खोजे जाने लगे. घड़ियाल अभ्यारण्य में पाले जाने लगे. कुल मिलाकर ऐसी कई-कई प्रजातियों के विध्वंस के बाद उनके निर्माण की बात सोची जाने लगी. उनके विनाश के बाद उनके विकास की प्रक्रिया अपनाई जाने लगी. उनके निर्वासन के बाद उनके संरक्षण की चर्चा होने लगी. कई-कई पक्षियों की प्रजातियाँ इसके बाद भी बचाई न जा सकीं और विलुप्त हो गईं. ये तो बाघ की किस्मत अच्छी कही जाएगी, जिसकी संख्या को इस प्रक्रिया में बढ़ा लिया गया.


कालगणना में कई-कई युग बीत जाने के बाद पुनः भगवन-वाणी ने अपने को सिद्ध करने का अवसर तलाश लिया. अबकी किसी भगवान ने नहीं वरन भक्त-सदस्य के द्वारा मारने-बचाने की अन्योनाश्रिता को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है. मारने की क्रिया को अब आदेशात्मक रूप प्रदान किया गया. निशाने पर अबकी बार भी जानवर ही आया. लाभ-हानि, नफा-नुकसान के समीकरण के बाद उस जानवर को फसलों के लिए, किसानों के लिए घातक सिद्ध कर लिया गया. इस समीकरण के चलते अभी मारने की क्रिया को प्रमुखता दी गई. प्राकृतिक रूप से ये प्रक्रिया तब तक अमल में लाई जाएगी, जब तक ये न साबित हो जाये कि सम्बंधित जानवर की प्रजाति विलुप्तिकरण की कगार पर पहुँच गई है. इसके बाद बचाए जाने की, संरक्षित करने की प्रक्रिया आरम्भ की जाएगी. उस जानवर की प्रजाति बचेगी या नहीं, ये तो भविष्य बताएगा. अभी तो उसकी प्रजाति को मारने का आदेश है. आदेश का पालन पूर्ण प्रतिबद्धता से हो रहा है. काश कि बेटियों को गर्भ में न मारने के आदेश का पालन भी इतनी ही प्रतिबद्धता से हो पाता. अफ़सोस कि सभी प्रजातियों की किस्मत बाघ जैसी अच्छी नहीं होती. 

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