गुरुवार, 26 मार्च 2015

इन्सान देवता की तरह, देवता इन्सान की तरह खेले


विश्वकप क्रिकेट के दौरान तो जैसे एकाएक कारनामा हो गया, हमारे खिलाडी पाकिस्तान के खिलाफ मैच क्या जीते, समूचा मीडिया कह उठा कि ऐसा लगा मानो देवता खेल रहे हों. मीडिया ने कहा तो समूची जनता को भी कहना, मानना पड़ा और देखते ही देखते इंसानी खिलाड़ी भगवान हो गए. हार के पास पहुँच कर भी जीतते-जीतते हमारे देवता फाइनल मैच तक आ गए. अब लगा कि इन देवताओं को भी शक्ति की आवश्यकता है. यज्ञ, हवन, व्रत, उपवास आदि किये जाने लगे; कोई अंक विद्या का ज्ञाता पांच अंक का मन्त्र ज्ञात कर बैठा. समूची शक्ति इन कागजी शेरों (क्रिकेट के देवताओं) को जिताने में लग गई. 
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फाइनल हुआ, देवता इन्सान की तरह खेले और दूसरे इन्सान चैम्पियनों की तरह. हमारे देवता हारे, विपक्षी इन्सान जीते. सारी की सारी आँकड़ेबाज़ी धरी की धरी रह गई. सारे यज्ञ, हवन शांत हो गए, सारे व्रत, उपवास खंडित हो गए, बाकी बचा तो बस आंसुओं का सैलाब, न दांये-बांये का चक्कर काम आया और न ही अंक विद्या का पांच का मन्त्र. तो इसमें निराशा की क्या बात है? सन १९८३ के बाद से और हो क्या रहा है? हर बार हमारी टीम के विश्वकप जीतने की सम्भावना प्रबल होती है और हर बार हम हार जाते हैं. कहीं न कहीं तो कमी रह ही जाती है? कहाँ? बस यही नहीं पता. खैर... अगला विश्वकप सन २००७ में है और यह तो हम निश्चित ही जीतेंगे. कहो कैसे? तो जरा निगाह नीचे भी डालें....
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१. भारत ने पहला विश्वकप जीता था लगातार दो बार की विश्वकप विजेता वेस्टइंडीज़ को हराकर. तब से न कोई लगातार दो बार विश्वकप जीता और न भारतीय टीम ने किसी को हराया. अब आस्ट्रेलिया ने लगातार दो बार विश्वकप जीता, तो अगली बार भारत ही विश्वकप जीतेगा, आस्ट्रेलिया को हराकर.
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२. भारत ने विश्वकप जीता था सन १९८३ में, यानि कि अंक विद्या के अनुसार १+९+८+३=२१=२+१=३, अंक आया तीन. सीधी सी बात है कि भारत उसी वर्ष विश्वकप जीतेगा जिस वर्ष का अंक तीन का गुणांक होगा. इस दृष्टि से आगामी विश्वकप सन २००७ का अंक भी ९ हो रहा है, तो जीत पक्की.
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३. सन १९८३ का विश्वकप तीसरा विश्वकप, वर्ष का अंक भी तीन, इसी तरह आगामी विश्वकप नौंवां और वर्ष का अंक भी तीन. तो समझो कि विश्वकप भारतीय टीम का हो गया.
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४. अंक विद्या वालों को पता होगा कि तीन, छह, नौ के अंक एक ही वर्ग के होते हैं. इस दृष्टि से भारत का विश्वकप छठे अथवा नौंवें विश्वकप में आना पक्का होता. छठा तो गया, आगामी है नौंवां, तो सभी भक्तो मगन हो जाओ और मौज करो.
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आह!!... अब थोड़ी राहत मिली लोगों को, नहीं तो लग रहा था कि जैसे अपनी इज्जत ही हार गए. करोड़ों रुपयों की बर्बादी के बाद भी खाली हाथ!! कभी सोचता हूँ कि आँकड़ेबाज़ी, इतने यज्ञ, हवन, व्रत, उपवास, इतनी मान्यता, इतना धन यदि हम गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंक, हिंसा, भूख, बेरोजगारी मिटाने के लिए करें तो शायद कोई समस्या ही नहीं रहे. पर नहीं, हम तो इन्सान हैं, इंसानों को तो सारी समस्याएं सहनी ही पड़ेंगी. आँकड़ेबाज़ी, यज्ञ, हवन, व्रत आदि तो देवताओं के लिए हैं, सो हम लोग कर ही रहे हैं..... फिर देवता कुछ भी करें.... चाहें हारें, चाहें जीतें. हम तो मगन रहेंगे और समस्याओं में जियेंगे, मरेंगे.... फिर अगले विश्वकप के लिए भी तो आँकड़ेबाज़ी, कारीगरी, बाजीगरी करनी है अभी.... है कि नहीं!!
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कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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(वर्ष २००३ में फ़ाइनल में भारतीय टीम की शर्मनाक पराजय के बाद लिखा व्यंग्य. ये व्यंग्य स्थानीय समाचार पत्रों.... दैनिक कर्मयुग प्रकाश और दैनिक अग्निचरण के २९ मार्च २००३ के अंक में प्रकाशित भी हुआ था.)

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

गणतंत्र विकास हेतु प्रत्येक नागरिक रहे जागरूक



गणतंत्र विकास हेतु प्रत्येक नागरिक रहे जागरूक
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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हमारा स्वतंत्र देश भारत, विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक राष्ट्रों में शामिल इस देश को की अद्भुत संरचना है। पंद्रह अगस्त को स्वतंत्रता के पश्चात् इस देश में गणतांत्रिक प्रक्रिया की आधारशिला भी रखी गई। ये अपने आपमें एक विशिष्ट अवसर कहा जा सकता है जबकि वर्षों की गुलामी से आज़ादी पाने के साथ ही देश-विभाजन का दंश, दंगों के घाव को पाने के बाद भी देश ने अपना संविधान, अपना गणतंत्र विकसित किया। 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान को लागू किया गया और माना गया कि भारत एक गणतांत्रिक देश है। देश में   भारत के संविधान को लागू किए जाने के पूर्व भी 26 जनवरी का अपना महत्त्व था। 31 दिसंबर सन् 1929 को लाहौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें इस बात की घोषणा की ग‌ई कि यदि अंग्रेजी सरकार 26 जनवरी 1930 तक भारत को उपनिवेश का पद (डोमीनियन स्टेटस) प्रदान नहीं करेगी तो भारत अपने को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर देगा। जैसा कि अंदेशा था कि अंग्रेजी सरकार कुछ नहीं करेगी, वाकई उसने कुछ नहीं किया. तब कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए अपना सक्रिय आंदोलन शुरू कर दिया। इसी लाहौर अधिवेशन में पहली बार तिरंगे झंडे को भी फहराया गया और सर्वसम्मति से ये भी फैसला लिया गया कि प्रतिवर्ष 26 जनवरी को पूर्ण स्वराज दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इस दिन सभी स्वतंत्रता सेनानी पूर्ण स्वराज का प्रचार करेंगे। इस तरह 26 जनवरी अघोषित रूप से भारत का स्वतंत्रता दिवस बन गया था। उस दिन से 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त होने तक 26 जनवरी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। कालांतर में जब इस तिथि को संविधान लागू किया गया तो 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। 
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गणतंत्र शब्द का आशय एक ऐसी व्यवस्था से लगाई जा सकती है जहाँ सबके लिए सामान रूप से व्यवस्थाएं कार्य करती हैं; जहाँ राज्य सञ्चालन होने के बाद भी एक सर्वोच्च संस्था कार्य करती है। वर्तमान में इसी गणतंत्र को लोकतंत्र के नाम से भी समझा जा सकता है। यहाँ हम गणतंत्र की सैद्धांतिक व्याख्या करने के स्थान पर उसके व्यावहारिक पक्षों का आकलन करें तो पाएंगे कि आज़ादी के बाद के वर्षों में हमने गणतांत्रिक व्यवस्था का दुरूपयोग ही अधिक किया है। जहाँ एक और गणतंत्र का पालन करने में राज्य-संघ का अपना अलग रवैया रहा है वहीं आम नागरिकों ने भी गणतंत्र की आत्मा के साथ छल किया है। यहाँ दोनों पक्षों के कार्यों का आकलन करना भी समीचीन है क्योंकि न तो राज्यों-संघ अकेले से गणतंत्र का सञ्चालन सुगमता से होने वाला है और न ही सिर्फ नागरिकों के जिम्मे इसको सहजता से चलाया जा सकता है। यदि केंद्र-राज्य को एक संस्था के रूप में और नागरिकों को भी एक स्वतंत्र संस्था के रूप में मन लिया जाये तो देखने में आया है कि दोनों संस्थाओं ने अपनी-अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय नहीं किया और कहीं न कहीं गणतंत्र की मूल भावना को चोट पहुँचाई है।
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यदि राजनैतिक दलों या कहें कि केंद्र-राज्य सञ्चालन करने वाले दलों, सदन में बैठने वाले दलों, उनके प्रतिनिधियों के कार्यों की चर्चा की जाये तो कहीं न कहीं ये लोग कालिख लगे नजर आते हैं। देश हित सर्वोपरि के स्थान पर इनके द्वारा स्वार्थमय राजनीति की जाने लगी। तुष्टिकरण की नीति, किसी भी रूप से सत्ता प्राप्त हो की नीति इनके लिए प्रभावी भूमिका निभाने लगी और इसी का दुष्परिणाम ये हुआ कि देश की संसद को भी शर्मसार होना पड़ा तो कई-कई राज्यों के सदन भी इन जन-प्रतिनिधियों के आपसी झगड़ों के शर्मनाक कृत्यों के गवाह बने। संविधान का निर्माण करने वाले विद्वानों को कभी इस बात का अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि देश की संसद में कभी संख्याबल के लिए जोड़-तोड़ की, खरीद-फरोख्त की राजनीति की जाने लगेगी; उन्होंने कभी इस पर भी विचार नहीं किया होगा कि देश के राजनेता, राजनैतिक दल कभी सत्ता के लालच में किसी निर्दलीय को भी राज्य का मुख्यमंत्री बना देंगे। इस देश में राजनैतिक रोटियां सेंकने के लिए वो-वो सब हुआ जो संविधान रचने वालों ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा। देश की संसद में ऐसा प्रधानमंत्री भी आया जो सदन में नहीं आ सका; संसद में ऐसे व्यक्ति के हाथों में सत्ता दी गई जिसके पास समूचे सदन की संख्या का दसवां हिस्सा तक नहीं था; संसद में ही रिश्वत काण्ड के खुलासे के लिए नोटों को उछाला गया; जहाँ प्रधानमंत्री को रिश्वत के लिए कटघरे में खड़ा किया गया; जहाँ एक समय ऐसा भी आया जबकि देश का प्रधानमंत्री उसी सदन का निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं था। ये सारी स्थितियां वे रहीं जिन पर कभी गर्व नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा स्वार्थपरक, तुष्टिकरण की राजनीति ने देश को कैसे-कैसे दिन, कैसी-कैसी घटनाएँ दिखाई कहना कठिन है, समझना उससे भी अधिक कठिन है।
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गणतंत्र को मजाक समझने की स्थिति में मात्र राजनेता ही आगे नहीं रहे वरन आम नागरिकों ने भी संविधान का, गणतंत्र का मखौल बनाया है। अधिकार पाने की होड़ लगातार नागरिकों में दिखाई दी किन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति एक तरह की नकारात्मकता देखने को मिली। यही कारण रहा कि आम इंसान के मन में न तो देश की संसद के प्रति सम्मान रहा, न राजनीति के प्रति, न राजनीतिज्ञों के प्रति। विडम्बना तो इस बात की है कि महज राष्ट्रीय पर्वों पर देशभक्ति गीतों के गाने बजाने; देशभक्ति के नाम पर सड़कों पर बेतरतीब बाइक चलाने, हुडदंग करने; आज़ादी के नाम पर खुद को दूसरे पर कब्ज़ा जमा लेने की मानसिकता रखने; सरकारी संपत्ति को बर्बाद करने की वस्तु मानने; रिश्वत, भ्रष्टाचार आदि को समाज की वास्तविकता स्वीकार्य मानने को ही वास्तविक गणतंत्र समझा जाने लगा। महिलाओं के साथ अपराध, पारिवारिक हिंसा, लूटमार, हत्या, जबरन कब्ज़ा करने की मानसिकता, अपहरण आदि ऐसी स्थितियां हैं जो कदापि गणतंत्र के अनुकूल नहीं कही जा सकती हैं। स्वतंत्रता का दुरूपयोग करके, अपने को सर्वोच्च सिद्ध करने की मानसिकता ने गणतांत्रिक व्यवस्था का रूप विकृत कर दिया है। राजनीति की निराशा आम आदमी के जीवन में दिखाई देने लगी है, ये कदापि उचित स्थिति नहीं कही जाएगी।
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निराशा के बनते चतुर्मुखी माहौल को ऐसा नहीं है कि सुधारा न जा सके, किन्तु इसके लिए बजाय दोषारोपण के समवेत रूप से कार्य करने की आवश्यकता है। राजनीति में सुधार के लिए ये अपरिहार्य है कि राजनेता स्वच्छ छवि के आयें, दागी, अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का बहिष्कार किया जाये, धर्म-जाति-क्षेत्र की राजनीति से ऊपर उठकर जनप्रतिनिधियों का चुनाव किया जाये; मतदान को महज अवकाश समझने की बजाय उसको अपना कर्तव्य समझना चाहिए और लोकतंत्र की सशक्तता के लिए आगे आना चाहिए। यदि प्रत्येक व्यक्ति मतदान को अपना कर्तव्य समझकर इसका पालन करे और स्वच्छ छवि के लोगों को निर्वाचित करने का कार्य करे तो भविष्य में स्वतः ही सदन दागी जनप्रतिनिधियों से रहित होगा। कुछ इसी तरह की जागरूकता नागरिकों को भी अपने व्यवहार में लानी होगी क्योंकि किसी भी देश का निर्माण वहाँ के नागरिकों से ही होता है। हम सभी को ये समझना होगा कि हमारी स्वतंत्रता हमारी अभिव्यक्ति के लिए है, हमारे स्वतंत्र जीवन-निर्वहन के लिए, स्वतंत्र रूप से अपने धार्मिक कृत्य करने के लिए है, अपनी रुचि के अनुसार कार्य एवं कार्यक्षेत्र चुनने के लिए है न कि किसी दूसरे की स्वतंत्रता-अधिकार के हनन के लिए। अपने किसी भी कार्य को करवाने के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग करना; किसी दूसरे को लाभान्वित करने का लालच देकर कोई भी कार्य संपन्न करवाना; लालच देकर किसी को भी अपने अधीन करने की मानसिकता रखना आदि का यदि प्रत्येक इंसान त्याग कर ले तो समाज से लालच, रिश्वत, भ्रष्टाचार स्वतः ही समाप्त हो जायेगा।
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हमें ये ध्यान रखना होगा कि देश की, हमारी आज़ादी कोई एक-दो दिन का, एक-दो लोगों का प्रयास नहीं है अपितु ये कई-कई वर्षों की, कई-कई शहीदों की तपस्या का सुखद परिणाम है। इसे सुरक्षित रखना, इसको संवर्धित करना हम नागरिकों का कर्तव्य है। अपनी भावी पीढ़ी को हम वर्तमान स्वतंत्रता के लिए किये गए प्रयासों से परिचित करवाएं; इस आज़ादी के लिए किये गए बलिदान का उनको स्मरण करवाएं; इंसान से इंसान का भाईचारे का रिश्ता उनको समझाएं; सामुदायिकता-सहयोग की भावना को विकसित करने का मन्त्र उनको सिखाएं; रोजगार के स्थान पर जनोपयोगी शिक्षा देने का कार्य करें तो ऐसा कतई संभव नहीं कि हमारा लोकतंत्र अक्षुण्य न रहे। देश की महान लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को, गणतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए, सुरक्षित रखने के लिए हम सभी नागरिकों को सजग, सचेत, चैतन्य होना चाहिए और इसे अनिवार्य रूप से अपना कर्तव्य समझना चाहिए।
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उक्त आलेख त्रैमासिक पत्रिका 'अदबनामा' के जनवरी-मार्च 2015 के अंक में प्रकाशित क्या गया है.

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

प्रसिद्धि से फिर रहे वंचित - व्यंग्य



प्रसिद्धि से फिर रहे वंचित
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पिछले कुछ दिनों से कोई काम पूरी तन्मयता से करो फिर भी कोई चर्चा नहीं. इधर दूसरों को देख रहे हैं कि कुछ न भी करें तो भी प्रसिद्धि पाए जा रहे हैं. ऐसा लगता है जैसे प्रसिद्धि इन अकेले के लिए ही फुर्सत में बैठी रहती है. वे नहीं बोलते थे तो भी चर्चा में, ये बोले ही जा रहे हैं तो भी चर्चा में हैं. कभी उनकी पगड़ी चर्चा का केंद्र बनती है तो कभी इनकी टोपी के चर्चे उछल पड़ते हैं. यहाँ जिंदगी निकल गई उपहार लेते-देते मगर किसी ने एक बार मोहल्ले स्तर पर भी बहस कराने-करने की नहीं सोची और एक ये हैं एक नामधारी वस्त्र क्या धारण किया, समझ में ही नहीं आ रहा कि ये उपहार था या खरीदा हुआ था? अभी इससे निपट नहीं पाए थे इनकी नीलामी ने बमचक काट दी. हजारों से लाखों बना और अब लाखों से करोड़ों की दिशा में कूच करने लगा.
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बहरहाल, हमारी परेशानी न तो नामधारी वस्त्र का खरीदा जाना है, न उसका उपहार में दिया जाना है, न उसकी कीमत है, न उसकी नीलामी है, हमारी सबसे विकराल समस्या ये है कि आखिर हमारे किसी कदम की कोई चर्चा क्यों नहीं होती? आखिर हमारे पास भी बेहतरीन वस्त्र रहे हैं, आखिर हमारे पास भी बेहतरीन उपहार रहे हैं पर सब बेकार ही साबित हुए. इस हताश करने वाली बेकारी के मध्य एकाएक हमारे दिमाग ने घंटी बजाई कि नीलामी के द्वारा हम भी थोड़ी-बहुत प्रसिद्धि पा ही सकते हैं. अपने देश का तो फिर भी कुछ सही राग है कि यहाँ किसी के बल्ले नीलाम होते हैं, किसी के हस्ताक्षर वाले सामान नीलाम होते हैं, कोई अपने गीतों की नीलामी करवाता है, कोई अपने संग्रहों की नीलामी में जुट जाता है, कोई पुस्तकों की नीलामी करके प्रसिद्धि पाने की जुगाड़ करता है तो कोई अपनी कलाकृतियाँ नीलाम करता दिखता है. वैसे नीलामी का अपना ही भारतीय इतिहास रहा है. बहुतों की तो जमीन-जायदाद तक नीलाम हो गए, उनके कुछ राजशाही शौक में. नीलामी का चलन देश में इतना है कि यहाँ लोग खरीदे हुए समान के साथ-साथ उपहार में, सम्मान में मिली हुईं वस्तुएं भी नीलाम करने में लग जाते हैं. इसके बाद भी यहाँ सभ्य, शिष्ट, संस्कारित रूप में वस्तुओं की नीलामी होती है जबकि विदेशों में आप नजर डालो तो पता चले कि वहाँ सामानों के साथ-साथ नामचीनों के बाल, शेव किये ब्लेड, अन्तःवस्त्र, भोजन किये गए सामान आदि तक ख़ुशी-ख़ुशी नीलामी में हाथों-हाथ लिए जाते हैं. और तो और वहाँ लोग अपना कौमार्य, अपनी देह तक नीलाम करने निकल पड़ते हैं.
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अपने देश की सभ्यता और विदेशों की स्वतंत्रता का फ्यूजन तैयार करते हुए हमने भी अपनी प्रसिद्धि के लिए नीलामी का रास्ता चुना पर समझ नहीं आया कि क्या नीलाम किया जाए? घर अपना है नहीं, जमीन-जायदाद बना नहीं पाए, देह में झुर्रियाँ इतनी हैं कि वो फ्री में कोई न ले, पढ़ने-लिखने वाले इतने विशाल ह्रदय नहीं कि हम अपनी पांडुलिपियाँ नीलाम कर सकें, बर्तन-भांड़े भी इस रूप-रंग के हैं कि उनको कोई कबाड़ी भी न ले फिर, फिर क्या नीलाम किया जाए? पूरा घर छान मारा, सब रिश्तेदारों से, दोस्तों से पूछ मारा, नेट पर खंगाल मारा पर एक भी ऐसा सामान समझ नहीं आया जिसे नीलाम करके हम पैसा न सही, अपनी प्रसिद्धि पा लेते. थकहार कर टूटी कुर्सी पर निढाल लुड़क पुनः हताश बेकारी के आगोश में चले गए. हाय रे! हम इस बार भी नीलामी लायक कुछ न जुटा पाने के कारण फिर प्रसिद्धि पाने से वंचित रह गए.

ये व्यंग्य दैनिक जनसंदेश टाइम्स के २१ फरवरी २०१५ के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ.

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

साहित्य-समृद्धि के लिए साहित्यकार संवेदित हो



साहित्यकारों के बीच, असाहित्यकारों के बीच अब साहित्य चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ असाहित्यकारों को इस बात का दुःख होने लगा है कि यदि साहित्यकार भूखा रहेगा तो खायेगा क्या? ये चिंता राजनीति से प्रेरित भी दिखाई देती है और राजनीति को प्रेरित करती भी लगती है. ये साहित्य की बहुत बड़ी बिडम्बना है कि ऐसे लोग अब साहित्य की चिंता करते देखे जा रहे हैं जिनका कभी भी साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहा. यदि साहित्य की, विशेष रूप से हिन्दी साहित्य की बात की जाये तो उँगलियों पर गिने जा सकने वाले नाम ही उन साहित्यकारों के मिलेंगे जो धन की मसनद लगाकर साहित्यसृजन करते रहे अन्यथा की स्थिति में साहित्यकारों ने घनघोर अभावों को सहा है और कालजयी कृतियों की रचना की है. ऐसे एक-दो नहीं अनेकानेक नाम हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से, अपने मिजाज़ से, अपने विचारों से समझौता न करके फक्कड़पन की स्थिति में भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है.
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वर्तमान दौर जबसे बाज़ार के हवाले हुआ है तबसे समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक क्षेत्र उत्पाद सा लगने लगा है. साहित्य हो या साहित्यकार, कलम हो या कि रचना, लेखक हो या कि पाठक सब कहीं न कहीं बाज़ारवाद के प्रभाव में ही साहित्य-क्षेत्र में आगे बढ़ते दिख रहे हैं. यहाँ आकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों को समझना होगा कि महज एक कृति का प्रकाशित हो जाना साहित्य नहीं है, किसी नेता-मंत्री के हाथों सम्मानित हो जाना साहित्य-सेवा नहीं है, बड़ी-बड़ी रॉयल्टी पा लेना साहित्य-सृजन नहीं है. उन्हें स्वयं अपने गिरेबान में झाँकना होगा और देखना होगा कि साहित्य की समृद्धि के लिए उन्होंने किस संख्या में नई पौध को रोपने का काम किया है, जो नवांकुर हैं उनकी सुरक्षा की कितनी जिम्मेवारी उठाई है. आधुनिकता से परिपूर्ण ये दौर, तकनीकी से भरा ये दौर जिस तरह जीवन-मूल्यों के लिए, संवेदनाओं के लिए, इंसानों के लिए संक्रमणकाल है ठीक उसी तरह से साहित्य-जगत के लिए भी संक्रमण का दौर है. साहित्य आम आदमियों के बीच से उठकर प्रकाशकों की गोदी में बैठ गया है, जहाँ प्रकाशन अब या तो पुरस्कारों के लिए होता है या फिर पुस्तकालयों के लिए. ऐसे में साहित्य की समृद्धि की संभावनाओं पर चर्चा करना भी बेमानी हो जाता है. हिन्दी साहित्य में कविता और दुष्यंत के बाद चलन में आई हिन्दी ग़ज़ल जिस तरह से आम आदमी के बीच सहजता से स्थापित थी वो भी अब मंचीय चुटकुलों में परिवर्तित होती दिख रही है. वास्तविकता प्रदर्शित करने के नाम पर कहानियों, उपन्यासों में फूहड़ता, यौन प्रदर्शन का समावेश होना साहित्य को विकृत कर रहा है.
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दरअसल साहित्य सामाजिक संवेदना का विषय है, इसमें साहित्यकार जिस-जिस मानसिकता का, जिस-जिस अवस्था का अनुभव करता है वो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अपनी रचना में प्रदर्शित करता है. ये कतई आवश्यक नहीं कि जब तक साहित्यकार अभावग्रस्त नहीं होगा, जब तक साहित्यकार भूखा नहीं होगा, जब तक वो कष्ट में नहीं होगा तब तक कालजयी रचनाएँ संभव नहीं. इसके उलट साहित्यकार का संवेदित होना, समाज की नब्ज़ को पहचानने वाला, समृद्धि के लिए नई पौध का निर्माण करने वाला होना गुणों से परिपूर्ण होना आवश्यक है. महज इसलिए लेखन करना कि किसी न किसी रूप में पुस्तकों के प्रकाशन होते रहे, महज इसलिए लिखते रहना कि पुरस्कार झोली में गिरते रहे, इसलिए लेखन करना कि समाज में साहित्यकार का तमगा मिला रहे साहित्य को समृद्ध नहीं कर रहे वरन उसको रसातल में ले जाने का काम कर रहे हैं. और इसका आकलन महज इस बात से लगाया जा सकता है कि विगत दो-तीन दशकों में एक-दो पुस्तकों को छोड़कर कोई दीर्घजीवी कृति पाठकों के हाथों में नहीं आई है. साहित्यकारों को सामाजिक संवेदना, जीवन-मूल्यों के साथ साहित्य-सृजन करना होगा, उसी से साहित्य समृद्ध होगा, उसी से साहित्यकार संपन्न होगा. अन्यथा की स्थिति में सोशल मीडिया की निर्द्वन्द्व स्वतंत्रता ने तो प्रत्येक व्यक्ति को साहित्यकार और किसी भी तरह के लेखन को साहित्य बना ही दिया है.