ये कहानी हमें बड़ी समझ में आई। इस कारण आप पाठकों की सुविधा से इसे चार भागों में प्रकाशित किया जाएगा। कृपया अन्यथा न लेकर इस कहानी का पाठन करेंगे।
आज पहला भाग
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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आज पहला भाग
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कतरा-कतरा ज़िन्दगी
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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बस से उतर कर हरिया ने एक उदास सी निगाह सूखे पड़े बम्बा पर डाली। पानी का कहीं नामोनिशान नहीं था। शाम के धुँधलके में भी मिट्टी के चटकने के निशान स्पष्ट रूप से दिख रहे थे। अब पता नहीं हरिया को वे निशान दिख रहे थे या फिर सूखे की मार के जो निशान उसके मन में छप गये थे, वही बम्बा की चटकी हुई मिट्टी के रूप में सामने आ रहे थे। पिछले तीन सालों से सूखे की मार झेल रही मिट्टी अपनी चटक को किसानों के मन में कहीं गहरे तक पैठ बना चुकी थी। हरिया की भी यही स्थिति थी। सूखे की समस्या, पानी की कमी, सिंचाई के साधनों का अभाव हरिया जैसे छोटे किसानों को गाँव से बेदखल सा कर रहा था।
गाँव के एक दो नहीं बल्कि वे सभी स्त्री-पुरुष जो किसी न किसी रूप में मेहनत-मजदूरी कर सकते हैं, गाँव से शहर की ओर पलायन कर चुके हैं। कुछ तो दूसरे राज्यों तक में कई महीनों से मजदूरी आदि कार्यों में लगे हैं तो कुछ गाँव के आसपास, नजदीक के शहरों में ही काम-रोजगार की तलाश में लगे हैं। किसी को काम मिलता है, किसी को नहीं; कोई रोज ही गाँव से शहर आता-जाता रहता है तो कोई शहर में ही रहने का ठिकाना बना लेता है।
हरिया भी ऐसे किसानों की तरह मार खाये किसानों में से एक है जो गाँव से शहर को रोजी-रोटी की तलाश में भागता है। चूँकि अभी आय का कोई ऐसा साधन उपलब्ध नहीं हो सका है कि वह शहर में ही रुक सके, इस कारण वह रोज ही गाँव से आता-जाता रहता है। किसी दिन काम मिल जाता है तो किसी-किसी दिन बस यूँ ही धूल खाते दिन निकलता है। जिस दिन काम मिल जाता है उस दिन तो दो पैसे का जुगाड़ हो जाता है, खाने-पीने को कुछ सामान खरीद लिया जाता है किन्तु जिस दिन किसी भी तरह की कोई कमाई नहीं हो पाती है उस दिन तो बस, टैम्पो आदि के किराये में गाँठ की कमाई भी निकल जाती है।
गाँव का मोह, अपने खेतों से प्यार और उससे बड़ा उसके किसान होने का मर्म ही है कि पिछले कई माह से शहर जाने के बाद भी उसका खेतों पर जाने का क्रम नहीं टूटा है। शहर जाने के पूर्व हरिया एक भरपूर निगाह अपने खेतों पर डाल आता है। सुबह-सुबह की हरियाली और फसल से विहीन खेत धूल उड़ाते ऐसे लगते हैं मानो हरिया के आने पर उमड़ पड़ते हों। हरिया वात्सल्य भाव से अपने सूखे पड़े खेतों को बस निहारता रहता है। आँखों में परेशानी के भाव आँसुओं के रूप में छलक पड़ते हैं, मानो कुछ न कर पाने के लिए पश्चाताप करना चाहते हों।
‘‘का सोचन लगे दद्दा? खेतन की तरफ नईं चलने का?’’ हरिया को जड़वत् देखकर उसके साथ बस से उतरे उसके पुत्र राघव ने पूछा।
‘‘कछु नईं......बस ऐसेईं।’’ निःश्वास छोड़ हरिया ने अपने बीस वर्षीय पुत्र को यूँ निहारा मानो वह उसका पिता और हरिया उसका बेटा हो। सैंतालीस वर्षीय हरिया को एकाएक अपने वुद्ध होने का एहसास होने लगा। उसे अपने अंदर सूखे खेतों की तरह ही बहुत कुछ सूखा-सूखा सा महसूस हुआ। बिना कुछ कहे हरिया ने अपने पुत्र का कंधा थपथपाया और खेतों की तरफ चल दिया। चलते-चलते राह में साथ-साथ जा रहे सूखे बम्बा को भी बीच-बीच में निहार लेता।
हरिया को एक किसान की जिन्दगी और उस बम्बा की स्थिति में साम्य समझ में आ रहा था। हरिया ने महसूस किया कि उसके भीतर से जैसे विचारों का बाँध सा फूट पड़ा हो। लगा कि कोई है उसके भीतर जो उसको भी उस सूखे बम्बा सा परिभाषित कर रहा है। सूखा पड़ा बम्बा किसी समय तीव्र धार से अपने दोनों किनारों के बीच पानी को बहाता रहता है ठीक उस किसान की तरह जो अपने दोनों हाथों की ताकत से हरियाली को खेतों में बहाता है। बहते बम्बा का पानी अपने आसपास के खेतों की प्यास के साथ-साथ आबादी की प्यास को बुझाता है, किसान भी तो अपनी मेहनत से पैदा की गयी फसल से देश को खाद्यान्न उपलब्ध कराता है। बम्बा में पानी की धार भी सरकारी कृपा से, प्राकृतिक अनुकम्पा से बहती है, उसी तरह किसान की खुशहाली भी दूसरे तत्वों पर आधारित होती है। इसके साथ-साथ सूख बम्बा, गरीब किसान दरकते-चटकते प्रतीत होते हैं। इस रीतेपन में कोई भी निगाह उठाकर उनकी ओर नहीं देखता है। पशु-मवेशी भी सूखे बम्बा को रौंद डालते हैं, महिलायें-पुरुष भी घर, रसोई, चूल्हा आदि के लिए उसको खोद-खोद कर उसकी मिट्टी निकाल ले जाते हैं; कुछ ऐसा ही हाल किसान का होता है। खेत सूखे रहते हैं, फसल होती नहीं है और वह भी लोगों द्वारा, समाज द्वारा रौंदा ही जाता है। कभी कर्ज के नाम पर खेतों को हड़पने का डर, कभी घर की महिलाओं को बेइज्जत किये जाने की आशंका रात-दिन उसको भीतर ही भीतर रौंदती रहती है।
राघव भी हरिया के पीछे-पीछे चुपचाप चला जा रहा था। आज वह अपने पिता को इतना खामोंश देख खुद असमंजस में था। पहले भी ऐसा कई बार हुआ है कि शहर में काम नहीं मिला पर ऐसा तो शायद ही कभी हुआ हो कि वह शहर से गाँव आने तक और गाँव में भी इस तरह खामोश चलता रहा हो। राघव भी बिना किसी प्रकार की बातचीत करे बस खेतों की ओर चला जा रहा था।
‘‘दद्दा जे का हो रओ अपएँ खेतन में?’’ राघव की विस्मयकारी आवाज सुनकर हरिया की सोच को एक झटका लगा। चौंक कर उसने अपने आसपास देखा। बस से उतर कर कब वह चलते-चलते खेतों तक आ गया, उसे पता ही नहीं चला।
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दूसरा भाग कल शाम को... 07:00 बजे
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