रविवार, 12 अगस्त 2012

चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है -- ग़ज़ल

चारों ओर इंसान के ज़िन्दगी का अजब घेरा है,

चाह है जिये जाने की पर मौत का बसेरा है।

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लगा था जो ज़िन्दगी आसान बनाने में,

अब उसी को पल-पल मौत मांगते देखा है।

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ज़िन्दगी उसको आज करीब से छूकर निकली,

मौत के साथ खेलना तो उसका पेशा है।

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क्या पता था राह मंजिल की इतनी कठिन होगी,

है घना अंधियारा और दूर बहुत सबेरा है।

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किसी आवाज या दस्तक पर नहीं कोई भी हलचल,

लगता है जैसे सभी को अनहोनी का अंदेशा है।

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मुस्कुराहट के पीछे का दर्द बयां कर रही थी आंखें,

सूनी सी आंखों में दर्द का इक दरिया छिपा है।

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नदारद रात की चांदनी, सुबह की रोशनी है,

ज़र्रे-ज़र्रे पर एक खौफनाक मुलम्मा चढ़ा है।

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अमन-चैन, प्रेम-स्नेह अब बातें हैं कल की,

सारा माहौल ही इस माहौल से दहशतज़दा है।

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रिसते ज़ख्म और सिसकते अश्क बनेंगे शोले एक दिन,

हर एक घूंट के साथ लोगों ने कोई अंगारा पिया है।

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