गुरुवार, 14 सितंबर 2017

तपती दुपहरी की शाम

तपती दुपहरी की शाम 
देखी है कभी?
दिल जब कभी तन्हा सा लगे
साथ होकर कोई साथ न दिखे
ऐसे में कोई लगा कर अपने गले 
रोम-रोम में अपनापन भर दे
तब दिखाई देती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम 
महसूस की है कभी?
धूप दुखों की फैली हो सिर पर
सुख की छाँव कहीं आये न नजर
ऐसे में बिन बादल कोई बरस कर
तन-मन को कर जाये तरबतर
तब महसूस होती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम 
सुनी है कभी?
खुद का सन्नाटा चीखने लगे
रोशनी दिन की डराने लगे
ऐसे में मंद पवन चल के
कानों में मंगलगान भर दे
तब सुनाई देती है
तपती दुपहरी की शाम।

तपती दुपहरी की शाम
बनकर देखा है कभी?
तन्हाई में उसको गले लगाकर
दो बोल अपनेपन के उसे सुनाकर
संवेदना की फुहार बरसा कर
आसान कर देते हो उसका सफर
तब बनते हो उसके लिए
तपती दुपहरी की शाम।

+++
कुमारेन्द्र किशोरीमहेन्द्र
13-09-2017

1 टिप्पणी:

Ravindra Singh Yadav ने कहा…

हिंदी-दिवस की शुभकामनाऐं।
सुंदर सामयिक प्रस्तुति।
यथार्थ और कल्पना को भावों में बख़ूबी पिरोया गया।
बधाई एवं शुभकामनाऐं।